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-गोपाल शुक्ल
आपको शोले फिल्म का गब्बर सिंह याद है। वही मशहूर डाकू जिसकी दहशत 50-50 कोस दूर गांवों तक फैली हुई थी। वो तो असल में एक फिल्मी डाकू था। पर आज हम आपको वहां लेकर चलेंगे जहां का नाम सुनते ही अच्छे अच्छों को पसीना आ जाता है। ये वो जगह है जहां गब्बर सिंह सरीखे सैकड़ों डाकू वहां की मिट्टी में पलकर बड़े हुए। वहां की गोदी में खेलकर बागी बने। चंबल का नीला पानी जिनकी रगों में लाल खून के साथ दौड़ा। जहां की हवा में बागियों के गोलियों की गंध आज भी महसूस की जा सकती है।
चंबल के बीहड़ को बेताब सैलानियों का इंतजार
चंबल के जिस बीहड़ का नाम सुनकर लोगों की रुह फनां हो जाती थी। जिस बीहड़ के किस्से 50 कोस दूर गांव के लोगों को भी दहशत में डाल दिया करते थे। चंबल की जिस बीहड़ घाटी में जाने से लोगों का खून सूख जाया करता था, आज उसी बीहड़ को देखने के लिए हजारों या लाखों सैलानी बेताब नज़र आने लगे हैं।
60 और 70 के दशक में जब चंबल के इस बीहड़ में डाकू मलखान सिंह, माखन सिंह, मोहर सिंह, मानसिंह, डाकू पान सिंह तोमर, पुतलीबाई, मुन्नी बाई, फूलन देवी, और सुल्तान सिंह जैसे डकैतों की तूती बोला करती थी। वही बीहड़ अब नेशनल टूरिस्ट हब बनने के रास्ते पर खड़ा है। सालों साल तक एक से बढ़कर एक खतरनाक डाकू की दहशत से कांपने वाली चंबल की घाटी मौज मस्ती और हंसी ठहाकों से गुलजार होने जा रही है। लेकिन अब यहां सैलानियों की बहार आने वाली है।
जहां मिलती थी बागियों को पनाह, वो जगह हो रही गुलजार
राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश के बीच बहने वाली चंबल नदी की बीहड़ घाटी करीब 16 किलोमीटर के दायरे में फैली हुई है। एक जमाना था जब समाज और सिस्टम के खिलाफ बंदूक उठाने वाले बागियों को पनाह दिया करती थी, आज वही घाटी दुनिया भर के सैलानियों को अपनी तरफ खींचने के लिए तैयार हो रही है। जिस नदी के इर्द गिर्द कभी डकैतों के बसेरे हुआ करते थे, जहां दिन दहाड़े लूट और हत्या जैसी वारदात का होना बेहद मामूली बात थी। उसी नदी के इर्द गिर्द अब देसी विदेशी चिड़ियों और जानवरों को बसाने की तैयारी हो गई है। जिस नदी में कभी चंबल के खूंखार डाकू डुबकी लगाया करते थे उसी चंबल नदी को अब डॉल्फिन, घड़ियाल, कछुए और कई विलुप्त होती प्रजातियों की पनाहगाह बनाया जा रहा है।

चंबल को जानने की जिज्ञासा ने बनाया नेशनल टूरिस्ट हब
एक जमाना था जब चंबल घाटी जाना तो दूर लोगों को इस इलाके का नाम सुनकर ही डर लगने लगता था। हालांकि उस डर की वजह से ही लोगों के भीतर एक तरह की जिज्ञासा भी पनपती थी। उसी जिज्ञासा ने इस इलाके को टूरिस्ट स्पॉट के तौर पर विकसित करने की प्रेरणा दी। इसी वजह से इस इलाके को नेशनल टूरिस्ट हब के तौर पर विकसित करने का एक प्रोजेक्ट शुरू हुआ है जहां अब नाइट सफारी के साथ साथ सनसेट प्वाइंट और सनराइज प्वाइंट बनाए गए है। सचमुच ये एक एडवेंचर टूरिज्म के तौर पर ऐसा पर्यटन स्थल के तौर पर तैयार किया जा रहा है जिसको देखने का दिल दुनिया भर में करोड़ों लोगों का होता है। यानी अब लोग उन जगहों को अपनी खुली आंख से देख सकेंगे जिन जगहों और जिस बीहड़ के बारे में सैकड़ों कहानियां अभी तक सुनते आए हैं।
इस बीहड़ में आखिर क्या क्या ऐसा होने जा रहा है, कौन कौन से स्पॉट को टूरिस्ट स्पॉट में तब्दील किया जा रहा है उसके बारे में बताएं, एक बार इस बीहड़ को लेकर जो नाम और जो किस्से दुनिया भर में मशहूर हैं, उनके बारे में भी जिक्र कर लिया जाए।
ऊबड़ खाबड़ टीलों के बियाबान में बैठी दहशत
इस चंबल के बीहड़ ने एक ऐसा दौर भी देखा है। जब दरदरी मिट्टी के ऊबड़-खाबड़ टीलों के गिर्द घनी कटीली झाड़ियां के साथ बल खाती हुई एक नदी बहती थी। जिसे देखकर ही अच्छे-अच्छों के पसीने छूट जाते हैं। जेहन में खूंखार डाकू और डाकुओं के खौफनाक अड्डों की तस्वीरें आंखों के सामने घूमने लगती थी। इन बियाबान के बीच से गुजरते समय एक अनजाना सा डर पैदा हो जाता था। मिट्टी के टीलों को देखते ही ये दहशत घेर लेती थी कि ना जाने चंबल के इस बीहड़ के किस कोने में कौन सा छुपा हुआ डाकू सामने आ जाए?

डाकुओं का बसेरा रही चंबल की घाटी
ये चंबल घाटी एक से बढ़कर एक डाकुओं का बसेरा बनी रही। ये सिलसिला सालों तक जारी रहा। शायद मुल्क का ये इकलौता ऐसा हिस्सा था जहां खुद पुलिसवाले भी बगैर पलटन के आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं कर पाते थे। मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश यानी तीन तीन राज्यों की सीमाओं में समाई चंबल की घाटी पिछले कई सालों से समाज और कानून के लिए सिर दर्द बनी रही। पुरानी सुर्खियां गवाह हैं कि इस बीहड़ की वजह से दिल्ली तक के माथे पर शिकन देखी जाती रही।
मान सिंह बना चंबल का सबसे बड़ा डाकू
एक जमाना वो भी था जब चंबल के इस बीहड़ में डाकू मान सिंह की बंदूक और उसकी दहाड़ का खौफ बसता था। 1939 से लेकर 1955 के बीच मानसिंह डाकू इस बीहड़ में दहशत का दूसरा नाम हो गया था। डाकू के तौर पर सबसे ज्यादा गुनाहों को अंजाम देने के नजरिये से मानसिंह को चंबल का अब तक का सबसे बड़ा डाकू माना जाता है। डाकू मानसिंह के नाम पुलिस के रिकॉर्ड में 1112 डकैतियों के मामले दर्ज हैं जबकि मानसिंह और उसके गिरोह ने अपनी बंदूक से करीब 185 लोगों का खून इसी चंबल घाटी में बहाया, जिसमें 32 पुलिस अफसरों की हत्या शामिल है। हालांकि गैंग की गिनती के हिसाब से मानसिंह का गिरोह बहुत बड़ा नहीं था। बल्कि उसके बेटे, भतीजों और भांजों के अलावा कुछ और रिश्तेदारों के साथ इस गिरोह में कुल जमा 17 लोग ही थे। लेकिन सब के सब मानसिंह के बेहद भरोसेमंद थे। 1955 में चलाए गए डाकू उन्मूलन अभियान के तहत गोरखा रेजिमेंट ने डाकू मानसिंह को मार गिराया।
डाकू मान सिंह तो 1955 में एक एनकाउंटर में मार गिराया गया। उसके बाद चंबल में बचे बागियों के बीच सबसे बड़ा बागी और डाकुओं के अलग-अलग गिरोह के बीच बड़ा बनने की होड़ सी शुरू हो गई।

मोहर सिंह की कहानी पूरी फिल्मी है
इसी होड़ के बीच 1958 में चंबल के बागियों में एक नाम की एंट्री हुई। वो नाम था मोहर सिंह गुर्जर का। सच कहा जाए तो फिल्म पान सिंह तोमर को जो मशहूर डायलॉग इरफान ने बोलकर दर्शकों की तालियां बटोरी, वो असल जिंदगी में बोलने वाला डाकू था मोहर सिंह गुर्जर। चंबल घाटी में दद्दा के नाम से मशहूर डाकू मोहर सिंह की कहानी बिलकुल वैसी ही है जैसी फिल्मों में किसी डकैत के बनने की दिखाई जाती है।
मोहर सिंह की जमीन उसके ही रिश्तेदारों ने धोखे से हड़प ली। अपनी शिकायत लेकर मोहर सिंह पुलिस के पास गया लेकिन मामला पुलिस थाने, कचहरी और अदालतों के बीच में ही ठोकर खाता रहा। मगर जब मोहर सिंह को इंसाफ नहीं मिला तब थककर मोहर सिंह ने हथियार उठाया और एक हत्या के बाद सीधा बीहड़ का रास्ता पकड़ लिया।
चंबल में ये वो दौर था जब वहां कई डाकुओं के गिरोह के बीच वर्चस्व की लड़ाई चल रही थी। फिरंगी सिंह, देवीलाल, छक्की मिर्धा, रामकल्ला और शिव सिंह जैसे बड़े बड़े डाकुओं का डंका बोल रहा था। मोहर सिंह ने इन सभी के पास जाकर खुद को गिरोह में शामिल होने की गुजारिश की मगर हर किसी ने मोहर सिंह को दुत्कार कर भगा दिया।
चंबल का दद्दा बना पुलिस का E-1
हारकर मोहर सिंह ने तब अपना गैंग बनाया। 1960 के साल का मई का महीना था जब मोहर सिंह के खिलाफ पहली FIR दर्ज हुई। 140/60 यही था उस एफआईआर का नंबर। इस नंबर के दर्ज करने के बाद अगले 15 सालों तक पुलिस के पास मोहर सिंह के नाम के अपराधों के कई पन्ने भरते चले गए। लेकिन मोहर सिंह कभी पुलिस के हत्थे नहीं चढ़ा। डाकुओँ पर करीबी नजर रखने वाले बताते हैं कि मोहर सिंह उर्फ दद्दा को पान सिंह तोमर का पहला वर्जन कहा जा सकता है। क्योंकि मोहर सिंह ने जिस ठसक के साथ चंबल के बीहड़ में अपनी हुकूमत चलाई उसी ठसक की झलक लोगों को बाद में पान सिंह तोमर में देखने को मिली।
चंबल में मोहर सिंह के गैंग का एक लंबा सिलसिला चला। 150 डाकुओं के इस गैंग की दहशत UP, MP और राजस्थान तक फैल चुकी थी। तीन तीन सूबों में फैली दहशथ वाले इस गिरोह के डाकू भले ही मोहर सिंह को दद्दा कहते थे, मगर पुलिस की डायरी में मोहर सिंह के नाम के आगे लिखा जाता था E-1…यानी एनमी नंबर वन।

पुलिस को चकमा देने का मोहर सिंह का तरीका
जिस दौर में पुलिस डाकू मोहर सिंह की तलाश के लिए दिन रात पसीना बहा रही थी, तब मोहर सिंह ने पुलिस से बचने का सबसे नायाब तरीका अख्तियार कर लिया था। मोहर सिंह को ये पता था कि पुलिस को डाकुओं के बारे में इत्तेला मुखबिरों से मिलती है। लिहाजा उसने ऐलान करवा दिया कि जिस किसी मुखबिर ने उसकी मुखबिरी की, उसे और उसके परिवार को मौत के घाट उतार दिया जाएगा। ये सिर्फ एक धमकी नहीं थी बल्कि मोहर सिंह ने ऐसा कुछ लोगों के सााथ किया भी। नतीजा ये हुआ कि मुखबिरों ने डाकुओं के बारे में पुलिस को इत्तेला देना ही बंद कर दिया। इसके बाद तो मोहर सिंह आराम से किसी भी गांव में जाकर खुलेआम रुक जाता था और पुलिस को भनक तक नहीं लगने पाती थी।
चंबल के आस पास रहने वाले गांव के ही लोग बताते हैं कि मोहर सिंह के गैंग में कुछ उसूल थे जिनका पालन गिरोह का हर सदस्य ब्रह्म लकीर की तरह करता था। गैंग कभी भी किसी महिला के साथ कोई अभद्रता नहीं करता था और न ही बर्दाश्त करता था। रात बिरात अगर कोई महिला या लड़की चंबल के इलाके में मिल जाती थी तो गिरोह के लोग उसे बाकायदा घर छोड़कर आते थे और लड़की के हाथ में कुछ पैसे भी रख देते थे। ये कुछ पैसे अक्सर हजारों रुपये ही होते थे।
मोहर सिंह के नाम से जब दिल्ली कांपी
मोहर सिंह का नाम सिर्फ चंबल की हद तक ही सीमित नहीं था बल्कि उसके नाम से दिल्ली की गद्दी तक सिहर उठती थी। उसके पीछे एक बड़ा ही दिलचस्प किस्सा है, जिसने मोहर सिंह को पूरी दुनिया का सबसे बड़ा डकैत बना दिया था। ये बात 1965 की है। असल में दिल्ली में मूर्ति का कारोबार करने वाले एक कारोबारी तक मोहर सिंह ने ये खबर भिजवाई कि चंबल की घाटी में कुछ पुरानी और ऐतिहासिक मूर्तियां मिली हैं। इस इत्तेला के मिलने के बाद उस कारोबारी ने अपने सहयोगी को चंबल में मूर्ति पाने वाले गांव वाले से मिलने के लिए भेजा। जब कई दिनों तक अपने सहयोगी की कोई खबर कारोबारी को नहीं मिली तो वो खुद चलकर चंबल पहुँचा। चंबल में मोहर सिंह ने पहले से ही कारोबारी को पकड़ने के लिए घेरा लगा रखा था। जैसे ही वो कारोबारी चंबल में मुरैना के पास पहुँचा, उसे डाकुओं ने अगवा कर लिया।
चंबल के इतिहास की सबसे बड़ी फिरौती
असल में वो कारोबारी दिल्ली की सत्ता के बेहद नजदीकी भी माना जाता था लिहाजा उसके अगवा होने की खबर से दिल्ली में हालाडोला आ गया। उस समय दिल्ली में इंदिरा गांधी की सरकार थी। इंदिरा गांधी ने पुलिस को हिदायत दी कि जैसे भी हो कारोबारी को छुड़ाया जाए और मोहर सिंह को मार गिराया जाए। लेकिन मोहर सिंह ने उस कारोबारी के घरवालों को इस तरह धमकाया कि वो फिरौती देने को राजी हो गए। जिसके बारे में कहा जाता है कि वो फिरौती 26 लाख से लेकर 50 लाख के बीच की कोई रकम थी। कहा जाता है कि चंबल के इतिहास में इससे बड़ी फिरौती अब तक किसी ने नहीं वसूली। 1972 में मोहर सिंह ने जयप्रकाश नारायण के सामने मध्य प्रदेश के मुरैना के धोरेरा गांव में 200 डाकुओं के साथ हथियार डाले।
14 साल चला डकैत राजा यानी मलखान सिंह का राज
मोहर सिंह के बाद चंबल में मलखान सिंह की बंदूक की गोलियां जमकर गूंजी। 1964 से लेकर 1982 तक बीहड़ में मलखान सिंह उर्फ ठाकुर साहब का रुआब चला। चंबल के डाकुओं के बीच में मलखान को डकैत राजा के नाम से भी जाना जाता था क्योंकि महज 17 साल की उम्र में चंबल के बीहड़ में अपनी बंदूक लेकर उतरे मलखान सिंह ने कभी भी अपने उसूलों से कोई समझौता नहीं किया। मलखान सिंह के खिलाफ 94 केस दर्ज हुए जिनमें डकैती, अपहरण, हत्या की कोशिश और हत्या के मामले हैं। 1982 में मलखान सिंह ने अर्जुन सिंह के सामने हथियार डालकर आत्मसमर्पण किया था।
हालांकि मलखान सिंह से कुछ अरसा पहले ही एक एनकाउंटर में पुलिस ने बीहड़ के सबसे खतरनाक बागी पान सिंह तोमर को ढेर कर दिया था। किसी जमाने में फौजी और देश के नामी एथलीट रहे पान सिंह तोमर भी अपने रिश्तेदारों के साथ साथ पुलिस की ज्यादती की वजह से बागी बना।

चंबल की सबसे खतरनाक बैंडिट क्वीन फूलन देवी
इसके अलावा भी चंबल की दरदरी मिट्टी में कई डाकुओं के किस्से दफ्न है। जिनमें मशहूर फूलन देवी शायद सबसे आगे होगी। अपने घरवालों की नालायकी और ससुराल वालों की बेरहमी की बदौलत डाकू बनी फूलन देवी का किस्सा शायद अपने आप में अनोखा ही था जिसने मुंबई के फिल्म कारों को इतना आकर्षित किया कि उन्होंने बैंडिट क्वीन जैसी फिल्म बना डाली जो किसी डॉक्यूमेंट्री से कम नहीं है।
फूलन का डकैती जीवन मशहूर डाकू विक्रम मल्लाह के साथ शादी के बाद ही शुरू हुआ। लेकिन ठाकुरों से नफरत करने वाली फूलन देवी ने विक्रम मल्लाह की मौत के बाद बेहमई में जो मौत का कहर बरपाया उसे सुनकर पूरी दुनिया सिहर गई थी। ये बात 1982 की है। फूलन के गैंग ने बेहमई गांव में धावा बोला और वहां गांव 22 लोगों को एक लाइन पर खड़ा करके उन्हें गोलियों से भून डाला। इस घटना के एक साल बाद ही फूलन ने आत्म समर्पण कर दिया था।
बीहड़ की भूल भुलैया पर निर्भय गुर्जर का 30 साल चला राज
कहते हैं कि चंबल नदी जब बरसात के दिनों में बाढ़ पर होती है तो उसका रास्ता ही बदल जाता है जिसकी वजह से चंबल की घाटी में नए नए रास्ते बन जाते हैं। वो रास्ते ऐसी भूल भुलैया तैयार कर देते हैं कि हर कोई वहां रास्ता भूल जाता है। इसी भूलभूलैया का सबसे बेहतरीन इस्तेमाल किया था डाकू निर्भय गुर्जर ने। करीब 30 सालों तक बीहड़ में अपनी दहशत कायम करने वाले निर्भय गुर्जर को सही मायनों में चंबल का आखिरी डकैत भी कहा जाता है। ढाई लाख के इनामी निर्भय गुर्जर का साल 2005 में एनकाउंटर हुआ था। पुलिस की गोली का शिकार बनने से पहले निर्भय गुर्जर के नाम 205 केस दर्ज हो चुके थे। जिसमें ज्यादातर हत्या और किडनैपिंग के ही केस थे।
हालांकि निर्भय गुर्जर के बाद भी कुछ छोटे मोटे डाकुओं ने अपनी हाजिरी दर्ज करवाई लेकिन नाम कमाने से पहले ही उनका वजूद मिट गया। उसमें सबसे ऊपर नाम है दयाराम गरड़िया और रामबाबू का।

नेशनल टूरिस्ट हब बनाने का तैयार हुआ प्लान
चंबल नदी के किनारे की उबड़ खाबड़ गहरी खाइयों के बीच ही तमाम डाकुओं ने अपने अपने हक की लड़ाई के लिए बंदूक उठाई और संगीन वारदातों को अंजाम देने के लिए गहरी साजिशें भी रचीं। उसी चंबल के गहरे किनारे दर्शकों को लुभाने के लिए अब उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सरकार ने मिलकर नेशनल टूरिस्ट हब बनाने का प्लान तैयार किया है। चंबल के किनारे एक नहीं लाखों की संख्या में मिट्टी के ऊंचे-ऊंचे टीले देखने को मिल जाएंगे। तीन राज्यों में पसरी चंबल की ये घाटी अपने इन्हीं छोटे आड़े तिरछे टीलों की वजह से मशहूर है। जो पूरे इलाके को सबसे अनोखा और खतरनाक बीहड बना देती है। चंबल घाटी में जो पहाड़ों का गुमान देते हुए लैंडस्केप नज़र आते हैं वह असल में बीहड़ का लैंडस्केप है। जो इस बात की गवाही भी देते हैं कि किसी जमाने में चंबल में इतना पानी तो रहा ही होगा जिसके कटाव से यहां ऐसे लैंडस्केप तैयार हो गए।
घड़ियाल और डाल्फिनों का घर बना चंबल सेंचुरी प्रोजेक्ट
असल में 1979 में ही इस इलाके को पर्यटन के नक्शे पर लाने का प्लान बनना शुरू हो गया था। तभी राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के चंबल से लगे इलाके को राष्ट्रीय चंबल सेंचुरी प्रोजेक्ट के तौर पर घोषित कर दिया गया था। इसके बाद यहां सबसे पहला काम तो ये किया गया कि चंबल नदी में घड़ियाल और डाल्फिनों को डाला जाने लगा। जिसकी वजह से नदी में इनकी संख्या में तेजी से बढ़नी शुरू हो गई। कहा जाता है कि दुनिया में जितने भी घड़ियाल हैं उनका 80 फीसदी हिस्सा इसी चंबल नदी में रहता है। सैलानियों को उदी और इटावा में चंबल नदी के किनारे घड़ियालों का शानदार नजारा देखने को मिल सकता है। मध्य प्रदेश के मुरैना के पास देवरी में घडिय़ाल और मगरमच्छ के साथ कछुओं की हेचरी भी बनाई गई है।
चंबल में पल रहे आठ प्रजाति के दुर्लभ कछुए
यहां नदियों के अलावा आस पास के तमाम जलकुंडों में भी आठ किस्म के कछुओं को पनाह दी गई। कछुओं की जिन प्रजातियों को यहां रखा गया है उनमें चित्रिका इंडिका, लिसमस पंकटाटा, निलसोनिया ह्यूरम, निलसोनिया गेंजेटिका, बाटागुर, बाटागुर डोंगोका, हरडेला थुरजी, पंगशुरा टेंटोरिया हैं। ये सारी की सारी प्रजातियां बेहद दुर्लभ हैं। बताया जाता है कि यहां रखे गए कछुओं की तादाद करीब 6000 से भी ज्यादा है।

मगरमच्छ देखने का रोमांच
आगरा के पिनाहट और नदगंवा में डॉल्फिन के साथ साथ मगरमच्छ देखने का इंतजाम किया गया है ताकि सैलानियों को रोमांचकारी नजारा शहर के नजदीक ही देखने को मिले। जबकि मुरैना में एक खास डॉल्फिन प्वाइंट तैयार किया गया है।
इन सारी तैयारियों के बीच अब तो चंबल की ही घाटी में लॉयन सफारी का ऐसा नेटवर्क तैयार किया गया है जो सैलानियों को तेजी से अपनी ओर खींच रहा है। इटावा में चंबल के किनारे बना लॉयन सफारी एशियन शेरों का दूसरा घर कहलाने लगा है।
चंबल नदी के के किनारे ही कई ऐतिहासिक शहर भी बसे हुए हैं। जिनमें भिंड सबसे ज्यादा मशहूर है। इसी भिंड में अटेर का किला आता है। कहा जाता है कि इस किले को 1664-1698 के दौरान भदौरिया राजा बदन सिंह, महा सिंह, और फिर भगत सिंह ने बनवाया था।
आसान है चंबल सेंचुरी तक पहुँचना
अब सवाल ये है कि सैलानियों के नक्शे पर नए नए उभरे इस पर्यटन स्थल तक पहुँचने का रास्ता क्या हो सकता है। असल में चंबल किनारे के इस नेशनल टूरिस्ट हब को नेशनल चंबल सेंचुरी का नाम दिया गया है जो लखनऊ आगरा एक्सप्रेस वे से करीब 118 किलोमीटर दूर है, जहां बड़े आराम से कार या बस या सड़क के रास्ते से जाया जा सकता है। जबकि रेल यात्रियों के लिए उन्हें आगरा झांसी रूट पर राजस्थान के धौलपुर में उतरना होगा और वहां से बड़ी ही आसानी से यहां तक पहुंच सकते हैं। हालांकि आगरा से टैक्सी के जरिए धौलपुर या पिनाहट जाना और भी आसान है। आगरा से यहां की दूरी महज 50 किलोमीटर ही है।

सैलानियों की सहूलियत के लिए सेंचुरी को दो सेक्टरों में बांटा
इस प्रोजक्ट से जुड़े अफसरों की बातों पर यकीन किया जाए तो सैलानियों की सुविधा के लिए इस पूरे इलाके को दो सेक्टरों में बांटने का प्लान है। जिसमें से एक सेक्टर वो होगा जिसमें पुराने और पुरातत्व स्थल शामिल होंगे जिनमें सबलगढ़ और पहाड़गढ़ जैसे इलाके शामिल हैं। जबकि दूसरे सेक्टर में मितावली, पढ़ावली, शनीचला मंदिर और सिहोनिया का ककनमठ को रखा गया है।
बारिश के बाद का मौसम सुहावना
कहते हैं कि देवभूमि उत्तराखंड और कश्मीर में पहाड़ अगर सैलानियों को अपनी अनोखी छटा की वजह से खींचते हैं तो चंबल की घाटी में दरदरी मिट्टी के छोटे और नाटे पहाड़ लोगों को बड़ा सुकून देते हैं। बारिश के बाद तो यहां का मौसम और छटा बेहद शानदार हो जाती है क्योंकि नदियों में पानी भरपूर होता है और हवा भी ठंडी हो जाती है। इसी मौसम में देसी के साथ साथ विदेशी चिड़ियां भी पांच नदियों के संगम पर आकर इटावा, जालौन और औरैया जिले के आस पास अपना बसेरा बनाते हैं।
तिग्मांशु धूलिया ने दायित्व याद दिलाया
जाने माने फिल्मकार तिग्मांशु धूलिया के कहे शब्दों पर गौर करें तो चंबल घाटी की तुलना अमेरिका के ग्रैंड कैनियन से की जा सकती है। तिग्मांशु धूलिया का मानना है कि ये हम सबका दायित्व बनता है कि वक्त रहते हमे इस इलाको की सही ढंग से परवरिश करनी चाहिए नहीं तो हम इस शानदार पर्यटन केंद्र से हाथ धो बैठेंगे।