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– गोपाल शुक्ल:
भारत वह देश है जो अपने धर्म, इतिहास, सभ्यता, त्योहार, भाषा, कला और संस्कृति के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है। ये सभी चीजें मिलकर भारत को एक खूबसूरत देश बनाती हैं। इसी खूबसूरती में चार चांद लगाते हैं भारत के सांस्कृतिक और धार्मिक मेले। जो हर साल किसी त्योहार की तरह पूरे जोश और हर्ष उल्लास के साथ मनाए जाते हैं। इन मेलों में कुम्भ मेला, सोनपुर मेला, पुष्कर मेला, हेमेज गोम्पा मेला, कोलायत मेला और गंगा सागर मेला शामिल हैं बल्कि पूरी दुनिया में ये मेले अपनी शान ओ शौकत और अपनी धूम के लिए मशहूर हैं।
कुम्भ मेला यानी दुनिया भर का सबसे बड़ा धार्मिक जमघट
देश में ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में जहां कहीं भी भारत का नाम लिया जाता है, वहां देश के सबसे बड़े मेले कुम्भ मेले के बारे में न सुना हो ऐसा हो ही नहीं सकता। आखिर ये मेला होता ही है इतना खास कि इसे करीब से देखने के लिए पूरे हिन्दुस्तान के अलावा पूरी दुनिया से करोड़ों लोग आते हैं। कोई भी जानकर हैरान हो जाता है कि ये कुम्भ मेला पूरी दुनिया में सबसे बड़े धार्मिक अनुष्ठान या यूं भी कहें धार्मिक जमघट के लिए जाना और पहचाना जाता है।
कुम्भ हिन्दुओं के लिए तीर्थ से कम नहीं
वैसे तो देखा जाए तो कुम्भ मेले में सभी श्रद्धालु पवित्र नदियों में डुबकी लगाते हैं। मान्यता यही है कि श्रद्धालुओं के ऐसा करने से ही उनके सारे बुरे कर्म और पाप धुल जाते हैं और वो शरीर और आत्मा से फिर से पावन हो जाते हैं और इसके साथ ही उनके सारे बुरे कामों के लिए उनका प्रायश्चित भी हो जाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि कुम्भ मेले में स्नान भर कर लेने से इंसान को मृत्युलोक से मुक्ति मिलने का रास्ता साफ हो जाता है और वह मोक्ष को प्राप्त होता है। शायद यही वजह है कि ये कुम्भ मेला भारत के साथ साथ पूरी दुनिया में रहने वाले हिन्दू लोगों के लिए किसी तीर्थस्थल से कम की हैसियत नहीं रखता।
ग्रहों की गणना के आधार पर होता है आयोजन
कुम्भ मेला उत्तर प्रदेश में प्रयागराज के गंगा यमुना और सरस्वती के त्रिवेणी संगम, उत्तराखंड के गंगा तट हरिद्वार, मध्य प्रदेश में क्षिप्रा नदी के तट पर बसे उज्जैन और महाराष्ट्र में गोदावरी के तट पर बसे नासिक में 12-12 साल के अंतर पर लगता है। इनमें से किस जगह कब ये मेला लगेगा और कहां इसका आयोजन होगा, इसकी गणना ग्रहों और नक्षत्रों की स्थितियों के आधार पर किया जाता है। इसके लिए सौर मंडल में गुरु ग्रह की स्थिति की गणना सबसे महत्वपूर्ण है। इसी गणना के आधार पर यह त्योहार इन चारों स्थानों पर कहां और कब आयोजित होगा इसके बारे में तय किया जाता है। कुंभ मेले का आयोजन ग्रहों की स्थिति यानि बृहस्पति के कुंभ राशि में प्रवेश और सूर्य के मेष राशि में प्रवेश के आधार पर होता है।
प्रयाग स्नान के नाम से मशहूर था माघ मेला
कुम्भ मेले का नाम किसी भी प्राचीन इतिहास के किसी भी लिखित दस्तावेज में नहीं मिलता है। बल्कि इतिहास की किताबों में इस मेले का जिक्र माघ मेला या प्रयाग स्नान के नाम के तौर पर जरूर किया जाता है। हमारे वैदिक ग्रन्थ जैसे ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद या अथर्ववेद के अलावा अन्य पौराणिक ग्रन्थों में माघ मेले या कुम्भ मेले के पीछे की कहानी का विवरण जरूर मिल जाता है। इन्हीं कहानियों के आधार पर वही माघ मेला कुम्भ मेले के नाम से पूरी दुनिया में अपनी अलग पहचान बना चुका है।
घड़े, अमृत और जलस्रोत का रिश्ता
इन पौराणिक कथाओं में कुम्भ को अमृत से भरे घड़े के रूप में बताया गया है। इसके अलावा मेले का वर्णन एक धार्मिक अनुष्ठान और धार्मिक सभा में सभी हिन्दुओं के शामिल होने के बारे में बताया जाता है। इन्हीं दो बातों को जोड़कर ही कुम्भ मेले का अर्थ बन जाता है। यानी वह त्योहार जो अमृत युक्त जल स्रोत के पास आयोजित किया जाता है। यहां यह सवाल जरूर खड़ा हो जाता है कि आखिर कुम्भ यानी घड़े, अमृत और जलस्रोत का आपस में क्या रिश्ता बनता है? तो इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें अपने पैराणिक ग्रन्थों में लिखित उस कथा को समझना होगा जिसकी वजह से आदि काल से लेकर आजतक कुम्भ मेला बड़े ही शानदार तरीके से मनाया जाता है।

माघ मेले के पीछे है ऋषि का श्राप
दुनिया के लिए कुम्भ मेला किसी वरदान से कम नहीं है। लेकिन कुम्भ मेले के शुरू होने की पौराणिक कथा में एक ऋषि का शाप शामिल है। पौराणिक कथाओं के मुताबिक महर्षि दुर्वासा ने एक दिव्य माला देवराज इंद्र को दी थी। देवताओं के राज होने की वजह से घमंड में चूर इंद्र ने उस माला को अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया था। ऐरावत के मस्तक से माला गिर गई और उसने अपने पैरों से माला को रौंद डाला। महर्षि दुर्वासा को जब ये पता चला तो उन्होंने इसे अपना अपमान समझा और क्रोध में आकर इंद्र को शाप दे दिया। स्वर्गलोक के तमाम देवताओं को शक्तिविहीन कर दिया जिससे वो देवलोक छोड़कर पृथ्वी लोक में रहने लगे। जब देव लोक से सारे देवता पृथ्वी लोक पर आ गए तो वहां के वैभव और ऐश्वर्य पर कब्जा करने के लिए असुर यानी दैत्यों ने स्वर्गलोक पर कब्जा कर लिया और देवताओं की बनाई गई सृष्टि का विनाश करने लगे थे।
देव असुर संघर्ष और सागर मंथन
असुरों या दैत्यों के आगे देवता शक्तिहीन हो चुके थे। तब अपनी गुहार लेकर सारे देवता भगवान विष्णु के पास पहुँचे और उनसे सहायता मांगी। भगवान विष्णु ने देवताओं को सलाह दी कि स्वर्ग में मौजूद क्षीर सागर में छिपे अमृत की खोज करके अगर उसे गृहण किया जाए तो स्वर्ग पर फिर से देवताओं का राज स्थापित हो सकता है, क्योंकि तब देवता असुरों से संग्राम में जीत सकते हैं। जब देवताओं ने भगवान विष्णु से कहा कि स्वर्ग पर तो असुरों का कब्जा है, और वो उन्हें ऐसा करने से रोक सकते हैं। तब भगवान विष्णु ने कहा कि अमृत जहां छिपा है, उसे वहां से निकालने के लिए दैत्यों का साथ जरूरी है। लिहाजा उन्हें इस अमृत का लालच देकर उसकी खोज करने के लिए मनाया जा सकता है और तभी ये संभव हो सकेगा। देवताओं ने राक्षसों को बताया कि स्वर्ग के क्षीर सागर में अमृत छिपा हुआ है, जिसे सागर मंथन करके ही निकाला जा सकता है। उसके लिए अगर वो इस खोज में देवताओं का साथ देते हैं तो उन्हें अमृत की आधी मात्रा दे दी जाएगी। अमृत पाने के लालच में दैत्य देवताओं का साथ देने को राजी हो गए।
सागर मंथन से निकले 14 रत्न
इसके बाद सागर मंथन की तैयारी शुरू हुई। समुद्र मंथन किया गया तो सबसे पहले हलाहल विष निकला, जिसे भगवान शिव ने धारण करके अपने गले में ही धारण कर लिया। विष की तासीर की वजह से शिव का गला नीला पड़ गया। इसी वजह से भगवान शंकर नीलकंठ कहलाए। इस तरह उस समुद्र मंथन में पूरे 14 रत्न निकले।

1. कालकूट विष रत्न
समुद्र मंथन में सबसे पहले यही रत्न निकला, इसे भगवान शिव ने ग्रहण किया था। इस रत्न का राज यह है कि मन को मथने पर सबसे बुरे विचार पहले निकलते हैं। हमें कभी भी बुराइयों को मन के अंदर उतरने नहीं देना चाहिए। बल्कि उनका त्याग करना चाहिए।
2. कामधेनु रत्न
इस रत्न को ऋषि ने अपने पास रखा। इसका राज यह है कि जब मन से बुरे विचार निकल जाते हैं, तब हमारा मन कामधेनु की तरह पवित्र हो जाता है।
3. उच्चैश्रवा अश्व रत्न
कहा जाता है कि यह घोड़ा मन की गति के समान चलता था। इस रत्न को राजा बलि ने अपने पास रखा था। इस रत्न का राज यह है कि जब भी मन भटकता है, बुराइयों से लैस हो जाता है।
4. ऐरावत हाथी रत्न
इस रत्न को भगवान इंद्र ने अपने पास रखा। इसका राज यह है कि जब मन बुराइयों से दूर होगा तब ही बुद्धि शुद्ध होगी। उजाले सी चमकेगी।
5. कौस्तुभ मणि रत्न
इस रत्न को भगवान विष्णु ने हृदय पर धारण किया। इसका राज यह है कि जब हमारे मन से बुरे विचार निकल जाते हैं, बुद्धि शुद्ध हो जाती है तब मन में भक्ति का सूत्रपात होता है।
6. कल्पवृक्ष रत्न
इस रत्न को देवताओं ने स्वर्ग में लगाया था। इस वृक्ष को इच्छा पूर्ति करने वाला वृक्ष भी माना जाता है। इस रत्न का राज यह है कि भक्ति के समय अथवा मन के मंथन के दौरान अपनी सम्पूर्ण इच्छाओं को दूर रखना चाहिए।
7. अप्सरा रंभा रत्न
यह रत्न देवता के पास रहा था। यह कामवासना और स्वार्थ का पर्याय है। इसका राज यह है कि हमें भक्ति के दौरान लालच नहीं करना चाहिए।
8. देवी लक्ष्मी रत्न
इस रत्न को देवता, ऋषि और दानव सभी अपने पास रखना चाहते थे। किंतु लक्ष्मी जी ने भगवान विष्णु के पास रहना स्वीकार किया। जिसका अर्थ यह है कि धन उन लोगों के पास जाता है, जो कर्म करना जानते हैं।
9. वारुणी देवी रत्न
वारुणी का अर्थ मदिरा होता है। इसको दानवों ने ग्रहण किया था। इसका राज यह है कि नशा करने वाला बुराई से दब जाता है।
10. चंद्रमा रत्न
इसे भगवान शंकर ने मस्तक पर धारण किया था। इसका सार है कि जब हमारा मन सभी बुराइयों से मुक्त हो जाता है, तब हमें शांति महसूस होती है।
11. पारिजात वृक्ष रत्न
इसे सभी देवताओं ने ग्रहण किया, क्योंकि इसे स्पर्श करते ही थकान दूर हो जाती थी। इसका राज यह है कि जब मन में शांति आ जाती है, तब शरीर की थकान भी दूर हो जाती है।
12. पांचजन्य शंख रत्न
भगवान विष्णु ने इसे अपने पास रखा। इसका राज यह है कि थकान दूर होने के बाद मन भक्ति में लीन हो जाता है।
13-14. भगवान धन्वंतरि और अमृत कलश रत्न
दरअसल अंत में 13वें रत्न के रूप में भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए। उनके हाथ में 14वें रत्न के रूप में अमृत कलश था। भगवना धन्वंतरि ने सभी देवताओं को अमृत का सेवन कराया और शाप से मुक्ति दिलाई। इसका राज यह है कि बुराइयों को दूर करके जब हम भक्ति में लीन हो जाते हैं, तब भगवान का आशीर्वाद मिलना तय हो जाता है।
12 दिनों तक चला था देव दैत्य संघर्ष
सबसे अंत में निकले रत्न अमृत को पाने के लिए देव और दैत्यों में एक बार फिर संघर्ष हो गया था। दरअसल जैसे ही अमृत मिला तो देव और दैत्य दोनों को उसे हड़पना चाहते थे। लिहाजा अमृत को पाने के लिए दोनों में खूब जमकर संग्राम हुआ। इसी बीच इंद्र और शची के पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर वहां से भाग निकले। जिसे पाने के लिए दैत्यों ने जयंत का पीछा किया। देव और दैत्यों के बीच ये द्वन्द्व पूरे 12 दिनों तक चलता रहा। कहा जाता है कि देवताओं का एक दिन मनुष्यों के लिए एक वर्ष के समान होता है।
धरती पर अमृत की चार बूंदें गिरीं
पौराणिक कथाओं के मुताबिक अमृत कलश को छीनने के दौरान ही उसमें से अमृत की 12 बूंदें छलक कर गिर पड़ी थी। जिनमें से 8 बूंदें तो देवलोक में गिरीं जबकि चार बूंदे पृथ्वी पर जाकर गिरीं। मान्यता है कि पृथ्वी पर ये चार बूंदें चार अलग अलग जगहों प्रयागराज के संगम में, हरिद्वार में गंगा नदी में, उज्जैन की क्षिप्रा नदी में और नासिक में गोदावरी नदी में गिरी थीं। ऐसा माना जाता है कि जब कुम्भ मेले का समय आता है तो सारे ग्रह और नक्षत्रों की स्थिति गणना के मुताबिक ठीक वैसी ही होती है जैसी अमृत की बूंदों के गिरने के समय थी। मान्यता है कि कुम्भ मेले के दौरान नदियों का जल अमृत हो जाता है। इसलिए दुनिया भर के कई तीर्थयात्री पवित्रता के सार में स्नान करने के लिए कुम्भ मेले में आते हैं।

माघ मेले के पीछे दूसरी पौराणिक कहानी
इन चारो जगहों की नदियों में अमृत की बूंदों के गिरने के पीछे एक और पौराणिक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि प्रजापति दक्ष की दो पुत्रियों कद्रू और विनता कश्यप ऋषि से ब्याही गई थीं। एकबार दोनों में विवाद हो गया कि सूर्य के अश्व काले हैं या सफेद। दोनों में शर्त लगी कि जिसकी बात झूठी निकलेगी, वही दासी बन जाएगी। यह तय किया गया कि दोनों बहनें अगले दिन यह पता करने जाएंगी। कद्रू ने अपने पुत्रों को आदेश दिया कि वे जाकर अश्व की पूंछ पर लिपट जाएं, जिससे उसकी पूंछ काली लगे। दोनों बहनें फिर साथ गईं और अश्व को देखकर विनता हार गईं और परिणाम स्वरूप दासी बनना पड़ा। उसके कुछ दिन बाद विनता के पुत्र गरुड़ का जन्म हुआ। विनता के साथ-साथ गरुड़ को भी पुत्र सर्पों की भी सेवा करनी पड़ती थी। जब गरुड़ ने अपनी और अपनी मां की इस दासता से मुक्ति के लिए पूछा तो सर्पों ने कहा कि वह नागलोक से अमृत कुंभ ला देगा तो इससे दासता मुक्त हो जाएगी। गरुड़ नागलोक के लिए निकल पड़े तो वासुकि ने इंद्र को सूचना दे दी। इंद्र ने गरुड़ पर चार बार आक्रमण किया और चारों प्रसिद्ध स्थानों पर कुंभ का अमृत छलका, जिससे कुंभ पर्व की शुरुआत हुई।
कुम्भ मेले का ऐतिहासित दस्तावेजों में जिक्र नहीं
तो ये थीं कुम्भ के पीछे की पौराणिक गाथा। लेकिन अब ये जान लेते हैं कि इस कुम्भ मेले यानी इस पवित्र पर्व का हमारे इतिहास में कैसे विकास और प्रभाव पड़ा। यह एक सच है कि कुम्भ मेले का जिक्र हमारे ऐतिहासिक दस्तावेजों में नहीं मिलता। लेकिन कुम्भ में जिस तरह श्रद्धालुओं के पवित्र नदियों में स्नान करने का जो जिक्र मिलता है, ठीक वैसे पवित्र नदियों में सामूहिक स्नान करने का इतिहास काफी लंबे समय से हमारे देश भारत में चलता चला आ रहा है। इस तरह के नहान का सबसे पहला उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है।
पाली लेखों और महाभारत में है स्नान का उल्लेख
इस वेद में प्रयाग के संगम पर पवित्र स्नान का उल्लेख किया गया है। इसके अलावा बुद्ध के पाली लेखों और महाभारत में भी ऐसे पवित्र स्नान का उल्लेख मिलता है। इन उल्लेखों में जगह जगह पर इसके महत्व पर रोशनी डाली गई है। इसके अलावा कई और लेखों में अन्य कुम्भ स्थल जैसे नासिक, हरिद्वार और उज्जैन के मेलों का भी जिक्र मिलता है। लेकिन इतने रिकॉर्ड के होते हुए भी इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि आखिर ये पर्व कब कैसे कहां और किसके द्वारा शुरू किया गया, ये किसी को मालूम ही नहीं है।
चीनी यात्री ने स्नान पर्व का किया है पहली बार उल्लेख
ऐसे ही स्नान का उल्लेख प्राचीन भारत के सम्राट हर्षवर्धन के काल में मिलता है। सातवीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेन सेंग ने अपनी यात्रा वृतांत में ऐसे ही एक पर्व और स्नान के बारे में लिखा है। इस लेख में चीनी यात्री ने प्रयाग को एक बड़े और प्रसिद्ध हिन्दू शहर के तौर पर वर्णित किया है। ह्वेन सेंग ने लिखा है कि ये प्रयााग शहर मंदिरों की नगरी है। यहां गंगा यमुना और सरस्वती के संगम पर हिन्दू श्रद्धालू माघ महीने में स्नान करते हैं। ह्वेन सेंग का ये उल्लेख किसी भी प्रकार के नहान पर्व का पहला लिखित सबूत माना जाता है।
ग्रहों और नक्षत्रों के अनुसार माघ महीने का मेला
इसके अलावा हिन्दू धर्म के एक जाने माने स्कॉलर जेम्स लॉक्टेफेल्ड की रिपोर्ट की मानें तो प्रयाग में हर साल जनवरी महीने में मनाए जाने वाले माघ मेले का ज्यादातर ऐतिहासिक दस्तावेजों में जिक्र मिलता है। उनके अनुसार स्नान का यही त्योहार हर साल माघ महीने में मनाया जाता है। उनके मुताबिक हर साल इसी अवधि पर कुछ नक्षत्रों और ग्रहों की स्थिति बनती है जिससे इस नहान का महत्व और भी ज्यादा बढ़ जाता है। इसी वजह से भारी संख्या में लोग इसमें बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
लाखों श्रद्धालुओं का त्योहार
एक और जानकार जेम्स मैलिनसन के मुताबिक प्राचीन काल से मनाए जाने वाले प्रयाग माघ मेले की ही तरह कई पवित्र स्थलों जैसे उज्जैन, नासिक और हरिद्वार में भी ऐसे ही नहान पर्व मध्य युगीन काल में आयोजित होने लगे थे। इन पर्वों पर हर साल लाखों की तादाद में हिन्दू श्रद्धालू नदी के तट पर इकट्ठा होने लगे थे।

रामचरित मानस और आइन-ए-अकबरी में प्रयाग में माघ मेला
प्रयाग माघ मेले का जिक्र 16वीं शताब्दी में लिखी गई राम चरित मानस और आइन-ए-अकबरी में भी मिलता है। आइन-ए-अकबरी के मुताबिक माघ महीने में प्रयाग संगम के करीब नहान पर्व का आयोजन किया जाता है जिसके तहत लाखों श्रद्धालु इसमें हिस्सा लेते थे। इस नहान पर्व में भाग लेने के लिए किसी भी हिन्दू से किसी भी तरह की जाति भेद नहीं किया जाता था। आइन ए अकबरी में एक जगह जिक्र किया गया है कि यहां स्नान पर्व पर आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या इतनी ज्यादा होती थी कि प्रयाग के आस पास के जंगल और मैदानी इलाकों में जगह कम पड़ जाती थी।
नासिक और उज्जैन में होता था सिंहस्थ मेला
इसके अलावा मध्ययुगीन इतिहास के कुछ दूसरे मुगलकालीन दस्तावेजों को खंगालें तो खुलसद उल तवारीख या चाहर गुलशन में दर्ज इबारत पर गौर करें तो प्रयाग और हरिद्वार की ही तरह नहान पर्व नासिक और उज्जैन में भी आयोजित होने लगा था। लेकिन वहां इसे सिंहस्थ मेले के नाम से जाना जाता था। लेकिन हैरानी की बात ये है कि इन किसी भी दस्तावेजों में से कहीं भी कुम्भ मेले का जिक्र नहीं मिलता है। जिससे ये भी कहा जा सकता है कि उस काल में ये कुम्भ मेला असल में माघ मेला, माघ नहान पर्व या प्रयाग मेले के नाम से जाना जाता था। मत्स्य पुराण में भी प्रयाग में आजोजित होने वाले मेले को माघ मेला ही उल्लेखित किया है।
ब्रिटिश अफसर ने रिपोर्ट में पहली बार लिखा कुम्भ मेला
अगर केवल और केवल सबसे पहले कुम्भ मेले के लिखित उल्लेख की बात करें तो वो 19वीं शताब्दी तक तो कहीं भी किसी भी किताब या ऐतिहासित दस्तावेजों में नहीं मिलता। कुम्भ, महाकुम्भ और अर्ध कुम्भ जैसे शब्द 19वीं शताब्दी के बाद प्रयोग में लाए गए हैं। कुम्भ मेला शब्द सबसे पहले तब प्रयोग में लाया गया जब 1868 में ब्रिटिश अफसर ने प्रयाग माघ मेला की एक रिपोर्ट को कुम्भ मेले का नाम देते हुए पूरा वर्णन किया था।
कुम्भ मेले को ऐसे मिली पहचान
प्रयागराज में आयोजित होने वाले माघ मेले को कुम्भ मेला लिखने का श्रेय ब्रिटिश अधिकारी जेम्स हेस्टिंग्स (James Hastings) को जाता है। हालांकि, यह एक ऐतिहासिक भ्रांति का विषय या बहस का विषय भी है। हालांकि ये भी तथ्य है कि उस समय तक कुंभ मेला और माघ मेला अलग-अलग आयोजन माने जाते थे। हालांकि बाद में बदले हालात और कुम्भ मेले के इस नाम को मिली प्रमुखता के आधार पर इसे कुम्भ मेले के तौर पर ही पहचान मिल गई। इसी तरह धीरे धीरे हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित होने वाले मेलों को भी कुम्भ मेला के नाम से पुकारा जाने लगा।
ब्रिटिश अधिकारियों को मेले में दिखा कमाई का जरिया
ब्रिटिश अधिकारियों को इस कुम्भ मेले में आई श्रद्धालुओं की भीड़ ने बड़ा आकर्षित किया। बल्कि यहां ब्रिटेन को अपनी कमाई का एक बड़ा जरिया नज़र आने लगा। लिहाजा बड़ी ही योजनाबद्ध तरीके से इस माघ मेले को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता देते हुए मेले से नाता रखने वाले ब्राह्मण समाज और पंडितों को खुश कर दिया। इसका फायदा ब्रिटिश को ये हुआ कि इन पवित्र तीर्थ स्थलों पर कर और कारोबार से इकट्ठा हुई धनराशि को अपने कब्जे में ले लिया। ऐसा माना जाता है कि तभी से प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन के कुम्भ मेले को प्रसिद्धि मिल गई। यही माघ मेला 12 साल की अवधि में ज्योतिष और दैविक संयोग बनाता है तो उसे कुम्भ मेला कहा जाता है।
कुम्भ वाला मेला या कमाई वाला मेला
इसके अलावा देश और विदेशों से इस मेले में हिस्सा लेने और स्नान का पुण्य हासिल करने के लिए लाखों करोड़ों की तादाद में श्रद्धालु मेले में पहुँचते हैं। इसीलिए इसे एक कमाई वाले मेले के तौर पर भी जाना जाता है। साधू संतों के इकट्ठा होने पर यहां कई तरह के आयोजन किए जाते हैं। जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रम, अध्यात्म के सत्संग, धर्म के अलग-अलग विषयों पर साधु संतों की चर्चा। इसके अलावा भी कई मनोरंजन के कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं। जाहिर है जहां इतने लोगों को जमावड़ा होगा तो वहां कारोबार और रोजगार का भी उद्योग होगा। ये सब कुछ प्राचीन काल से ही होता आ रहा है।

कुम्भ मेले में अखाड़ों की धमक
कुम्भ मेले में भारत में मौजूद कई साधु संत और अखाड़े के साधु आते हैं। आमतौर पर अखाड़ा शब्द सुनते ही कुश्ती और पहलवानी से जुड़े दांव पेच का ख्याल आने लगता है। कुम्भ मेले में साधू संतों के कई अखाड़े यहां जोर आजमाइश के लिए इकट्ठा होते हैं, लेकिन ये जोर आजमाइश धार्मिक क्षेत्र में अपने अपने अखाड़े और मान्यताओं के वर्चस्व के लिए होती है। शाही सवारी रथा, हाथी घोड़ों की सजावट घंटे बाजों और नगाड़ों के साथ करतब दिखाते हुए साधु-संत अपने वर्चस्व का प्रदर्शन करते हैं। कई बार ये भी देखा गया कि साधु-संत हाथों में तलवार या बंदूक लहराते हुए अपना प्रदर्शन करते हैं।
13 अखाड़े के साधु के लिए बड़ा अवसर है कुम्भ मेला
कुम्भ मेले के दौरान साधु-संतों की बड़ी धूम रहती है। अखाड़ों के शिविरों में खासी भीड़ देखी जा सकती है। इन अखाड़ों को एक तरह से हिन्दू धर्म के मठ कहे जा सकते हैं। शुरु शुरू में सिर्फ चार प्रमुख अखाड़े हुआ करते थे। लेकिन वैचारिक मतभेदों की वजह से उनका बंटवारा होता गया और आज 13 मान्यता प्राप्त अखाड़े हैं। कुम्भ एक ऐसा अवसर है जहां धार्मिक और आध्यात्मिक विचार विमर्श होता है। यहां अखाड़ों में साधु संत अपनी अपनी परंपराओं के आधार पर शिष्यों को दीक्षित भी करते हैं और उन्हें उपाधि देते हैं।
कुम्भ मेले को लेकर साधुओं का अपना दावा
अखाड़े के साधुओं का कहना है कि वे लोग जब तक कुम्भ मेले में नहीं जाएंगे तब तक गंगा निर्मल नहीं हो सकती। साधुओं का दावा है कि गंगा जब धरती पर आने को तैयार नहीं थी तब साधुओं ने ही पहले धरती को पवित्र किया तब गंगा धरती पर उतरीं।
ऐसे शुरू हुई अखाड़ों की व्यवस्था
ऐसी मान्यता है कि आदि शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार पर अंकुश लगाने के लिए ही इन अखाड़ों की व्यवस्था की थी। कहा तो यहां तक जाता है कि जो शास्त्र से नहीं मानें उन्हें शस्त्र से मनाया गया। हालांकि इस बात के कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं हैं कि आदि शंकराचार्य ने अखाड़ों की शुरुआत की। तथ्यों के आधार पर कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य का जीवनकाल आठवीं और नौवीं सदी में था। जबकि अखाड़ों की स्थापना के बारे में तरह तरह की कहानियां और दावे सामने आते रहते हैं लेकिन पुख्ता तौर पर कुछ भी कहना बेहद मुश्किल है।

तीन समूह में बंटे हुए हैं अखाड़े
ये ऐसे अखाड़े हैं जिनका इतिहास कई सदियों पुराना है। सभी अखाड़ों के अपने अपने विधि और विधान हैं। मोटे तौर पर 13 अखाड़े तीन समूहों में बंटे हुए हैं। शिव की भक्ति करने वाले शैव अखाड़े। विष्णु की भक्ति वाले वैष्णव अखाड़े और एक एक तीसरा वर्ग उदासीन पंथ कहलाता है। माना जाता है कि उदासीन पंथ के साधु गुरु नानक की वाणी से प्रभावित हैं। ये साधु पंच तत्व धरती, अग्नि, जल, आकाश, वायु की उपासना करते हैं।
धर्म के रक्षक हैं अखाड़े
अखाड़े खुद को हिन्दू धर्म के रक्षक के तौर पर देखते हैं, लेकिन इनके आपस में भी कई बार हिंसक संघर्ष देखने को मिले। ये संघर्ष इस बात को लेकर होता है कि किसका तंबू कहां लगेगा और किसको पहले स्नान करने का अवसर मिलेगा।
अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद की इसलिए हुए स्थापना
1954 में कुम्भ मेले के दौरान मची भगदड़ को ध्यान में रखते हुए और ऐसी किसी भी स्थिति को टालने के लिए अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद की स्थापना की गई। जिसमें सभी मान्यता प्राप्त अखाड़ों के दो दो प्रतिनिधि होते हैं और वो आपस में इस परिषद के जरिए समन्वय का काम करते हैं।
तेजी से रफ्तार पकड़ रही है श्रद्धालुओं की संख्या
आजादी के बाद आयोजित हुए कुम्भ मेले में भाग लेने वाले श्रद्धालुओं की संख्या करीब 50 लाख थी जो 2019 में आयोजित अर्धकुम्भ मेले में 200 मिलियन यानी 20 करोड़ तक जा पहुँची। प्रयागराज के अलावा हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में भी श्रद्धालुओं की संख्या कुछ इसी रफ्तार से बढ़ी है।
कुम्भ मेले के लिए तैयार किया जाता है टेंटों का नगर
प्रयागराज का कुम्भ मेला हमेशा सबसे भव्य तरीके से आयोजित किया जाता है। 2019 में जब अर्धकुम्भ आयोजित किया गया था उसमें सरकार ने 42000 मिलियन रुपये खर्च किए गए थे। मेले में आने वाले श्रद्धालुओं को सही तरीके से स्थान देने और उनकी सहूलियतों को मुहैया करवाने के लिए यहां 2500 हेक्टेयर के बड़े से इलाके में एक अस्थायी शहर का निर्माण किया गया था। इसमें 120 हजार शौचालयों का निर्माण किया गया था। इस कामचलाऊ शहर में स्टार टेंट से लेकर साधारण टेंट तक मौजूद थे। ताकि हरेक श्रद्धालुओं को अपनी श्रद्धा के साथ कुम्भ मेले का आनंद मिल सके। सच कहा जाए तो कुम्भ एक धार्मिक समारोह होते हुए भी लोगों के लिए रोजगार और साधन मुहैया करवाने का आयोजन भी बन जाता है।
कुम्भ मेले के आकर्षण में बंधी दुनिया
तो ये थी कुम्भ मेले की कहानी। जिसमें हम ये समझ सके कि कैसे ये मेला आदि काल से लेकर अब तक तेजी से आगे बढ़ा है और इसका उत्तरोत्तर विकास ही हुआ है। पौराणिक कथाओं का माघ मेला आज पूरी दुनिया में सबसे बड़े धार्मिक अनुष्ठान वाले मेले के तौर पर जाना जाता है। जहां सभी श्रद्धालु पवित्र नदी में स्नान करके अपने पापों का नाश करते हैं। पहले तो यह मेला हिन्दुस्तान के आम लोगों और नागा साधुओं के साथ साथ साधु संतों तक ही सीमित था, लेकिन आज जब भी कुम्भ मेला आयोजित होता है तो दुनिया भर की कई जानी मानी हस्तियां इस मेले का आनंद लेने के लिए खिंची चली आती हैं।