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श्यामदत्त चतुर्वेदी:
हम अगर अपने बचपन को याद करें तो पायेंगे कि एक ऐसा लम्हा भी होता था जब हल्की खिली धूप के बीच पानी की कुछ बूंदे टपकती थीं और आसमान में एक इंद्रधनुष दिखाई पड़ने लगता था। बच्चे उस इंद्रधनुष को देखकर बेहद खुश हो जाते हैं। मजे की बात ये है कि उस इंद्रधनुष का छोर कहां है इसका पता लगाने की फिराक में भी लग जाते हैं। उस रंगों के इस पुंज की तलाश के बीच मिट्टी की सोंधी महक मन को मोह लेती थी। बच्चे ही नहीं आज भी जब ऐसे मौसम में कोई बड़ा भी ऐसा कोई नजारा देखता है तो उसका बचपन उसके सामने आकर खड़ा हो जाता है। वो टकटकी लगाकर उसे देखने से नहीं चूकता। असल में इंद्रधनुष को नहीं बल्कि कुदरत के नजारे और प्रकृति के रंगों को देखकर मन खुश होता है। कहते हैं कि अगर रंग ना दिखे तो आंखों पर अंधा पन छा गया है। लेकिन आंखों से देखों तो दुनिया रंगीन ही दिखाई पड़ती है। सचमुच रंगों की दुनिया इतनी बड़ी है कि हमारे जीवन के हर पहलू हर हिस्से में उसका वजूद है।
सुख-दुःख, हंसी-खुशी, शांति और समृद्धि, प्रेम और आक्रोश का अपना रंग होता है। कुदरत के रंग, इंसानी जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। ये न केवल आंखों को अच्छा लगता है बल्कि मन, मस्तिष्क और समाज पर भी अपना गहरा असर डालता है। यू तो रंग महज ढाई अक्षरों से बना एक शब्द है पर जब इससे शब्दों और वाक्यों को गढ़ा जाता है तो ये भाषा को रंगीन बना देता है। इस अकेले शब्द में ही जीवन के तमाम अर्थ छुपे हैं। इतिहास इस बात की गवाही देता है की रंगों ने बवाल कराने के साथ ही शांति की रास्ता भी दिखाया है। अब आप के मन में ख्याल आ रहा होगा कि अभी तो होली दूर है भला रंगों पर इतना ज्ञान क्यों दिया जा रहा है।
पिछले दिनों भारत की संसद में गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में बाबा साहेब आंबेडकर को लेकर एक बयान दिया। उस बयान के बाद से ही पूरे देश में एक अजीब सी अफरा तफरी का आलम है। सोशल मीडिया से लेकर सड़कों तक विपक्ष के साथ साथ सामाजिक संगठन आसमान सिर पर उठाए हुए हैं। किसी के हाथ में तख्ती है तो कोई तस्वीर लिए डोल रहा है। किसी ने तो आंबेडकर का हितैषी या यूं कहें कि आंबेडकरवादी दिखने के चक्कर में उनका पसंदीदा नीला रंग ही धारण कर लिया।
अमित शाह के उस बयान के बाद लोग विरोध में उतर आए और उनके इस्तीफे की मांग तक करने लगे। बयान और उसपर हो रही सियासत को फिलहाल एक तरफ रखते हैं। लेकिन, इस विरोध में आपको नीला रंग जरूर नज़र आया होगा। खासतौर पर जब राहुल गांधी की नीली टीशर्ट देखी होगी तो ये ख्याल जरूर आया होगा कि जो राहुल गांधी अक्सर सफेद रंग की टी शर्ट में नजर आते हैं अचानक नीली टी शर्ट में क्यों आ गए?
राहुल गांधी नीली टी-शर्ट पहनकर संसद में पहुंचे और बाबा साहेब की फोटो और संविधान की प्रति के साथ गृहमंत्री अमित शाह के बयान का विरोध करने लगे। तभी अचानक प्रियंका गांधी पर नजर गई तो नजर वहीं टिक गई, क्योंकि नीला रंग यहां भी हावी था। इसके साथ साथ कई नेता नीले कपड़ों में लिपटे नज़र आने लगे। सवाल तो बनता ही है कि आखिर ये नीला रंग ही क्यों? क्या ये नीला रंग बाबा भीमराव आंबेडकर का पसंदीदा रंग है? या फिर इसकी कोई और वजह है? आमतौर पर तो हम यही देखते आए हैं कि जब भी कोई किसी का विरोध करता है तो काला रंग धारण कर लेता है। लेकिन यहां तो विरोध का रंग नीला नज़र आ रहा। अब या तो हमारी आंख खराब हो गई या फिर इस नीले रंग का रहस्य कुछ और है। फिर इसके साथ ही ये सवाल भी मन में कौंधने लगा कि आखिर बाबा साहेब या दलित और इस विचार को लेकर काम करने वाली दलों और संस्थानों ने इस नीले रंग को ही क्यों धारण किया? ऐसा क्या खास है इस नीले रंग में? कैसे ये रंग दलित आंदोलन का रंग बन गया?
दलितों का रंग नीला कैसे बना?
दलित आंदोलनों के साथ उनके विरोध और समर्थन के दौरान हमेशा नीला रंग ही दिखाई देता है। आज के दौर में इसी नीले रंग को दलितों प्रतीक रंग मान लिया गया है।
सवाल उठता है क्यों?
असल में इस नीले रंग को बाबा साहेब आंबेडकर ने अपनाया था। उनके शुरुआती आंदोलन के समय से लेकर सियासी पार्टी बनाने तक नीला रंग ही उनकी पहचान का हिस्सा बना रहा। सुना और लिखा देखा तो पता चला कि खुद बाबा साहेब को निजी तौर पर नीला रंग बेहद पसंद भी था। अक्सर वो नीले रंग के सूट में ही नज़र आते थे। चूंकि बाबा साहेब दलित अधिकारों के लिए लड़ने वाले नेता के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने अपने तमाम अहम कामों में नीले रंग को शामिल किया। इसके बाद कांसीराम जैसे तमाम दलित नेताओं ने इसी नीले रंग से अपने आंदोलनों की अलग जगाई। लिहाजा नीले रंग को दलितों के रंग के तौर पर पहचान पुख्ता हो गई।
बाबा साहेब के जीवन में नीला रंग
चलिए बाबा साहेब की बात शुरू से शुरू करते हैं। बात साल 1924 की है। लंदन से लौटने के बाद बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर दलितों के अधिकारों की लड़ाई के लिए मुखर हो गए। करीब 12 साल तक अलग अलग धाराओं से जुड़ते जूझते बाबा साहेब ने दलितों को अधिकार दिलाने की खातिर 15 अगस्त 1936 को स्वतंत्र लेबर पार्टी की शुरूआत की। पार्टी बनी तो उसका झंडा भी बनना था। झंडा नीले रंग का बना। इसके बाद भीमराव आंबेडकर ने 1942 में शेड्यूल कास्ट फेडरेशन ऑफ इंडिया का गठन किया। इत्तेफाक ये रहा कि इस संगठन का झंडा भी नीला ही रखा गया। मगर बीच में सफेद अशोक चक्र रखा गया था। कुछ अरसा बाद पार्टी को भंग किया गया और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना हुई। रंग यहां भी नीला ही रहा।
सबसे दिलचस्प ये है कि बाबा भीमराव आंबेडकर को पूरी दुनिया में नीले रंग का पर्याय मान लिया गया। जहां कहीं भी बाबा साहेब का जिक्र हुआ तो नीला रंग सामने आ गया। ये बात अब बाबा साहेब को भी समझ में आने लगी लिहाजा उन्होंने इसी रंग को अब पूरी तरह से अपना बना लिया और अपने संगठन और समाज के सशक्तिकरण का प्रतीक बना डाला। बात साल साल 2017 की है जब अर्थ-जर्नल ऑफ सोशल साइंसेज में एक रिपोर्ट छपी थी। रिपोर्ट की हेडिंग थी ‘फैब्रिक-रेंडर्ड आइडेंटिटी: ए स्टडी ऑफ दलित रिप्रेजेंटेशन’। रिपोर्ट में कहा गया था कि आंबेडकर ने नीले रंग के महार झंडे को अपनी पार्टी की पहचान बनाई थी। उसी रिपोर्ट में ये भी लिखा था कि उनका ये नीला रंग असल में दलित समाज में चेतना और प्रतिनिधि में भेदभाव न रखने की पुख्ता पहचान थी। यहां से जो सिलसिला आगे बढ़ा तो नीला रंग जहां था वहीं रहा, बाकी सब कुछ वक्त से साथ बदलता रहा।
आखिर बाबा साहेब ने क्यों अपनाया नीला रंग?
तो चलिए नीले रंग को कुछ और समझने की कोशिश करते हैं। रंगों की किताबें बताती हैं कि नीले रंग को बंधुत्व, समानता और संघर्ष का प्रतीक माना जाता है। बौद्ध धर्म के झंडे में पांच रंग (नीला, लाल, सफेद, पीला, और नारंगी) होते हैं। इन रंगों के बारे में जब कुछ और खुलासा हुआ तो ये बात सामने आई कि नीला रंग प्यार को दर्शाता है साथ ही साथ उसमें दया, शांति, और सार्वभौमिकता भी निहित है। आकाश का नीला रंग नीला है और गहरा समंदर भी नीला दिखता है। किताबों में लिखा है कि बौद्ध धर्म में नीले रंग को समानता और व्यापकता का प्रतीक माना गया है। ये बात किसी से छुपी तो है नहीं कि बाबा साहेब का बौद्ध धर्म से खासा लगाव था। उन्होंने इस धर्म को बाद में अपना भी लिया।
कैसे बना रंग शब्द और नीला रंग?
अब जबकि बात रंगों की चल निकली है तो लगे हाथों ये भी समझ लें कि आखिर रंग शब्द कहां से और कैसे वजूद में आया। ‘रंग’ शब्द संस्कृत और फारसी दोनों भाषाओं से आया माना जाता है। संस्कृत में यह ‘रंज्’ धातु का शब्द है। इसे कई बार राग भी कहा जाता है। संस्कृत में ‘रंग’ को ‘वर्ण’ भी कहते हैं जिसका अर्थ वर्ग, अक्षर, गुण, प्रकार होता है। वहीं फारसी में रंग को रंज शब्द से जुड़ा माना जाता है। इसका उपयोग दुख, पीड़ा और खेद के लिए होता है। अब अगर नीले रंग की बात करें तो ये एकदम से शुद्ध रंग है। इसमें किसी और रंग की मिलावट नहीं है। हालांकि, नीले रंग में कुछ और रंगों को मिलाकर कई तरह के रंग बनाए जा सकते हैं लेकिन नीला रंग बनाना मुश्किल है।
देश की बड़ी सियासी पार्टियों के सिग्नेचर रंग
रंगों का का इस्तेमाल प्रतीक के तौर पर भी किया जाता है। इतिहास गवाह है कि रंगों ने धर्मों, पद्धतियों और विचारों को परिभाषा दी है। भारत ही नहीं दुनियाभर की तमाम सियासी पार्टियों के झंडे का अपना एक रंग है जो उनके विचार को दर्शाता है। इसके साथ ही वो किसी न किसी प्रतीक चिन्ह का प्रयोग करते हैं जो उनके उद्देश्य से मेल खाता है। सियासत में ये रंग बड़े काम के होते हैं यहां तक कि इन रंगों के जरिए ही पैगाम को आम लोगों तक पहुँचाए जा सकते हैं।
किस रंग को किसका प्रतीक माना जाता है?
कई रिसर्च में ये साबित हुआ है कि अलग-अलग रंगों का अलग-अलग असर भी होता है। विज्ञान में नीला रंग शांति का प्रतीक है तो पीले रंग को खुशी के साथ ऊर्जा को जाहिर करने वाला माना जाता है। हरा रंग उम्मीद और नई शुरुआत की पहचान है जबकि लाल रंग प्रोत्साहन और गंभीरता को दिखाता है। हालांकि, अलग-अलग संस्कृति में इनका अलग प्रतीक भी हो सकता है।
धर्मों की पहचान और सांस्कृतिक महत्व
हिंदू धर्म में अलग-अलग रंगों का अलग महत्व है। हालांकि, अधिकतर मौकों पर सफेद, केसरिया, लाल, पीले और हरे रंग का इस्तेमाल होता है। यहां हर देवता और त्यौहार के मौकों पर अलग-अलग रंग की विशेषता है। वहीं इस्लाम में हरे रंग का खासा महत्व है। जबकि, ईसाइयों में सफेद रंग को अहमियत दी गई है। सिखों में केसरिया, पीला और नीला रंग उनके लिए आन बान और शान का प्रतीक बन चुकी है। ऐसे ही सभी धर्मों में अपने एक या कुछ और रंगों का खासा महत्व है।
भावनाओं में रंग और रंगों का भाव
आम जीवन में किसी भी रंग को पसंद करना या किसी मौके पर किसी विशेष रंग का पहनावा करना वक्त की नजाकत को बताता है। जैसे शादी ब्याह में लाल रंग को बड़ी तवज्जो मिलती है। आमतौर पर ऐसे मौकों पर सफेद और काले रंग से बचने का चलन है। क्योंकि, अब दो लोग अपनी दुनिया में रंग भरने जा रहे हैं। वहीं अलग-अलग धर्मों में मातम वाले स्थान पर सफेद और काले कपड़े पहने जाते हैं जो एक तरफ अंधकार और अंत को बताते हैं। वहीं एक रंग शुरुआत और शांति को बताता है। काला रंग पहनकर विरोध करना तो खैर आम बात है।
भाषायी रंग
और बात रंग शब्द और उससे बने वाक्यों की करें तो बड़े से बड़े खेल यहीं से हो जाते हैं। रंग को लेकर कई मुहावरें है जो भाव के साथ ही छोटे वाक्यों में बहुत बड़ी बात कहने की ताकत रखते हैं। कुछ रंगों के नाम के साथ भी मुहावरे हैं जो मौके को कुछ ही शब्दों में बता देते हैं। मतलब साफ है कि रंग भाषा को भी रंगीन बनाते हैं।
रंग केवल देखने के लिए नहीं है। ये हमारी सभ्यता, संस्कृति और विचारधारा के प्रतीक भी हैं। धर्म से लेकर कर्म और विचारों में भी रंगों का असर होता है। रंगों का महत्व तो प्राचीन काल से लेकर आधुनिक समय तक दिखता है। हर रंग की अपनी एक कहानी, अपना प्रतीक और अपना ही अर्थ है। चाहे वह 7 रंगों में से एक हो या इन सात रंगों से मिलकर बने अपार रंगों की श्रृंखला में से कोई एक। ये हमारे विश्वास, विचारों और उद्देश्यों को दर्शाते हैं। जब हम रंगों को समझते हैं, तो हम उनकी सुंदरता ही नहीं बल्कि उनके पीछे छिपे संदेश और उनकी संस्कृति की गहराई को भी समझते हैं।