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सजा-ए-मौत का सच: ईरान में सख्ती, चीन में गोपनीयता, अमेरिका में बहस, भारत में फांसी पर लटके हैं सवाल

Death Penalty Executions Around the World/ Dayitvamedia
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-गोपाल शुक्ल

पूरी दुनिया इंसानियत और इंसाफ के एक फैसले को लेकर एक ऐसी बहस में जुटी हुई है जिसका फिलहाल अंत होता तो नहीं दिखाई पड़ता, मगर इतना तो दिखना शुरू हो गया है कि दुनिया दो भागों में बंटती नज़र आ रही है। दुनिया के एक हिस्से में वो लोग हैं जिन्होंने इंसानियत को तवज्जो दी, जबकि दूसरे ऐसे देश हैं जहां इंसाफ के दिखावे में इंसानियत को ताक पर रख दिया गया है। लेकिन इसी में एक तीसरा धड़ा भी दिखाई देता है जो न इधर का है और न ही उधर। भारत में उसी कतार में खड़ा है जहां इंसानियत का सवाल फांसी के फंदे पर लटका दिखाई दे रहा है।

फांसी, मृत्युदंड और सज़ा-ए-मौत। ये महज तीन शब्द नहीं हैं, बल्कि इंसान की जमात का वो काला और विवादित मसला है, जिसको लेकर सदियों से पूरी दुनिया में बहस छिड़ी हुई है। पूरी दुनिया में यही देखा जाता है कि किसी भी गुनहगार को ये सजा आखिरी सजा के तौर पर दी जाती है जब इंसान के बनाए क़ानून में बचने की कोई गुंजाइश नहीं होती, या किसी अपराधी के गुनाहों का फैसला करने के लिए इससे बड़ी कोई सज़ा नजर नहीं आती।

मौत की सजा पर दुनिया में फिर छिड़ी बहस

सजा-ए-मौत का जिक्र सुनकर हो सकता है कि आपके जेहन में ये ख्याल उठा हो कि अचानक सजा-ए-मौत का जिक्र क्यों किया जा रहा। नया साल आया है, अच्छी अच्छी बातों की जाएं। कहां सज़ा-ए-मौत जैसी बेरहम सजा का जिक्र छेड़ा जा रहा है। तो असल में इस सज़ा-ए-मौत का जिक्र इसलिए किया जा रहा है कि आज ही सुबह अखबारों में एक खबर हरे किसी की नज़रों से गुजरी। बेशक वो खबर छोड़ी थी, मगर उसका असर बहुत बड़ा। जिसने अचानक उस बहस को फिर से हवा दे दी, जो गाहे बगाहे होती ही रहती है और तमाम बुनियादी बहस मुबाहिसे के बाद फिर से मुल्तवी कर दी जाती है।

जिम्बाब्वे में अब किसी को नहीं होगी सजा ए मौत

दरअसल एक अफ्रीकी देश में इस सजा-ए-मौत को पूरी तरह से खत्म करने का ऐलान किया गया है। दुनिया भर के अलग अलग देशों और इलाकों के विद्वानों के बीच गुनहगारों को मौत की सजा देने के मामले में अच्छी खासी बहस छिड़ी हुई है। एक तरफ तो अमेरिका के ताजा बने राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप हैं जो पूरी तरह से इस सजा के हक में वकालत करने के लिए हर दम तैयार नजर आते हैं। लेकिन डॉनल्ड ट्रम्प के ठीक उलट एक छोटे से गरीब अफ्रीकी देश ने पूरी तरह से ये सजा ही खत्म कर दी। यानी इस नए कानून के बनने के बाद अब उस देश में किसी भी इंसान को सजा-ए-मौत की सजा नहीं दी जाएगी। आप जानकर हैरान हो जाएंगे कि उस देश का नाम है जिम्बाब्वे जिसके राष्ट्रपति एमर्सन मनंगाग्वा को भी फांसी की सजा सुनाई गई थी।

राष्ट्रपति को भी सुनाई गई थी मौत की सजा

अब एक ऐसा देश सामने आया है जिसने अपने यहां मौत की सजा के प्रावधान को खत्म ही कर दिया है। यानी कि अब इस देश में किसी भी शख्स को मृत्युदंड नहीं मिलेगा। आपको बता दें कि मौत की सजा खत्म करने वाले इस देश का नाम जिम्बाब्वे है। जिसके राष्ट्रपति एमर्सन मनंगाग्वा के दस्तखत के बाद अब उस बिल को मंजूरी मिल गई जिसके तहत जिम्बाब्वे से सजा ए मौत को अब पूरी तरह से खत्म करने का कानून पारित हो चुका है। ये जानकर और भी ज्यादा ताज्जुब होगा कि जिम्बाब्वे के राष्ट्रपति एमर्सन को खुद ही करीब 60 साल पहले सज़ा-ए-मौत की सजा सुनाई गई थी। ये उस समय की बात है जब जिम्बाब्वे में आजादी की लड़ाई छिड़ी हुई थी। 1960 के दशक के दौरान एमर्सन आजादी के मतवाले के तौर पर अपने देश में मशहूर थे। तभी उन्हें आंदोलन में हिस्सा लेने के जुर्म में कॉलोनियल सरकार ने फांसी की सजा सुनाई थी। इसीलिए जिम्बाब्वे में इस बात पर भी बहस छिड़ी है कि एमर्सन ने अपनी फांसी की सजा की वजह से इस कानून को मंजूरी दी है।

144 देशों ने सजा-ए-मौत को खत्म किया

बीबीसी में छपी खबर के मुताबिक अब तक कुछ जमा 144 ऐसे देश हैं जहां या तो सजा-ए-मौत को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया है या फिर उसका इस्तेमाल ही नहीं कर रहे। एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के हवाले से बताया जा रहा है कि मौजूदा वक्त में 112 ऐसे देश हैं जहां किसी भी मुजरिम को मौत की सजा देना पूरी तरह से बंद किया जा चुका है। जबकि दुनिया में नौ ऐसे देश हैं जहां कुछ खास हालात में ही सजा-ए-मौत देने की इजाजत है। 23 ऐसे देशों की पहचान हो चुकी है जहां बीते दस सालों के दौरान मौत की सजा किसी को नहीं दी गई। इस तरह दुनिया भर में 144 देशों में सजा-ए-मौत को किनारे लगाया जा चुका है।

बहुत पुराना है सजा-ए-मौत का इतिहास

वैसे देखा जाए तो सजा-ए-मौत का इतिहास बहुत पुराना है। करीब करीब उतना ही पुराना है जितना मानव सभ्यता के विकास का इतिहास है। सच कहा जाए तो जब इंसान को अपने समाज को ठीक ठाक ढंग से रखने की जरूरत महसूस हुई तभी से इंसाफ करने का बंदोबस्त लाया गया और उसी समय से संगीन अपराधियों को सजा-ए-मौत देने का इंतजाम कर लिया गया था।
मेसोपोटामिया- दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक मेसोपोटामिया की हामुराबी संहिता आज से कोई 1700-1800 साल पहले लिखी गई थी। उसी संहिता में इंसानी सभ्याताओं के लिए जरूरी कानून बनाने की बात लिखी है। जिसमें 282 कानून को दर्ज किया गया है। उन्हीं कानूनों में अपराधी को मौत की सजा देने का भी जिक्र मिलता है।

मिस्र और फारस- ये सभ्यताएं भी इंसान के विकास के साथ साथ आगे बढ़ीं। यहां समाज को ठीक रखने के लिए कुछ कायदे और कुछ कानून बनाए गए थे। उसमें मौत की सजा देने का भी कानून देखा जाता है।

हिन्दुस्तान- हिन्दुस्तान में समय समय पर कई तरह के कानूनों से समाज को संभालने की कोशिशें की गईं। फिर एक व्यवस्था आई मनुस्मृति की। उस मनुस्मृति में भी कहीं कहीं मृत्युदंड के बारे में लिखा हुआ मिल जाता है। लेकिन एक सच ये भी है कि भारत में इस बात की भी परंपरा देखी गई कि यहां अपराधी को क्षमा दान या फिर उसे फिर से जीवन की मुख्यधारा में लाने वाले तौर तरीकों का भी प्रावधान रहा है।

मौत की सजा खत्म करने की शुरु हुई थी वकालत

बात 18वीं सदी की है। उस जमाने में पूरी दुनिया में सुधार आंदोलन तेजी से फैल रहा था। उसी दौर में इटली के एक दार्शनिक हुए चेज़र बेकारिया (Cesare Beccaria)। उन्होंने सबसे पहले सजा मौत को पूरी तरह से खत्म करने की वकालत की थी। चेज़र बेकारिया की एक किताब है Crime and Punishments। इस किताब में चेजर बेकारिया लिखते हैं कि सजा-ए-मौत पूरी तरह से अमानवीय है। किसी भी इंसान को किसी भी दूसरे इंसान की जिंदगी लेने का कोई हक नहीं जबकि वो उसे जिंदगी नहीं दे सकता। चेजर बेकारिया ने जब इस सजा-ए-मौत के खिलाफ मुहिम छेड़ी तो उनकी दलीलों से इस सजा को पूरी तरह से खत्म करने के लिए जरूरी जनमत तैयार करने में बड़ी मदद मिली।

अमेरिका में भी छिड़ चुकी है बहस

इसी तर्ज पर अमेरिका में भी 19वीं और 20वीं सदी के दौरान इस बात को लेकर बहस तेज हुई कि क्या किसी इंसान को सजा-ए-मौत जैसी संगीन सजा दी जानी चाहिए। हालांकि विचारों में मतभेद की वजह से इस सजा को पूरी तरह से तो नहीं हटाया जा सका। अलबत्ता अमेरिका के कई राज्यों में इस सजा पर पूरी तरह से पाबंदी लगाई जा चुकी है।

अंग्रेजों के समय भारत में कानून बना फांसी की सजा का

जहां तक भारत का सवाल है तो यहां सज़ा-ए-मौत को सजा के तौर पर देने की शुरुआत अंग्रेजों के समय हुआ जब कानून में इस सज़ा का उल्लेख किया गया। 1861 में अंग्रेज हुकूमत एक कानून लाई। जिसे IPC यानी भारतीय दंड संहिता कहा गया। इसी संहिता के तहत कुछ गंभीर अपराधों के लिए मुजरिम को सजा-ए-मौत देने का प्रावधान रखा गया। वैसे हिन्दुस्तान में कुछ फांसी बड़ी मशहूर हैं जैसे भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी। अंग्रेज हुकूमत ने साल 1931 में आजादी के परवाने बन चुके भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को एक साथ फांसी की सजा दी थी। इसके अलावा महात्मा गांधी को तीन गोली मारने वाले हत्यारे नाथूराम गोडसे को भारतीय दंड संहिता के तहत 1949 में फांसी की सजा दी गई थी। हाल ही के बीते सालों में 2012 निर्भया कांड के मुजरिमों को 2020 में फांसी पर लटका दिया गया था।

मरने के अधिकार पर जनहित याचिका

तारीख- 21 सितंबर 2017। सज़ा-ए-मौत के सिलसिले में छिड़ी बहस के मामले में ये तारीख भारत के इतिहास में एक मील का पत्थर भी कही जा सकती है। दरअसल उस साल देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल की गई थी। जिसमें ये मांग की गई थी कि किसी भी इंसान को गरिमापूर्ण मृत्यु पाने के अधिकार को उसका मौलिक अधिकार माना जाना चाहिए। अपनी याचिका में याचिकाकर्ता ने दलील दी थी कि असल में फांसी एक तकलीफ देने और दर्द देने वाला घटिया तरीका है। जिसमें वक्त भी ज्यादा लगता है और सज़ा ए मौत पाने वाला इंसान बहुत देर तक तड़पता रहता है। इस सजा की जगह कोई ऐसी सजा तय की जाए जिसमें सजा-ए-मौत की सजा पाये मुजरिम की थोड़े समय में ही मौत मिल जाए। उसे दर्द के साथ तड़पना न पड़े।

याचिकाकर्ताओं ने अपनी अपील में जहर के इंजेक्शन या फिर गोली मारकर सजा मौत देने का रास्ता सुझाया था। दलील यही थी कि फांसी के बाद किसी को मृत घोषित करने में कम से कम 40 मिनट का वक्त लग जाता है। ऐसे में सजा-ए-मौत के बाद कम समय में अपराधी की मौत हो जाए और उसे मौत के लिए तड़पना न पड़े।

मौत की सजा देने के अलग अलग तरीके

जाहिर है ऐसे में ये सवाल तो वाजिब तौर पर उठ ही सकता है कि आखिर हिन्दुस्तान के साथ साथ दुनिया के दूसरे तमाम देशों में कैसे मौत की सजा देने का तौर तरीका है?अब तक मिली जानकारी के मुताबिक दुनिया भर में करीब 58 ऐसे देश हैं जहां अपराधियों को फांसी देने का प्रावधान है। जबकि 73 देश ऐसे हैं जहां सजा-ए-मौत में अपराधी को गोली मारी जाती है।
कहीं मारी जाती है गोली तो कहीं पत्थर से मार मारकर मार डालते हैं।


लेकिन दुनिया में करीब 45 ऐसे देश भी हैं जहां मौत की सजा पाने वाले अपराधी को फायरिंग स्क्वॉड के जरिए गोली मरवाई जाती है। वैसे भारत में सजा-ए-मौत पर फांसी की सजा दी जाती है और ऐसे करीब 33 और देश हैं। जबकि दुनिया भर में छह ऐसे देश भी हैं जहां मौत भी तड़पा तड़पा कर दी जाती है। यहां अपराधियों को स्टोनिंग यानी पत्थर मारकर मारा जाता है। जबकि पांच ऐसे मुल्क हैं जहां मौत की सजा देने के लिए अपराधी को इंजेक्शन देकर उसे हमेशा हमेशा के लिए मौत की आगोश में सुला दिया जाता है।

आप जानकर हैरान हो सकते हैं कि दुनिया में तीन ऐसे भी मुल्क हैं जहां सजा-ए-मौत की सजा सिर काटकर दी जाती है। कहा तो यहां तक जाता है कि दुनिया के 58 मुल्क सजा-ए-मौत देने के मामले में बहुत आगे और सक्रिय भी हैं। लेकिन इंसानी तरक्की के साथ साथ दुनिया के कुछ मुल्कों ने इस सजा मौत की सजा को ही पूरी तरह से खत्म कर दिया। ऐसे मुल्कों की गिनती 97 बताई जाती है।

सजा-ए-मौत कैसे कैसे दी जाती है और कहां?

अफगानिस्तान और सूडान– पथराव, फायरिंग और फांसी
युगांडा, केमरून, मिस्र, बांग्लादेश,सीरिया, कुवैत और ईरान– फांसी और फायरिंग
दक्षिण कोरिया, भारत, मलेशिया, बारबाडोस, जाम्बिया, तंजानिया, बोत्सवाना– फांसी
तुर्कमेनिस्तान, थाईलैंड, चिली, बहरीन, इंडोनेशिया, घाना, टोगो, यमन, अर्मेनिया – फायरिंग
चीन– इंजेक्शन और फायरिंग
फिलीपींस – इंजेक्शन
अमेरिका– बिजली का झटका, गैस चैंबर, फांसी, फायरिंग

एक साल में 31 फीसदी मामले बढ़े

बीबीसी में छपी एक खबर के मुताबिक एमनेस्टी इंटरनेशनल ने जो आंकड़े इकट्ठा किए हैं उसने इंसानियत को बुरी तरह से चौंकाया है। क्योंकि आंकड़ों की गवाही यही है कि पूरी दुनिया में सजा-ए-मौत देने के मामलों में जबरदस्त बढ़ोतरी दर्ज की गई है। एमनेस्टी के मुताबिक पूरी दुनिया में पिछले साल यानी साल 2023 में सजा-ए-मौत के 1153 मामले सामने आए। जबकि साल 2022 में ये गिनती 883 थी जो 31 फीसदी कम थी।

ईरान की वजह से पूरी दुनिया में बढ़ रहे सजा ए मौत के मामले

हैरान करने वाली बात ये है कि बीते 10 सालों के दौरान एमनेस्टी इंटरनेशनल को साल 2015 में सजा-ए-मौत के सबसे ज्यादा 1634 मामले देखने को मिले। बताया जा रहा है कि सजा-ए-मौत के बढ़ते दुनिया भर में मामलों की गिनती दरअसल ईरान की वजह से बहुत तेजी से बढ़ जाती है। एक अंदाजा यही लगाया गया है कि उस साल ईरान में 853 लोगों को फांसी पर लटका दिया गया था। इसके बावजूद एमनेस्टी इंटरनेशनल को लगता है कि सजा-ए-मौत के मामले में चीन का नंबर सबसे ऊपर होना चाहिए। क्योंकि वहां दी जाने वाली सजा-ए-मौत के बारे में किसी भी तरह का कोई सरकारी या आधिकारिक आंकड़ा मौजूद नहीं है। ऐसा खुलासा है कि बीते तीन सालों के दौरान चीन में हजारों लोगों को सजा-ए-मौत की सजा दी गई है।

ईरान में 74 फीसदी मामले सामने आए

एमनेस्टी इंटरनेशनल को लगता है कि साल 2023 के मुकाबले साल 2018 में सजा-ए-मौत के मामले 20 फीसदी कम सामने आए थे। एमनेस्टी के अनुसार ईरान दुनिया का अकेला मुल्क है जहां सजा ए मौत के 74 फ़ीसदी मामले दर्ज हुए हैं। जबकि मौत की सजा देने में सऊदी अरब के भीतर 15 फीसदी केस दर्ज हुए। जहां तक दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क अमेरिका का मामला है तो अमेरिका की वॉशिंगटन काउंटी में मौत की सजा को पूरी तरह से गैरकानूनी घोषित कर दिया गया है। वॉशिंगटन समेत अमेरिका के 20 सूबों में सजा ए मौत पर पूरी तरह से रोक लगी हुई है।

पहले धर्म और सत्ता के लिए दी जाती थी मौत की सजा

वैसे ये भी कम दिलचस्प नहीं है कि अपराध के जिन मामलो में सजा-ए-मौत की सजा दी जाती है। पहले धर्म और सत्ता को बचाने की खातिर इस सजा का जबरदस्त तरीके से इस्तेमाल किया जाता था। खासतौर पर मध्यकालीन युग के दौरान।

यूरोप में जब ईसाई धर्म का प्रभाव बढ़ रहा था उस समय धर्मद्रोह के अलावा, जादू टोना और देश द्रोह जैसे मामलो में मौत की सजा सुनाई जाती थी।

इस्लाम आमतौर पर शरीयत कानून को मानता है जिसके तहत क़त्ल, चोरी और अनैतिक गुनाहों के सिलसिले में लोगों को मौत की सजा दे दी जाती थी।

भारत में मुगल शासन के दौरान राजद्रोह के साथ साथ शासक के साथ गद्दारी जैसे मामलों में मौत की सजा सुनाना आम बात थी।

मौत की सजा को लेकर दो धड़ों में बटी दुनिया

वैसे तरक्की करते इंसान की जिंदगी में यूं तो कई बदलाव हुए हैं। अपराध और अपराध करने के तौर तरीकों में भी बहुत तब्दीलियां आ गई हैं। लिहाजा ये बहस तेज हो चुकी है कि वाकई किसी अपराधी को सजा-ए-मौत देना सही है या नहीं?
इस सजा के हक में कुछ तर्क दिए जाते हैं- मसलन

इंसाफ की जरूरत- संगीन और वीभत्स मामलों में किसी अपराधी की ऐसी सजा असल में पीड़ित के परिवारों को इंसाफ का अहसास देता है।
जुर्म को रोकना- असल में सजा-ए-मौत किसी भी तरह के अपराधी के भीतर एक खौफ पैदा कर सकती है। और वही खौफ अपराधों में कमी लाने में सहायक हो सकता है।
सुरक्षा का अहसास- संगीन से संगीन गुनाह करने वाले अपराधियों को जेल में रखना और समाज से दूर करना ही कानून की पहली प्राथमिकता होती है। ऐसे में फांसी या सजाएमौत की सजा समाज में एक प्रभावी तरीका भी हो सकता है।

ये वो तर्क हैं जो इस सजा को कायम रखने के मामले में वकालत करते दिखाई पड़ते हैं। लेकिन हर एक पहलू का दूसराा पक्ष भी होता है। इस सजा को खत्म करने के हक में कई लोगों ने आवाज उठाई है।

सवाल नैतिकता का – एक सबसे बड़ा तर्क तो यही दिया जाता है कि जब किसी इंसान को जिंदगी देने का अधिकार हमारे पास नहीं है तो हमें क्या हक है कि हम उससे उसके जीने का अधिकार छीन लें।
गलती का खतरा- दुनिया में ऐसे अनेक सबूत और उदाहरण हैं जब किसी अपराध में किसी बेकसूर को सजा-ए-मौत की सजा दे दी गई। ऐसे में इस सिलसिले को फौरन ही रोका जाना चाहिए ताकि किसी भी सूरत में कोई बिना अपराध के सजा का हकदार न हो सके।
फिर से जीने का मौका- आमतौर पर कोई अपराधी अपनी अज्ञानता या भावावेष में आकर किसी अपराध को अंजाम देता है। मगर अपराध के हो जाने के बाद उसे अपने किए पर पछतावा भी होता है। ऐसे में उसे एक बार सुधरने का मौका जरूर दिया जाना चाहिए। इस इंसानी पहलू की वकालत ज्यादातर मुल्कों में की जाती है।

मौत की सजा सिर्फ कानून का नहीं इंसानियत का भी सवाल

सजा ए मौत का इतिहास हमें ये तो बताता ही है कि ये सजा इंसाफ का अंतिम उपाय है और इसे लागू करने के सिलसिले में बेहद सावधानी रखने के साथ साथ नैतिकता की भी जरूरत पड़ती है। साफ है कि इंसाफ और इंसानियत के बीच एक संतुलन बनाकर रखना ही कानून की सबसे बड़ी चुनौती है। सच ही कहा जाता है कि सजा-ए-मौत असल में केवल कानून का मामला नहीं है बल्कि इंसानियत के लिए भी एक इंतेहान होता है। ऐसे में बहस यहां जाकर अटक जाती है कि क्या हम अपने इर्द गिर्द एक ऐसा समाज भी बना सकते हैं जिसमें गुनाहों या वारदात की गिनती इतनी कम हो जिसमें इस मौत की सजा की कोई जरूरत पड़े ही न। ये बात वाकई सोचने और समझने की है।

Author

  • गोपाल शुक्ल - दायित्व मीडिया

    जुर्म, गुनाह, वारदात और हादसों की ख़बरों को फुरसत से चीड़-फाड़ करना मेरी अब आदत का हिस्सा है। खबर का पोस्टमॉर्टम करने का शौक भी है और रिसर्च करना मेरी फितरत। खबरों की दुनिया में उठना बैठना तो पिछले 34 सालों से चल रहा है। अखबार की पत्रकारिता करता था तो दैनिक जागरण और अमर उजाला से जुड़ा। जब टीवी की पत्रकारिता में आया तो आजतक यानी सबसे तेज चैनल से अपनी इस नई पारी को शुरु किया। फिर टीवी चैनलों में घूमने का एक छोटा सा सिलसिला बना। आजतक के बाद ज़ी न्यूज, उसके बाद फिर आजतक, वहां से नेटवर्क 18 और फिर वहां से लौटकर आजतक लौटा। कानपुर की पैदाइश और लखनऊ की परवरिश की वजह से फितरतन थोड़ा बेबाक और बेलौस भी हूं। खेल से पत्रकारिता का सिलसिला शुरू हुआ था लेकिन अब तमाम विषयों को छूना और फिर उस पर खबर लिखना शौक बन चुका है। मौजूदा वक्त में DAYITVA के सफर पर हूं बतौर Editor एक जिम्मेदारी का अहसास है।

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