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श्यामदत्त चतुर्वेदी
बाबा साहेब आंबेडकर.. यानी डॉ भीमराव आंबेडकर देश के उन महानायकों में शामिल हैं, जिन्होंने न केवल भारतीय समाज को बदला, बल्कि समाज की नई परिकल्पना को भी आधार दिया। उनका जन्म ऐसे समय में हुआ जब समाज जातिवाद, भेदभाव और छुआछूत की जंजीरों में जकड़ा था। उन्होंने तमाम सामाजिक बाधाओं का मुकाबला करते हुए दलित समुदाय के साथ ही भारत के समाज को न्यायसंगत दिशा दी। इन्हीं कारणों से उनका जीवन संघर्ष, ज्ञान और समाज सुधार का प्रतीक बना हुआ है। उन्होंने आजाद भारत के संविधान को बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसी कारण आज के दौर में आंबेडकर न्याय, समानता और अधिकारों की लड़ाई के लिए प्रेरणा हैं। आंबेडकर ऐतिहासिक व्यक्तित्व होने के साथ ही वह आदर्श हैं, जो हमें सिखाते हैं कि न्याय और समानता के लिए लगातार किया गया संघर्ष आपको महान बनाता है। हालांकि आज के दौर में उनके नाम का उपयोग अब सियासत में खासा होने लगा है। एक बड़ा समुदाय उन्हें भगवान की उपाधि देकर पूजता है। अक्सर उनका नाम केवल संविधान के परिपेक्ष्य में लिया जाता है। संविधान से इतर संविधान बनने से पहले, उस दौरान और उसके बाद बाबा साहेब के व्यक्तित्व और कर्तृत्व में बहुत कुछ ऐसा था, जो उनको महान बनाता है।
यहां से शुरू होती है कहानी
आज से करीब 204 साल पहले ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना मध्य भारत प्रांत के महू में अपनी छावनी बनाती है। इसी छावनी में मूल रूप से महाराष्ट्र के कई हिस्सों से आने वाले लोगों को बतौर सैनिक भर्ती किया जाता है। कुछ सालों बाद रत्नागिरी जिले में आंबडवे गांव के रामजी मालोजी सकपाल ब्रिटिश सेना में भर्ती होते हैं और सेवा देने के लिए वह अपनी पत्नी भीमाबाई के साथ इंदौर के महू पहुंच जाते हैं। कुछ समय बाद वो ब्रिटिश सेना में सूबेदार के पद पर पदोन्नत हो जाते हैं। महू में यहीं रहने के दौरान 14 अप्रैल 1891 को उनकी 14वीं संतान भिवा का जन्म होता है। जिसका नाम भीमराव रामजी रखा जाता है। यह बच्चा आगे चलकर भारत का भविष्य बनता है। बच्चा भिवा जब 2 साल का था तो पिता सूबेदार रामजी मालोजी सकपाल सेना से रिटायर हो जाते हैं। इसके बाद वे सतारा शिफ्ट हो गए। भिवा अभी 6 साल की ही हुआ था कि मां भीमाबाई का निधन हो गया। अब सूबेदार रामजी मालोजी पर बच्चे की पूरी जिम्मेदारी आ जाती है। पिता ने बेटे के भविष्य की चिंता करते हुए उसका दाखिला सरकारी स्कूल में कराने की सोची, लेकिन उनको जातिवाद के दंश का सामना करना पड़ रहा था। ऐसे में मालोजी सकपाल ने एक युक्ति लगाई। 7 नवंबर साल 1900 में वह स्कूल पहुंचे और बेटे के नाम के पीछे से अपना उपनाम ही हटा दिया। उन्होंने अपने गांव आंबडवे के नाम को जोड़ते हुए भीमराव का नाम भिवा रामजी आंबडवेकर दर्ज करा दिया। यही बेटे की शिक्षा होने लगी। इससे पहले वह 1897 में मुंबई शिफ्ट हो गए थे।
चौथी कक्षा से ही जाग गई थी बौद्ध चेतना
सतारा के स्कूलों में भी उन दिनों दलितों का छुआछूत का सामना करना पड़ता था। इस कारण किसी दलित का स्कूल में प्रवेश और उसकी शिक्षा तो मुश्किल हुआ ही करती थी। पढ़ाई में अव्वल आना तो बहुत दूर की बात थी। ऐसे में भिवा एक ऐसा बच्चा था, जिसने न केवल तमाम चीजों को सहते हुए पढ़ाई की, बल्कि वो किया जो उन दिनों कोई दलित कर भी नहीं सकता था। पहली, दूसरी, तीसरी और फिर लगातार चौथी कक्षा में वह अंग्रेजी माध्यम के साथ उत्तीर्ण हुए। तब ये बेहद असामान्य बात थी इस कारण उनके पास होने का जश्न सामुदायिक रूप से मनाया गया। इसी में शामिल होने के लिए उनके परिवार के मित्र और लेखक दादा केलुस्कर पहुंचते हैं और वो अपनी पुस्तक ‘बुद्ध की जीवनी’ उनको भेंट करते हैं। जब भीमराव इसे पढ़ते हैं तो वह बौद्ध चेतना की ओर प्रेरित होने लगते हैं।
आंबडवेकर बन गए आंबेडकर
सतारा के स्कूल में एक तरफ जहां भीवा को छुआछूत का सामना करना पड़ता था। बच्चे तो बच्चे अध्यापक भी उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करते थे। ऐसे में एक ब्राह्मण शिक्षक उनको बेहद प्रेम करते थे। शिक्षक का नाम कृष्णा केशव आंबेडकर था। कृष्णा केशव भीवा की प्रतिभा के कायल थे। उन्होंने सोचा कि बच्चे को जातिवाद का सामना न करना पड़े। इस कारण उन्होंने आंबडवेकर की जगह भीमराव के नाम में आंबेडकर जोड़ दिया। यहीं से भीमराव रामजी, भीमराव आंबेडकर बन जाते हैं।
पिता को खोया,लेकिन सफर रहा जारी
अगले कुछ सालों में आंबेडकर पिता के साथ मुंबई शिफ्ट हो जाते हैं और आगे की शिक्षा के लिए मुंबई के एल्फिंस्टन हाई स्कूल में दाखिला लेते हैं। 1907 में वह मैट्रिक पास होते हैं। वह अपनी जाति से पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने इस स्तर की शिक्षा प्राप्त हासिल की थी। सफर आगे बढ़ता है और वह एल्फिंस्टन कॉलेज से 1912 में अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में स्नातक की डिग्री भी हासिल कर लेते हैं। एक साल बाद ही यानी 1913 में पिता का निधन हो जाता है। इसके बाद भी वो हार नहीं मानते और आगे की पढ़ाई जारी रखते हैं। यहां भी उनके काम आते हैं दादा केलुस्कर जो आगे की शिक्षा के लिए उनका सपोर्ट करते हैं।
पहली विदेश यात्रा और सफर रहा जारी
1912 में ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल करने के बाद भीमराव आंबेडकर को बड़ौदा राज्य सरकार में नौकरी ऑफर हो गई, जहां वह काम करने के लिए चले गए। कुछ दिनों बाद ही पिता बीमार रहने लगे, जिनकी देखभाल के लिए वापस मुंबई आ गए। 2 फरवरी 1913 को उनके पिता का देहावास हो गया। पिता की मौत के बाद भीमराव आंबेडकर अकेले से हो गए थे। हालांकि, इसके बाद भी उन्होंने किताबों का साथ नहीं छोड़ा। उनकी इच्छा विदेश जाकर पढ़ाई करने की थी। ऐसे में फिर से उनके काम दादा केलुस्कर आए। उन्होंने वडोदरा राज्य की शिक्षावृत्ति के लिए उनके पक्ष में साक्षी दी। जिसके बाद वो पढ़ाई के लिए कोलंबिया यूनिवर्सिटी पहुंच गए। साल 1917 में छात्रवृत्ति की अवधि समाप्त होने के कारण उनको भारत लौटना पड़ा। आते ही उनको बड़ौदा के महाराजा का सैन्य सचिव के रूप में नियुक्ति मिल गई। हालांकि इतना ऊंचा कद हो जाने के बाद भी जातिगत भेदभाव ने उनका पीछा नहीं छोड़ा, जिस कारण उन्हें मजबूरन पद छोड़ना पड़ा। बड़ौदा से मुंबई लौटने के बाद उन्होंने एक कॉलेज में पढ़ाना शुरू कर दिया। जहां उन्हें छात्रों का बड़ा प्यार मिला। हालांकि, अभी उन्हें और पढ़ने की इच्छा थी। इसका सम्मान कोल्हापुर के महाराज ने किया और उनको लंदन में कानून और अर्थशास्त्र की पढ़ाई करने के लिए आर्थिक सहायता दी।
सियासत में एंट्री और कानून मंत्री
लंदन यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने के साथ ही उन्होंने प्रोविंशियल डिसेंट्रलाइजेशन ऑफ इम्पीरियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया’नाम से थीसिस लिखी। इसके बाद कुछ समय जर्मनी की बॉन यूनिवर्सिटी में बिताया। 1923 में उन्हें वकीलों के बार में बुला लिया गया। अब बाबा साहेब को अपने असल उद्देश्य की चिंता सताने लगी थी। इसलिए वो 1924 में भारत लौटे और दलित वर्गों के कल्याण के लिए एसोसिएशन शुरू कर दिया। दलित समस्याओं को हल करने के लिए उन्होंने 3 अप्रैल, 1927 को बहिष्कृत भारत समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू कर दिया। 1928 में बंबई के लॉ कॉलेज से जुड़े और 1935 में यही प्रिंसिपल बन गए। इसके बाद उन्होंने 1938 में इस्तीफा दे दिया।
साल 1938 में प्रिंसिपल पद से इस्तीफा देने से पहले उनकी सियासत में एंट्री हो गई थी। 1926 में उनको बॉम्बे के गवर्नर ने विधान परिषद के सदस्य के रूप में नामित कर दिया था। जहां उन्होंने 1936 तक बतौर काउंसिल सदस्य के रूप में काम किया। अब वह सक्रिय राजनीति में आने का मन बना चुके थे। इस कारण उन्होंने 15 अगस्त 1936 को डॉ. भीमराव आंबेडकर स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की। इसका काम सामाजिक न्याय और समानता के लिए संघर्ष करना था। पार्टी की स्थापना के अगले साल ही उन्होंने विधान सभा चुनावों में दम लगाया और 13 सीटें हासिल कर ली। खुद भी बॉम्बे विधान सभा से चुने गए और कुछ समय के लिए विपक्ष के नेता के नेता के रूप में काम किया।
बॉम्बे विधान सभा में रहते हुए उन्होंने 1938 में उन्होंने कांग्रेस के अस्पृश्यों के नाम में बदलाव के प्रस्ताव का विरोध किया। 1942 में वह भारत के गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद में श्रम सदस्य के रूप में शामिल हुए। 1946 में बंगाल से संविधान सभा के सदस्य चुने गए और इसी साल प्रसिद्ध पुस्तक “हू वर शूद्र?” प्रकाशित की। भारत को आजादी मिलने के बाद डॉ. आंबेडकर पंडित जवाहरलाल नेहरू की कैबिनेट में विधि एवं न्याय मंत्री बने। इस पद पर रहते हुए उन्होंने एक न्यायपूर्ण समाज की नींव रखी। हालांकि, हिंदू कोड बिल और विदेश नीति के मामले में उनकी सरकार से नहीं जम पाई और उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
बाबा साहेब बनने की कहानी
देश आजाद हो गया था, लेकिन इसके बाद भी भीमराव आंबेडकर का सपना सच होता नहीं दिख रहा था। कई मौकों पर उनको और पूरे दलित समाज को भेदभाव का सामना करना पड़ रहा था। उन्हें लगने लगा था कि बौद्ध धर्म में प्रज्ञा, करुणा, और समता का संदेश मिलता है जिसका हिंदू धर्म में अभाव है। वो कुरीतियों और छुआछूत से परेशान हो गए थे। इसी का परिणाम था कि उन्होंने 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर की दीक्षाभूमि पर अपने 3.65 लाख समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म में शामिल होने का फैसला ले लिया। हालांकि, उन्हें चौथी कक्षा में बौद्ध धर्म से संबंधित किताब मिली थी। इसके बाद उनको बौद्ध बनने में 52 साल का समय लग गया। बौद्ध संन्यासी भिक्खु चंद्रामणि ने उन्हें दीक्षित किया। इसी दिन के भाषण में उनके द्वारा ली गईं उनकी 22 प्रतिज्ञाएं काफी चर्चा में रहती हैं। जिसमें उन्होंने कहा था कि मैं अछूत हिंदू जरूर पैदा हुआ हूं लेकिन हिंदू के रूप में मरूंगा नहीं। इसी दिन से उनके नाम के साथ बाबा साहेब जुड़ गया।
धारा 370 और समान नागरिक संहिता
भले बाबा साहेब कानून मंत्री बन गए थे लेकिन कई मामलों पर उनकी सरकार से नहीं बनती थी। इसका वो कड़ा विरोध करते थे। उन्होंने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 का स्पष्ट रूप से विरोध किया। उनका तर्क था कि यह भारत के हितों के खिलाफ है। हालांकि, उनके विरोध के बावजूद संविधान में शामिल किया गया। इसे लेकर जब संसद में चर्चा हुई तो उन्होंने इसमें भाग नहीं लिया और खुद को चर्चा से अलग कर लिया। इससे पहले संविधान सभा में रहते हुए वह समान नागरिक संहिता की वकालत करते रहे। 1951 में जब उनके हिंदू कोड बिल का प्रस्ताव रोका गया तो उन्होंने कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद वह लोकसभा चुनाव हार गए, लेकिन वह राज्यसभा के लिए चुन लिए गए।
छुआछूत का विरोध
बाबा साहेब के पूरे जीवन काल के कई पहलू हैं, लेकिन उन सभी पहलुओं में जो एक पहलू सबसे कॉमन है, वो है जातिवाद और उसका विरोध। उन्होंने बचपन से इसका नुकसान उठाया था। कई बार उन्हें इस कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा और नौकरी तक छोड़नी पड़ी। स्कूल में छुआछूत का विरोध करने वाले भीमराव आंबेडकर अपने जीवन में ऐसा कुछ कर गए, जिसने देश की खास तौर पर दलित समाज की तकदीर और तस्वीर बदल दी।
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आंबेडकर और संविधान
गांधी और कांग्रेस की आलोचना के बाद भी डॉ. भीमराव आंबेडकर की विद्वता और विधिवेत्ता के रूप का हर कोई कायल था। उनकी प्रतिष्ठा ने उनको देश का पहले कानून और न्याय मंत्री बनाया। इसके बाद वह संविधान सभा के अध्यक्ष भी नियुक्त हुए। जब 1949 को संविधान अपनाया गया तो आंबेडकर ने कहा था कि संविधान तभी सफल होगा जब इसे लागू करने वाले लोग नैतिक होंगे।
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आंबेडकर का सपना ऐसे भारत का निर्माण था, जहां हर व्यक्ति को समान अधिकार मिले और उसके साथ जाति या धर्म के आधार पर कोई भेदभाव न हो। उनका कहना था कि सामाजिक सुधार और समरसता ही भारत के उज्ज्वल भविष्य की चाबी है। आज आंबेडकर सामाजिक न्याय, समानता और अधिकारों की लड़ाई के लिए प्रेरणा हैं। उनकी शिक्षा और संघर्ष आधुनिक समाज को नई रहा दे सकता है। ऐसे में हमारा ये दायित्व है भी है कि हम समग्र आंबेडकर को पढ़े, जानें और उसके अनुसार अपने तर्क विकसित कर देश को नई दिशा में ले जाने का काम करें। ऐसा न हो की बाबा साहेब केवल सियासी चर्चाओं तक ही सीमित रह जाएं।