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Bhopal Gas Tragedy: दिसंबर का महीना पूरे भारत में अमूमन ठंड का ही होता है। ऐसे में सर्द रात ठंडी हवा लोगों को घरों में दुबका देती है। कुछ यही हाल 2 दिसंबर 1984 का था। 2 दिसंबर इतवार की वो रात शुक्ल पक्ष दसवीं की रात थी। चांद अपनी पूरी कलाओं को बिखेरने की तैयारी में था। ठंडी हवा चल रही थी और रात के अंधेरे में भी सब साफ नजर आ रहा था। इस उजियारी रात को काली होते वक्त नहीं लगा। देश के दिल मध्य प्रदेश की राजधानी यानी भोपाल में काली घाटी के मैदान से ये रात घनघोर काली हो गई। आज भी जब इस घटना की की चर्चा होती है तो लोग सिहर जाते हैं। जो उस दौर में जन्मा भी ना हो वो उस दौर को जीने लगता है और बात जब सियासतदानों की होती है तो उनकी बेपरवाही पर क्रोध भी आता है।
भोपाल की स्याह काली रात
भोपाल की सड़कें मातमी हो गईं थी। लाशें बस्ती में ऐसे पसरी थीं जैसे पतझड़ के बाद जमीन पर पत्तों का ढेर बिछा हो। आज भी जब किसी को काली रात का उदाहरण देना होता है तो लोग कहते हैं काली रात क्या होती है? यह जानना है तो भोपाल के उन लोगों से पूछो जिन्होंने 2-3 दिसंबर 1984 की वो रात देखी है। 2 और 3 दिसंबर की रात भोपाल के इतिहास में सबसे स्याह काली रात थी। क्योंकि, ये रात भोपाल गैस त्रासदी की रात थी।
138 साल पहले शुरू होती है कहानी…
कहानी शुरू होती है…आज से करीब 138 साल पहले। भारत में ब्रिटिश उपनिवेश का शासन चल रहा था। अमेरिका को आजाद हुए 117 साल हो गए थे। US तरक्की की राह में आगे बढ़ रहा था। ऐसे में 1886 में अमेरिका के वर्जीनिया-कनावा घाटी में एक कंपनी बनती है। इसका नाम कार्बन कंपनी रखा जाता है। कुछ ही सालों में कंपनी का कारोबार तेजी से बढ़ने लगा। 1890 आते-आते कार्बन कंपनी ने ‘एवरेडी’ की शुरुआत कर दी। ‘एवरेडी’ वही जिसे आप हम बैटरियों के लिए जानते हैं। थोड़े ही वक्त में कंपनी ने चाइना में अपना प्रोडक्शन शुरू कर दिया। कंपनी की नजर अब भारत पर थी। अंग्रेजी सरकार से बात बनी और साल 1905 में बतौर नेशनल कार्बन कंपनी लिमिटेड ने हिंदुस्तान में एंट्री ले ली।
भारत में पहला कारखाना
शुरुआत में तो कार्बन कंपनी भारत में इंपोर्ट किए हुए सेल बेचती थी। 20 जून 1934 को पश्चिम बंगाल के कोलकाता में कंपनी ने पहला कारखाना शुरू किया। इस बीच कंपनी में कई बदलाव हुए और साल 1917 में यूनियन कार्बाइड के साथ मर्जर कर नई कंपनी का जन्म होता है जिसे ‘यूनियन कार्बाइड और कार्बन कॉर्पोरेशन’ नाम दिया गया। आम बोलचाल में इसे यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन कहा जाता था। मर्जर के बाद बनी नई कंपनी ने फसलों को बचाने के लिए कीटनाशक बनाने का काम शुरू किया था। खैर भारत में अभी भी कंपनी बैटरियों तक सीमित थी। कंपनी की कार्बाइड बैटरी चालित लैम्प भारतीय गांवों में बेहद प्रिय थे।
दुनिया में आ गया था सेविन
कंपनी का कारोबार ठीक ही चल रहा था। इस बीच 15 अगस्त 1947 भारत को आजादी मिल गई। अभी भी यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन को कोई दिक्कत नहीं हो रही थी। वो भारत सरकार के साथ तालमेल बनाकर काम कर रही थी। वहीं दूसरी तरफ अमेरिका में मूल कंपनी ने 1957 में गजब का रसायन बना दिया जो मच्छर, मक्खी तो ठीक छिपकली को भी मार डालता था। इसे सेविन नाम के केमिकल के सहयोग से बनाया जाता था। सेविन बनने के दौरान फॉस्जीन नाम की गैस उत्पन्न होती थी। इसे जब वैज्ञानिकों ने मोनो-मिथाइल-अमीन से प्रतिक्रिया कराई तो इससे बनकर आई MIC यानी मिथाइल आइसोसाइनेट।
40 देशों तक पहुंचा जहर
मिथाइल आइसोसाइनेट ऐसी गैस, जिसे सूंघने से ही इंसान की मौत हो जाए। दो बूंद पानी पड़ जाए तो ये विस्फोटक बन जाए। खैर अभी तक इस रसायन के खतरे गुप्त थे। कंपनी ने इसे सेविन नाम से बाजार में बेचना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे करीब 40 देशों तक इसने अपनी पहुंच बना ली। इसी बीच अमेरिका में एक और घटना हुई। कृषि वैज्ञानिक नॉर्मन बॉरलॉग ने मक्के की एक प्रजाति बनाई, जो भारी उपज देती है। दुनिया में धान के भी आधुनिक बीज बन गए थे। इन बीजों और यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन के कीटनाशकों के तालमेल से दुनिया में फसलों की उपज बढ़ने लगी। भारत में भी कुछ हद तक इन्हें आयात कर बुआई की जाती थी। हालांकि, अभी कीटनाशक हिंदुस्तान में नहीं पहुंच पाया था।
हरित क्रांति ने खोले दरवाजे
ऐसे करते-करते 1964 का साल आ गया। 27 मई 1964 को भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का निधन हो गया। देश के सत्ता की कमान 9 जून 1964 को लाल बहादुर शास्त्री को सौंप दी गई। उनके आने के साथ ही पंजाब के खेत नई और वैज्ञानिक फसलों से हरे-भरे होने लगे। इसी कारण 1965 आते-आते भारत में हरित क्रांति आ गई। कृषि उत्पादन में तेजी से बढ़ रहा था। बेहतर सिंचाई और उर्वरकों के प्रयोग के गेहूं और मक्के की फसल को बढ़ावा मिला। देखते ही देखते पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, और तेलंगाना के खेत बंपर पैदावार देने लगे।
इन विदेशी बीजों के साथ भारत में फसलों की बीमारी भी आई। किसानों को परेशानी होने लगी। इन फसलों में लगने वाले कीड़े उन दिनों भारत में पारंपरिक रूप से उपयोग किए जाने वाले DDT और HCH जैसे घिसे-पिटे कीटनाशकों से मरते ही नहीं थे। ऐसे में कीट नाशक भी अमेरिका और अन्य देशों से आने लगे। इसमें यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन का बनाया प्रोडक्ट भी था। किसानों को इससे लाभ होने लगा। मांग बढ़ी तो ‘सेविन’ को भारत से निमंत्रण भी मिल गया।
भारत में यूनियन कार्बाइड की नजर
भारत में कंपनी के उत्पाद पहले से मौजूद थे। इसी कारण अमेरिका में सेविन बनाने वाली कंपनी यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन को भारत में अपने अंपायर को विस्तार देने की राह दिखने लगी। सरकार से बात शुरू हुई और 1966 के आखिरी दौर में दिल्ली के अशोका होटल में एक बैठक का आयोजन हुआ। यहां कंपनी का जमकर स्वागत हुआ। आनन-फानन में अफ्रीका जा रहे सेविन के लॉट को मुंबई के बंदरगाह में उतार लिया गया। अब कंपनी भारत में कारखाना खोलने के लिए जुगाड़ बैठाने में लगी थी। देश में वैश्वीकरण बेहतर तरीके से हुआ नहीं था। इस कारण कंपनी को सीधे कारखाना खोलने की इजाजत मिलना आसान नहीं था।
डोमिनिक लैपियर ने लिखा वाकया
यूनियन कार्बाइड के एडवर्ड मुनोज महीनों से भारत में कारखाना खोलने के लिए लगे हुए थे। इस बीच जून 1967 में उनके ऑफिस में एक व्यापारी संतोष दीनदयाल पहुंचता है। उनके बीच हुई बातों को डोमिनिक लैपियर ने भोपाल पर लिखी अपनी किताब में कुछ इस तरह लिखा-
संतोष दीनदयाल- मैं संतोष दीनदयाल। कृष्ण का भक्त हूं। पेट्रोल पंप से लेकर सिनेमा हॉल कई बिजनेस हैं। मालूम हुआ आपको फैक्ट्री लगवानी है?
एडवर्ड मुनोज- सिगार पिओगे?
संतोष दीनदयाल- हां जी! सिगार भी पियेंगे, फैक्ट्री भी लगवाएंगे।
एडवर्ड मुनोज- ये कैसे होगा? विदेशी नागरिक को तो इसकी इजाजत नहीं है।
संतोष दीनदयाल- अरे साहब, आपकी सेवा में बंदा है। मैं अर्जी डालता हूं, आप तो बस प्रॉडक्ट भेजो और कारखाने लगाओ। पार्टनरशिप, नाम मेरा होगा। पैसा प्रॉफिट आपका, हमें तो बस कमीशन मिल जाए।
एडवर्ड मुनोज- तो फैक्ट्री कहां लगेगी।
संतोष दीनदयाल- हिंदुस्तान के दिल में ही फैक्ट्री लगेगी। यानी भारत के केंद्र भोपाल में।
अमेरिकी अधिकारी चौंक गया। जिस काम के लिए वह 6 महीने से दिमाग लगा रहा था वो मौका उसके पास खुद चलकर आ गया। संतोष दीनदयाल के कॉन्फिडेंस को देखने के बाद एडवर्ड मुनोज ने अपनी गाड़ी निकाली और भोपाल के लिए रवाना हो गया। भोपाल रेलवे स्टेशन के पास स्थित काली मैदान के किनारे खड़े होकर वो उसे देखने लगे। वो जगह उसे पसंद आ गई।
इधर मध्य प्रदेश में चल रहा था खेल
मध्य प्रदेश में 8 मार्च 1967 को कटंगी से जीतकर आए द्वारका प्रसाद मिश्र ने बतौर मुख्यमंत्री दूसरा कार्यकाल शुरू कर दिया था। हालांकि करीब 5 महीने बाद उनके मंत्री ही बागी होने लगे। बगावत की बयार चली तो तत्कालीन सरकार में मंत्री और रामपुर-बघेलान के विधायक गोविंद नारायण सिंह भी बागी हो गए। बागी भी ऐसे हुए की कांग्रेस से इस्तीफा देकर उन्होंने अपनी नई पार्टी बना डाली। उन्हें इतने में संतोष नहीं था। कुछ समय के अंदर ही उन्होंने ‘संयुक्त विधायक दल’ के नाम से गठबंधन बनाया और द्वारका प्रसाद मिश्र का तख्ता पालटकर 30 जुलाई 1967 को खुद मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए। उनका कार्यकाल 12 मार्च 1969 रहा। इसके बाद उन्होंने कांग्रेस में वापसी कर ली।
अब सवालों में CM से तालुकात
अब कहानी फिर से संतोष दीनदयाल पर आती है। इस बात की कोई खास पुष्टि नहीं होती है कि संतोष दीनदयाल की मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह से क्या सेटिंग थी। पर उनके CM बनते ही संतोष दीनदयाल को भोपाल के काली मैदान की वो 5 एकड़ जमीन अलॉट हो जाती है जिसपर एडवर्ड मुनोज ने नजर फेरी थी। कंपनी ने यहां अपना छोटा सा कारखाना खोला और अमेरिका से मंगाई सेविन को भोपाल में पैक कर बाजार में उतारना शुरू कर दिया। अब यूनियन कार्बाइड भारत में उत्पादन के लिए कोशिश में लगी थी। कुछ सालों में कंपनी को भोपाल में 5 हजार टन सेविन बनाने की मंजूरी मिल गई।
अमेरिकी प्रबंधन ने किया था सतर्क
सेविन बनाना खतरनाक था। अमेरिका में स्थित मदर कंपनी को इसका अंदाजा था कि भोपाल की छोटी से फैक्ट्री में इसे बनाना ज्वालामुखी की तरह हो सकता है। इस कारण भारत में कंपनी प्रबंधन को सतर्क किया गया और दूसरी साइट खोजने की सलाह दी गई। हालांकि, इसकी तलाश कभी पूरी नहीं हो पाई। उसी छोटी सी फैक्ट्री को विकसित करने की तैयारी हो गई। काली मैदान की घनी बस्तियों के इलाके में ही MIC के टैंक रखे जाने लगे। फैक्ट्री बनने का काम चालू था। चारों तरफ घनी बस्ती और एक तरफ से रेलवे की लाइन। कई बार प्लेटफार्म खाली न होने पर ट्रेन यहीं रुक जाया करती थी।
आपातकाल में मिला लाइसेंस
भोपाल में फैक्ट्री का काम चल ही रहा था कि 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लग जाता है। अप्रत्यक्ष तरीके से संजय गांधी सरकार का काफी काम देखने लगते हैं। उन्होंने देशभर में बुलडोजर कार्रवाई कर अवैध बस्तियों को हटाने का काम शुरू किया। भोपाल के काली मैदान में भी बुलडोजर पहुंचते हैं लेकिन यहां रहने वालों ने अपने आशियाने बचाने के लिए गजब की जुगत लगाई। इससे उनके मकान तो बच गए लेकिन उन्होंने जैसे अपनी कब्र खोद ली। काश उस रोज मकान टूट जाते तो वे लोग कहीं जाकर किसी तरह जीविका चला ही लेते। जुगत ये थी कि बस्ती वालों ने अपने इलाके का नाम ही संजय गांधी बस्ती रख दिया जिस कारण बुलडोजर कार्रवाई हो नहीं पाई। इधर बस्ती वाले अपना आशियाना बचाकर खुश थे उधर यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री भी बनकर तैयार हो चुकी थी।
आपातकाल में ही अक्टूबर, 1975 में कंपनी को MIC का उत्पादन का लाइसेंस दे दिया गया। यूनियन कार्बाइड को जिस तरह से कारखाना खोलने की इजाजत मिली, उसके बाद उन्हें भारत में ही सेविन बनाने की अनुमति भी मिल गई। कारखाने और उसके स्ट्रक्चर पर भी सरकार और प्रशासन ने कोई ध्यान नहीं दिया। कंपनी ने तमाम सुरक्षा मानकों को ताक पर रख अपने कारखाने में सेविन बनाने का काम शुरू कर दिया। इस बीच लीकेज की छोटी घटनाएं हुईं, लेकिन उन्हें इग्नोर कर दिया गया। 1982 में सरकार, कंपनी, बस्ती वालों और प्रशासन के पास तमाम गलतियों को सुधारने का अवसर था, लेकिन कहते हैं काल सामने हो तो कोई क्या ही कर सकता है।
घटना के 2 साल पहले का अलर्ट
अब तक भोपाल में पड़ी खतरनाक गैस के बारे में काफी कुछ साफ हो चुका था। अमेरिका से एक टीम मई 1982 में भोपाल आई। पूरी टीम यहां की व्यवस्था से नाखुश थी। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि यहां से कभी भी गैस लीक हो सकती है। इस रिपोर्ट में सभी कारण भी बताए गए थे। रिपोर्ट पत्रकारों तक पहुंची तो खबर बन गई। बवाल खड़ा हुआ तो सरकार ने विधानसभा में कह दिया कि कार्बाइड फैक्ट्री से कोई भी खतरा नहीं है। फॉस्जीन कोई जहरीली गैस ही नहीं है। इस बीच बढ़ते राष्ट्रीयकरण के कारण भारतीय जगन्नाथन मुकुंद को प्रबंधक बना दिया गया।
डूबती नाव बन गई थी यूनियन कार्बाइड
जब जगन्नाथन मुकुंद डायरेक्टर बने तो देश सूखे से जूझ रहा था। ऐसे में कंपनी का काम भी कम होने लगा और कारोबार डूबने लगा। हरित क्रांति का बुलबुला फूट चुका था। नतीजा ये हुआ कि कंपनी ने कॉस्ट कटिंग शुरू कर दी। धीरे-धीरे मिथाइल आइसोसाइनेट का उत्पादन भी रोक दिया गया। कंपनी घाटे में थी। ऐसे में उसने अपने कर्मचारियों की संख्या भी 2000 से घटाकर करीब 600 कर दी। अच्छे इंजीनियरों ने भी डूबती कंपनी से किनारा कर लिया। साल 1983 आते-आते कंपनी बस रेंग रही थी। अब भी टैंकरों में मिथाइल आइसोसाइनेट पड़ी हुई थी। कर्मचारियों की कमी के कारण इस बंद पड़ी यूनिट की देखरेख और सुरक्षा कम कर दी गई। इस खतरे को भाप नवंबर 1984 में पत्रकार राजकुमार केसवानी ने एक रिपोर्ट छापी, लेकिन समय से इसपर भी कोई कार्रवाई नहीं हो पाई।
2 दिसंबर की उस रात में हुआ क्या था?
इन तमाम लापरवाहियों, और मंदे धंधे में लाभ कमाने की होड़ के बीच वो रात आ गई। 2 दिसंबर 1984 दिन रविवार था। शुक्ल पक्ष की दसवीं तिथि को रोज के मुकाबले चांद की चमक ज्यादा थी। काली मैदान की फैक्ट्री में मोहनलाल वर्मा अपने साथियों के साथ काम पर पहुंच गए थे। इसी बीच रात 11 बजे के आसपास उनको कुछ गंध आई। उन्होंने अपने साथियों से बात की लेकिन सभी ने इसे नजरअंदाज कर दिया। जब गंध लगातार बढ़ती गई और आंखों में जलन होने लगी तो कुरैशी नाम के कर्मी ने दो अन्य साथियों को पाइप देखने के लिए भेजा। जब उन्होंने पाइप में गैस लीक होने और प्रेशर बढ़ने की बात कही तो कुरैशी ने पानी की पाइप बंद करने को कहा ताकी प्रेशर कम हो जाए। इसके बाद सभी लोग चाय पीने लगे।
इस बीच फैक्ट्री सुपरवाइजर सुमन-डे टैंकर के पास पहुंचे और पाइप का हाल देखा। उनकी नजर प्रेशर मीटर पर गई तो टैंक का प्रेशर 2 PSI से 30 PSI तक पहुंच चुका था। वह दौड़कर आए और कुरैशी को इसकी जानकारी दी। जब तक कुरैशी वहां पहुंचते टैंक का प्रेशर 50 PSI तक पहुंच गया था। आनन-फानन में फायर ब्रिगेड को बुलाया गया। गाड़ी भी तत्काल आ गई लेकिन टैंक उसकी पहुंच से दूर था। अब कर्मचारियों को काल सामने दिखाई देने लगा था। फैक्ट्री को तुरंत खाली करा लिया गया। सभी वहां से भाग गए लेकिन फैक्ट्री से बाहर निकलकर गैस ने बस्ती में तांडव मचाना शुरू कर दिया था।
फैक्ट्री में रखी जहरीली मिथाइल आइसो सायनाइड गैस के मुंह अब पानी लग चुका था। रासायनिक प्रक्रिया के कारण दबाव बढ़ता गया और टैंक खुलते गए। हवा में अब जहर घुल गया था। जो काली मैदान के साथ ही आसपास के इलाके में काल को रास्ता दिखा रहा था। बस्ती में लोग सुकून की नींद सोए हुए थे। वो जाग पाते इससे पहले मौत ने उन्हें अपनी आगोश में ले लिया। कहते हैं जिंदा को मुर्दा होने में 3 मिनट का भी समय नहीं लग रहा था। धीरे-धीरे करके गैस का तांडव रेलवे स्टेशन तक पहुंच गया था। बस्ती से लेकर स्टेशन तक पत्तों की तरह लाशें बिछ गईं थी।
मरने लगी थी इंसानियत
उस उजियारी रात में अंधेरा छा गया। वहां केवल लोगों की मौत नहीं हो रही थी। सियासी जिम्मेदारी का कत्ल तो पहले ही हो चुका था। अब भोपाल में ममता, प्रेम और इंसानियत भी मरने लगी थी। उस रात मां बच्चों को और बच्चे बूढ़े मां-बाप तक को काल के गाल में छोड़कर भाग रहे थे। ऐसा नहीं कि भोपाल में ये सब कुछ अचानक हुआ था। तीन साल पहले ही मौत ने दरवाजा खटखटा दिया था। जब, 1981 में एक कर्मी की गैस के संपर्क में आने से मौत हो गई थी। हालांकि, सरकार ने तमाम रिपोर्ट और शिकायतों के बाद इसे अनसुना कर दिया था।
रात को 12 बजे के बाद अब कैलेंडर में 3 दिसंबर आ गया था। अभी सूरज उगा नहीं था। खैर उगता भी तो क्या? भोपाल में तो काली रात आ गई थी। सूरज उगने से पहले भोपाल की हमीदिया अस्पताल में हजारों की भीड़ जमा हो गई थी। इसमें तो ज्यादातर मुर्दे थे। इलाज मिलने से पहले ही लोग दम तोड़ते जा रहे थे। भोपाल अब त्रासदी की चपेट में था। कुछ सरकारी फरमान देने के बाद मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह भी भोपाल छोड़कर चले गए थे। हालांकि, बाद में अपनी किताब में उन्होंने सफाई देते हुए बताया था कि वो इलाहाबाद के गिरजाघर में प्रार्थना करने के लिए गए थे।
त्रासदी कम हुई तो आए भयानक आंकड़े
3 दिसंबर जैसे-जैसे बीत रहा था। त्रासदी का असर कम हो रहा था। हालांकि, अस्पतालों में लाशों की जखीरा लग गया था। चारों ओर चीख, पुकार, बदहवासी फैल गई थी। हालात ऐसे हो गए थे कि ट्रकों, जीपों से लाउडस्पीकर से मुनादी कराई जा रही थी की साहेब लाश उठाने वालों की जरूरत है फौरन हमीदिया पहुंच जाइये। 2 दिसंबर की रात से शुरू हुआ तांडव 3 दिसंबर तक चला। इसमें तत्काल 2660 लोगों की मौत हो गई। कुछ दिनों बाद सरकार ने आंकड़े जारी किए इसमें 3,787 लोगों की मौत बताई गई। हालांकि, सालों बाद कोर्ट में ये सरकारी आंकड़ा 15 हजार को पार कर गया। खैर ये तो सरकारी नंबर हैं। सामाजिक कार्यकर्ता दावा तो यहां तक करते हैं कि इस घटना में 33 हजार लोग मारे गए थे।
कंपनी प्रबंधन को रॉयल ट्रीटमेंट
3 दिसंबर के बाद त्रासदी कम हो गई। कई दिनों तक भोपाल में अफरा-तफरी मची रही। कंपनी के प्रबंधक जगन्नाथ मुकुंद को पुलिस ने तलब किया और सायनाइड बनाने के बारे में जानकारी ली। पता चला कि फैक्ट्री में सायनाइड तो नहीं बनती है पर वहां मौजूद गैसें, हवा, पानी के संपर्क में आने से सायनाइड में जरूर बदल जाती हैं। इस बीच कंपनी का CEO वारेन एंडरसन भारत आता है। यहां उसे रॉयल ट्रीटमेंट देकर हिरासत में रखा जाता है और कुछ ही समय में 25 हजार रुपये के मुचलके पर रिहा कर दिया जाता है। वारेन एंडरसन ने अपनी वो साइट भी नहीं देखी जहां, इतना भयंकर हादसा हुआ था।
आज तक समस्याएं जारी
भोपाल गैस कांड का मामला भारत से लेकर अमेरिका तक सुर्खियों में छाया रहा। इस त्रासदी से करीब पांच लाख लोग प्रभावित हुए। आंकड़े बताते हैं कि भोपाल गैस कांड के असर से अब तक 25 हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। लाखों लोग इसकी जद में आए हैं। 3 दिसंबर 1984 की घटना से फैली बीमारियां पीढ़ी दर पीढ़ी ट्रांसफर हो रही हैं। भोपाल के जेपी नगर, बस स्टैण्ड, नारियल खेड़ा, छोला, इब्राहिम गंज, जहांगीराबाद इलाकों में आज भी बच्चे बीमार हो रहे हैं या शारीरिक और मानसिक बीमारी के साथ पैदा हो रहे हैं। कोरोना काल में भी इसका असर दिखा और गैस पीड़ितों की कमजोर इम्यूनिटी ने उन्हें मौत का रास्ता दिखा दिया।
कचरा साबित हो रहा खतरनाक
भोपाल के हादसे के बाद पीड़ितों को सुविधा और उनका हक दिलाने के लिए कई संगठन बने और सड़क से लेकर सरकार और कोर्ट तक उनकी लड़ाई लड़ी। कुछ संगठनों ने भोपाल की जमीन से खूनी कंपनी के निशान को खत्म करने के लिए भी लड़ाई लड़ी। साल 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने कचरे को वैज्ञानिक तरीके से हटाने के आदेश दिए। साल 2015 तक करीब 347 मीट्रिक टन कचरे में से महज 10 मीट्रिक टन कचरा ही ठिकाने लगाया जा सका। साल 2015 में 10 मीट्रिक टन कचरे को बतौर ट्रायल जलाया गया था। इससे पैदा हुई राख को इंदौर के पीथमपुर में दफना दिया गया। कई रिपोर्ट बताती हैं कि जहां ये राख दफन हुई थी। इससे 8 किलोमीटर के एरिया में भूजल दूषित हो गया है। 50 बीघा से अधिक खेत पूरी तरह से बंजर हो गए हैं।
337 मीट्रिक टन कचरा लगाना है ठिकाने
भोपाल में अभी भी कंपनी का 337 मीट्रिक टन कचरा पड़ा है, जिसे ठिकाने लगाने का काम बाकी था। कचरे को 12 कंटेनर में भरकर एक साथ फिर से इंदौर के पीथमपुर पहुंचा दिया गया। 30 दिसंबर 2024 से इस इसके लिए 250 किलोमीटर का ग्रीन कॉरिडोर भी बनाया गया था। बताया जा रहा है कि जिस कंपनी को इस कचरे को नष्ट करने का टेंडर मिला है वो भस्मक के सहारे हर दिन करीब 2 टन कचरे को जलाएगी। इसका इंदौर और पीथमपुर के लोग विरोध भी कर रहे हैं। इस बात की आशंका बढ़ गई है कि भोपाल के सीने का जहर क्या पीथमपुर (इंदौर) को तबाह करने वाला है। क्योंकि, इस संबंध में पहले भी बाबूलाल गौर, जयंत मलैया समेत कई संगठनों ने विरोध किया था। सरकारी रिपोर्ट भी बताती हैं कि यहां की उपज 98 फीसदी तक घट गई है। इसी कारण इस बार भी पीथमपुर के लोग इसका विरोध कर रहे हैं।
5 तरह का है कचरा
- मिट्टी: फैक्ट्री में बिखरी कचरे की मिट्टी को इकट्ठा किया गया है।
- रिएक्टर अवशेष: कीटनाशक एक रिएक्टर से बना था। इसके बचे केमिकल को एकत्रित किया गया है।
- सीवन अवशेष: सीवन ही कीटनाशक था। इसके कचरे को अलग से पैक किया गया है।
- नेप्थॉल अवशेष: जहां गैस का रिसाव हुआ था। वहां नेप्थॉल बनाई जाती थी। परिसर में ये अभी भी थी।
- बचा हुआ केमिकल: कीटनाशक बनाने की प्रक्रिया रुक जाने के बाद बचा हुआ केमिकल।
हाईकोर्ट ने दिया था आदेश
सरकार ने ये फैसला इस कारण भी लिया है कि 2012 में आए कोर्ट के आदेश से लेकर अभी तक कचरे को लेकर कोई ठोस फैसला नहीं हो पाया था। इसके बाद एक याचिका की सुनवाई करते हुए 3 दिसंबर 2024 को कोर्ट ने फिर से एक आदेश दिया था जिसमें इस कचरे को शिफ्ट करने के लिए 4 हफ्ते का समय दिया गया था। कोर्ट ने साफ कहा ‘हमें समझ नहीं आता सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के निर्देशों के बाद भी कचरे को हटाने का काम शुरू क्यों नहीं हुआ, जबकि 23 मार्च 2024 की योजना पर काम किया जाना था।’ 6 जनवरी को हाई कोर्ट में अगली सुनवाई की तारीख देते हुए सरकार को चेतावनी दी थी कि अगर इस फैसले पर अमल नहीं हुआ तो इसे कोर्ट की अवमानना माना जाएगा।
कैसे किया जाएगा नष्ट
पीथमपुर में कचरे को नष्ट करने के खास तरीके की भट्ठी बनाई गई है। जानकारी के अनुसार, इसमें 90 किलोग्राम कचरा हर घंटे जलाया जाएगा। इस प्रक्रिया में करीब 153 दिन यानी 5 महीने लगेंगे। अगर कचरा जलने के बाद भी जहरीला नजर आता है तो इसे जलाने की प्रक्रिया को धीमा कर दिया जाएगा। कचरे को जलाने के बाद राख का वैज्ञानिक परीक्षण होगा। इस जांच में अगर ये सुरक्षित मालूम होती है तो इसको खास तौर पर बने लैंडफिल साइट में डंप कर दिया जाएगा। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान कर्मचारियों के स्वास्थ्य और सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा जाएगा। यहां हर समय मेडिकल सुविधा रहेगी।
एक अधिकारी ने मीडिया से बात करते हुए जानकारी दी की भस्मक से निकलने वाले धुएं को कई बार फिल्टर किया जाएगा। वह कुल चार बार विशेष फिल्टर से गुजरेगा जिससे हवा खराब न हो पाए। हानिकारक तत्वों से मुक्त होने के बाद राख को दो परतों वाली मजबूत ‘झिल्ली’ से ढका जाएगा। इसके बाद इसे लैंडफिल में दफनाया जाएगा जिससे वह मिट्टी और पानी के संपर्क में न आए। सारी प्रक्रिया पूरी होने के बाद राज्य और केंद्र के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की निगरानी में विस्तृत रिपोर्ट बनाई जाएगी जिसे हाईकोर्ट को सौंपा जाएगा।
कचरा जलाने में लगने वाला समय
- 90 किलोग्राम प्रति घंटे की स्पीड से कचरा जलेगा
- इस प्रक्रिया में 153 दिन यानी 5 महीने 1 दिन लगेंगे
- अगर 270 किलोग्राम प्रति घंटे की स्पीड मिलती है तो 51 दिन लगेंगे
- पहले खेप की जांच के बाद प्रक्रिया धीमी होती है तो समय बढ़ जाएगा
पहले भी हुए हैं प्रयास
ऐसा नहीं है कि भोपाल के इस जहर को ठिकाने लगाने की कोशिश कोई पहली बार हो रही है पीथमपुर ही एक मात्र विकल्प बचा था। इससे पहले भी कोर्ट के आदेश और सरकारों की बातचीत के बाद इस कचरे को कई जगहों पर जलाने के लिए सहमति बनी थी लेकिन स्थानीय विरोध के कारण मामला ठंडे बस्ते में जाता रहा है।
- 2007 गुजरात के अंकलेश्वर में कचरा जलाने की बात हुई, लेकिन विरोध के कारण सरकार ने NOC नहीं दी।
- 2009 में हैदराबाद के डुंगीगल और मुंबई के तलोजा में भी कचरे को जलाने के लिए सर्वे किया गया।
- 2011 में नागपुर में कचरा भेजने की चर्चा हुई। हालांकि, विरोध के कारण ये संभव नहीं हो पाया।
- फरवरी 2012 में जर्मनी की कंपनी ने 54 करोड़ में इसे हैम्बर्ग ले जाने के लिए ऑफर दिया।
- जर्मनी में विरोध के कारण वहां की कंपनी को भी पीछे हटना पड़ा।
इंदौर में भी होता रहा है विरोध
पीथमपुर में ये कचरा पहली बार नहीं पहुंचा है। इससे पहले भी 2015 में यहां कचरा जलाया गया था। इसी को देखते हुए अगस्त 2024 में नगर पालिका परिषद इसके विरोध में सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पास किया था। वहीं कांग्रेस ने भी इसका पूरा विरोध किया है। पूर्व मंत्री सज्जन सिंह वर्मा व प्रदेश अध्यक्ष जीतू पटवारी ने यहां तक कहा कि हम इंदौर को किसी भी हाल में भोपाल नहीं बनने देंगे। इन तमाम विरोध के बाद भी सरकार ने पीथमपुर में कचरा जलाने का फैसला लिया और उसे अब वहां भेज दिया गया है। ऐसा नहीं है कि ये कोई सस्ता काम है। इस कचरे को ठिकाने लगाने में भी भारी खर्च आने वाला है। इसे लेकर PCB ने एक रिपोर्ट जारी की है।
कचरा जलाने में आने वाला खर्च
- घातक कचरा सीधे नहीं जल सकता
- इसे केमिकल मिलाकर न्यूट्रलाइज किया जाएगा
- इस प्रक्रिया में भारी मात्रा में राख निकलती है
- पिछली बार 10 टन कचरे की राख 40 टन निकली थी
- 337 टन कचरे से करीब 1600 टन राख बनेगी
- सरकार ने इसके लिए 126 करोड़ रुपये तय किए हैं
- यानी एक टन कचरे को ठिकाने लगाने के लिए करीब 37 लाख खर्च होंगे
इंदौर के भोपाल होने की आशंका क्यों?
अब भोपाल के सीने का जहर इंदौर पहुंच गया है। पीथमपुर में इसे 2015 की तरह जलाया जाना है। हालांकि, पिछले ट्रायल से सीख लेने के बाद इस बार ज्यादा सावधानी बरती जा रही है और नई तकनीक का उपयोग भी किया जा रहा है। इसके बाद भी लोगों में खतरे की आशंका बनी हुई है। इसका कारण 2015 से लेकर अभी तक यहां बढ़ी समस्याएं हैं। स्थानीय किसानों की जमीन बंजर हो गई है। कई किलोमीटर तक उत्पादन घट गया है। वहीं पास के नाले के दूषित होने के कारण लोगों में बीमारियां भी बढ़ी हैं। पिछली बार कचरे की मात्रा सीमित थी। इस बार ये भारी मात्रा में है। इसी कारण खतरे की आशंका भी पहले से कहीं ज्यादा है।
- 2015 में यूनियन कार्बाइड का 10 टन कचरा ट्रायल के तौर पर जलाया गया था।
- कचरा जलाने वाली जगह की 50 बीघा जमीन बंजर हो गई है।
- पास के नाले में दूषित लाल पानी आता है। जो जमीन में जाता है जिससे भू-जल दूषित हो गया है।
- 8 किलोमीटर दूर तक के किसानों की फसलें अभी भी प्रभावित होती है।
- सरकार की अनावरी रिपोर्ट से जाहिर है कि इलाके में 98% उत्पादन घट गया है।
- नाले और बोरवेल के पानी के कारण सिंचाई प्रभावित हो रही है।
- स्थानीय लोगों में 9 साल के भीतर स्किन इंफेक्शन, श्वांस संबंधी बीमारियां बढ़ी हैं।
तमाम आशंकाओं के बीच अब ये तय है कि कचरे को पीथमपुर में ही जलाकर दफन किया जाएगा। इसमें करीब 37 लाख रुपये एक टन की निष्पादन में खर्च होंगे और इसके पूरी तरह निस्तारण में कम से कम 5 महीने का समय लगेगा। अगर बीच में कुछ समस्याएं आती हैं तो ये समय और भी बढ़ सकता है। एक तरह भोपाल की फैक्ट्री के आसपास रहने वाले इससे राहत की सांस ले रहे हैं तो इंदौर के पीथमपुर में टेंशन बढ़ी हुई है। ये मानकर चलिए कि कम से कम 5 महीने तो लोगों की सांसे थमी रहने वाली हैं। भोपाल के सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि मुख्य खतरा तो जमीन के नीचे दबे मलबे से है। जो यहां से महज एक फीसदी ही हटाया जा रहा है। ऐसे में इसे इंदौर में ट्रांसफर कर कहीं उसे उसे छोटा भोपाल बनाने की ओर तो हम कदम नहीं रख रहे हैं।