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ये दायित्व निभाओगे तभी मिलेगी साफ हवा और पूरी सांस, कोपेनहेगेन से ये दस बातें सीखने की जरूरत

Dayitva Media - Kopenhagen pic
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– गोपाल शुक्ल:

देश की राजधानी दिल्ली एक गैस चैंबर में बदल चुकी है। जहरीली होती हवा की वजह से दिल्ली NCR में लोगों का जीना हराम है। यहां की हवा इस कदर खराब है कि दिल्ली NCR को खतरनाक श्रेणी वाले शहरों की कैटेगरी में सीवियर प्लस दिया गया है। आलम ये है कि एयर क्वालिटी इंडेक्स यानी AQI का स्तर औसत रूप से 450 के पार बना हुआ है। जिसकी वजह से हर यहां रहने वालों का दम फूलने लगा है। हर आंख में आंसू है और हरेक के सीने में जलन पैदा हो रही है। लेकिन इसी के साथ हर किसी के जेहन में यही एक सवाल भी कौंध रहा है कि आखिर इसका इलाज क्या किया जाए।

सरकारी तंत्र भी पूरी ताकत से हवा को साफ करने की कोशिश में लगा है। सुप्रीम कोर्ट भी हथौड़ा चला रहा है और सरकारों की क्लास ले रहा है, लेकिन यहां सांस लेने वाली हवा साफ होने का नाम ही नहीं ले रही। तब यही सवाल उठता है कि आखिर क्या किया जाए?

अब बात जब देश की राजधानी की हो रही है तो क्यों ने राजधानी की तुलना राजधानी से कर ली जाए। तो चलिए आपको दिल्ली से करीब 6 हजार किलोमीटर दूर डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन की एक तस्वीर दिखाते हैं।

कोपेनहेगन के बंदरगाह के पानी में एक बर्फीला खुला पूल है। डेनमार्क में जबरदस्त सर्दी पड़ती है और ज्यादातर महीने यहां बर्फ जमी रहती है, इसके बावजूद डेनमार्क के लोग उस बर्फीले पूल में शायद हर रोज कूदते हैं। कोपेनहेगन शहर की एक स्वास्थ्य योजना वाली पत्रिका के कवर पेज पर एक दुबले पतले बुजुर्ग की तस्वीर छपी थी जिनके बदन से पानी टपक रहा था और उनका मुंह बेतहाशा खुला हुआ था। शायद ये उनके खुश होकर चिल्लाने की मुद्रा थी…उस तस्वीर के नीचे लिखा हुआ था, “जीवन का लुफ्त उठा लो कोपेनहेगेनर्स। “

ये सिर्फ मजा लेने के लिए नहीं बल्कि कोपेनहेगेन में ये रोज मर्रा का दिख जाने वाला नजारा है। इसी कोपेनहेगेन में लोग सिर्फ ठंडे पानी में डुबकी मारकर मुश्किल और हाड़ कंपाने वाली कसरत ही नहीं करते, बल्कि यहां बर्फ से ढकी सड़कों पर अक्सर गाड़ियों का नहीं साइकिलों का जाम दिखाई देता है। कोपेनहेगेन का हर वासी जबतक जरूरत नहीं होती कार से नहीं चलता। वो सिर्फ साइकिल से शहर की सड़कों को नापता है। मजे की बात ये है कि ऐसा करने में उन्हें खुशी मिलती है। उन्हें कोई जल्दी नहीं कहीं पहुँचने की।

लेकिन कोपेनहेगेन की ये आदत एक दिन में नहीं पड़ी। एक लंबी तपस्या और संकल्प का नतीजा है। वो संकल्प जो करीब 1978 में लिया गया था। ये उसी संकल्प का नतीजा है कि कोपेनहेगेन दुनिया के सबसे साफ शहरों की सूची में टॉप पर रहने की 30 वीं सालगिरह मना रहा है।

तो क्या दिल्ली यूरोप के इस ठंडे मुल्क की सबसे दिलचस्प कसम और कोशिश से कुछ सीखकर अपने लिए सांसों का बंदोबस्त कर सकता है। ऐसे में ये समझना जरूरी है कि कोपेनहेगन से सीखते हुए यहां के हालात बदलने के बारे में कुछ सोचना चाहिए। कम से कम दस ऐसे कदम हैं जिसे दिल्ली और एनसीआर में रहने वाले हर किसी को चलकर अपना दायित्व निभाना चाहिए।

1. साइकिलिंग पर जोर

कोपेनहेगन को ‘साइकिलों का शहर भी कहा जाता है। ये शहर ‘साइकिल फ्रेंडली कैपिटल’ कहलाता है। यहां पर 60 प्रतिशत से ज्यादा लोग हर रोज अपने रोजमर्रा के काम के लिए साइकिल का इस्तेमाल करते हैं। यहां पर 400 किलोमीटर से ज्यादा लंबी साइकिल लेन हैं। इसके अलावा पूरे शहर में साइकिल पार्किंग का बेहतरीन इंतजाम है। इसका सबसे बड़ा फायदा ये होता है कि न तो ट्रैफिक जाम होता है और न ही शहर की आबो हवा खराब होती है। जीरो प्रदूषण।

जबकि इसके ठीक उलट दिल्ली में साइकिल पर चलना अपनी शान के खिलाफ माना जाता है। दिल्ली में साइकिल चलाने का चलन आमतौर पर नहीं है। लोग गाड़ियों की रेलम पेल और साइकिल लेन की कमी की वजह से लोग ज्यादातर निजी वाहनों पर निर्भर हैं या फिर सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करते हैं। हैरानी की बात तो ये है कि दिल्ली के फुटपाथ पर भी लोगों का कब्जा है।

2. हरित ऊर्जा पर निर्भरता

कोपेनहेगन में बिजली के लिए भी हवा और सूरज की रोशनी पर निर्भरता है। बिजली के उत्पादन के लिए पवन ऊर्जा या सोलर प्लांट हैं। इसके अलावा यहां पर पवन ऊर्जा और जैव ऊर्जा का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है। अधिकांश बिजली उत्पादन पवन चक्कियों और बायोमास प्लांट्स से होता है।

लेकिन दिल्ली में अभी भी कोयला और पेट्रोल ही जलता है। उसी पर निर्भरता बनी हुई है। यहां हरित ऊर्जा की तरफ ध्यान भी बहुत कम है और निवेश भी न के बराबर जिसकी वजह से उसका इस्तेमाल भी बहुत कम होता है।

3. कचरा प्रबंधन

कोपेनहेगन में ‘कचरे से ऊर्जा यानी Waste-to-Energy की नीति सरकारी तौर पर लागू है। अमेगर बके (Amager Bakke) नामक प्लांट कचरे को जलाकर स्वच्छ ऊर्जा में बदलता है, जिससे 400,000 घरों को बिजली और गर्म पानी मिलता है। 90% कचरे का रिसाइकिलिंग या पुन: उपयोग किया जाता है।

दिल्ली में कचरा प्रबंधन की व्यवस्था बहुत खराब है। देश की राजधानी को कचरे के पहाड़ों की राजधानी भी कहा जाने लगा है। कूड़े के पहाड़ के अलावा दिल्ली में जगह जगह कूड़े के ढेर नज़र आ सकते हैं।

4. सार्वजनिक परिवहन का ज्यादा प्रयोग

कोपेनहेगन में सार्वजनिक परिवहन का नेटवर्क बहुत ज्यादा फैला हुआ है। लोग निजी वाहनों के बजाय सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल ज्यादा करते हैं। यहां सार्वजनिक वाहनों के लिए इलेक्ट्रिक और हाइड्रोजन ईंधन वाली बसों का इस्तेमाल किया जाता है जिससे प्रदूषण न के बराबर होता है।

दिल्ली में सिर्फ मेट्रो है। जबकि इलेक्ट्रिक बसों की संख्या बेहद कम और यहां की आबादी को परिवहन की सुविधा के लिए अपने निजी वाहनों या पेट्रोल याा डीजल पर आधारित वाहनों पर ही निर्भर होना पड़ता है। इसके अलावा दूसरे राज्यों से भी बड़ी संख्या में वाहन आते हैं। और ऐसा लगता है कि प्रदूषण को चेक करने का कल्चर ही खत्म हो चुका है।

5. हरियाली और शहरी जंगल

कोपेनहेगन में 20% से ज्यादा इलाके में जंगल या हरियाली है। पूरे शहर में जगह जगह छोटे-छोटे पार्क बनाए गए हैं। नई इमारतों में हरी छत और गार्डन लगाना अनिवार्य है।

जबकि दिल्ली में हरियाली तेजी कम हो रही है। यहां निर्माण कार्यों और अतिक्रमण की वजह से शहर के भीतर की हरियाली को ग्रहण लग चुका है। शहर के इर्दगिर्द जंगल भी करीब करीब खत्म हो चुके हैं। यहां कुछ इलाकों में झाड़ियां तो हैं लेकिन पेड़ लगातार काटे जा रहे हैं।

6. कार्बन-न्यूट्रल लक्ष्य

कोपेनहेगन को 2025 तक कार्बन-न्यूट्रल बनने का लक्ष्य रखा गया है। इसके अंतर्गत कम कार्बन उत्सर्जन वाली नीतियां लागू की गई है। इतना ही नहीं इसके फायदे और नुकसान के बारे में वहां बाकायदा लोगों को सजग और जागरूक किया गया है।
दिल्ली में इस दिशा में कोई भी कदम नहीं उठाया गया है। कार्बन फुटप्रिंट कम करने की दिशा में ऐसा कोई प्रयास होता नज़र नहीं आता। अलबत्ता नेताओं के बयान बेहद मजबूती से सामने आ जाते हैं।

7. प्रदूषण बढ़ाने वाले उद्योगों पर प्रतिबंध

कोपेनहेगन में उद्योग को शहर के बाहर कर दिया गया है। खासकर वो मिलें जिनसे प्रदूषण होने का खतरा है। सरकारी तौर पर उद्योगों को आधुनिक तकनीकों का उपयोग करने के लिए बाध्य किया जाता है।

दिल्ली-एनसीआर में आपको जगह जगह भारी उद्योग और प्रदूषण करने वाले मिलें और फैक्टरियों के अलावा ईंट भट्ठे शहर के भीतर नज़र आ जाएंगे। इनसे कितना प्रदूषण फैलता है क्या उसे बताने की जरूरत है।

8. पराली जलाने की रोकथाम

कोपेनहेगन में खेती भी होती है और किसान भी हैं। लेकिन यहां किसान कृषि कचरे को बायोगैस या खाद में बदलने के लिए आधुनिक तकनीकों का प्रयोग करते हैं।

दिल्ली की हवा खराब करने के लिए इस पराली को ही सबसे ज्यादा कसूरवार माना जाता है। प्रदूषण का ये सबसे बड़ा कारण है। लेकिन हर साल सिर्फ चर्चा के बाद बात खत्म हो जाती है। इसकी रोकथाम पर अभी तक कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया गया है।

9. पानी और वायु की गुणवत्ता पर नजर

कोपेनहेगन में हवा और पानी पर लगातार सरकारी एजेंसियों की नजर रहती है और इसमें किसी भी तरह की कोई कोताही नहीं बरती जाती। यहां पर शहर के हर कोने में एयर और वॉटर क्वालिटी मॉनिटरिंग सिस्टम है। यहां पर गंदे और बारिश के पानी की निकासी की भी अच्छी व्यवस्था है।

दिल्ली में मॉनिटरिंग स्टेशनों सीमित हैं। इसके अलावा डेटा विश्लेषण के आधार पर नीतियों का क्रियान्वयन बहुत धीमा है।

10. जागरूकता

कोपेनहेगन में पर्यावरण संरक्षण को लेकर काफी ज्यादा जागरूकता हैं। लोग जागरूकता अभियान और स्थानीय कार्यक्रम में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं। सार्वजनिक परिवहन, साइकिलिंग, और पैदल चलने को यहां प्राथमिकता दी जाती है।

दिल्ली में पर्यावरण को लेकर जागरूकता की निहायत कमी है। आम तौर पर लोग यहां पर्यावरण की फिक्र नहीं करते हैं।. लोगों के लिए गंदगी फैलाना उनके लिए आम बात है।

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  • गोपाल शुक्ल - दायित्व मीडिया

    जुर्म, गुनाह, वारदात और हादसों की ख़बरों को फुरसत से चीड़-फाड़ करना मेरी अब आदत का हिस्सा है। खबर का पोस्टमॉर्टम करने का शौक भी है और रिसर्च करना मेरी फितरत। खबरों की दुनिया में उठना बैठना तो पिछले 34 सालों से चल रहा है। अखबार की पत्रकारिता करता था तो दैनिक जागरण और अमर उजाला से जुड़ा। जब टीवी की पत्रकारिता में आया तो आजतक यानी सबसे तेज चैनल से अपनी इस नई पारी को शुरु किया। फिर टीवी चैनलों में घूमने का एक छोटा सा सिलसिला बना। आजतक के बाद ज़ी न्यूज, उसके बाद फिर आजतक, वहां से नेटवर्क 18 और फिर वहां से लौटकर आजतक लौटा। कानपुर की पैदाइश और लखनऊ की परवरिश की वजह से फितरतन थोड़ा बेबाक और बेलौस भी हूं। खेल से पत्रकारिता का सिलसिला शुरू हुआ था लेकिन अब तमाम विषयों को छूना और फिर उस पर खबर लिखना शौक बन चुका है। मौजूदा वक्त में DAYITVA के सफर पर हूं बतौर Editor एक जिम्मेदारी का अहसास है।

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