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प्रयागराज महाकुंभ की दिव्य और भव्य छटा पूरी दुनिया को अपनी ओर आकर्षित कर रही है। अखाड़े के साधु-संतों और नागा संन्यासियों ने प्रयागराज में डेरा डाल दिया है। महाकुम्भ में पहुंचे नागा साधुओं का रहस्यात्मक जीवन सबके लिए आकर्षण का केंद्र हैं। कंपकंपी छुड़ा देने वाली ठंड में नागा साधु तन पर केवल भस्म मलकर यूं ही रहते हैं, जिन्हें देखकर लोग सिहर जाते हैं। हजारों ऐसे नागा साधु हैं, जो केवल कुंभ और महाकुंभ में ही दिखाई देते हैं, इसके बाद वे कहां चले जाते हैं, कोई इसका ठीक ठीक अंदाजा नहीं लगा सकता है। इनकी दिनचर्या भी अबूझ पहेली है। वे क्या खाते हैं, कैसे जीवित रहते हैं, कैसे ये बारहों महीने नग्न बदन रहते हैं क्यों गरमी, सर्दी और बरसात का इन पर कोई असर नहीं पड़ता, यह भी लोगों के लिए अबूझ पहेली है। आज हम आपको नागा साधुओं के रहस्य और धर्म रक्षा के लिए उनके उत्सर्ग की दिलचस्प दास्तान बता रहे हैं।
कौन हैं नागा साधु, क्या है इनका इतिहास?
नागा शब्द संस्कृत के नाग शब्द से बना है, जिसका अर्थ है- पहाड़। यानी वो साधु संत जो पहाड़ों और पहाड़ों की गुफाओं में रहते हैं । नागा योद्धाओं को भी कहा जाता है। नागा साधुओं की यह परंपरा तो अनादिकाल से है। कुछ लोग इसकी परंपरा महर्षि वेदव्यास से मानते हैं। महर्षि वेदव्यास ने वनवासी संन्यासी परंपरा का आरंभ किया था। उनके बाद शुकदेव जी ने इसे आगे बढ़ाया था, लेकिन सही मायने में इनका उद्भव आदि शंकराचार्य के युग से माना जाता है। अनादि काल से चले आ रहे सनातन धर्म और पंरपरा पर हर दौर में आक्रांताओं ने हमला किया। हर दौर में सनातन धर्म पर कुठाराघात के प्रयत्न हुए। जब आदि गुरु शंकराचार्य का आविर्भाव हुआ तो उन्होंने सत्य सनातन की पुनर्स्थापना की। आदि गुरु शंकराचार्य ने ही देश के चार कोनों में चार मठों को स्थापित किया।
- कर्नाटक के चिकमंगलूर में श्रृंगेरी मठ
- उड़ीसा के पुरी में गोवर्धन मठ
- गुजरात के द्वारका धाम में शारदा मठ
- उत्तराखंड के बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्मठ
आदि शंकराचार्य ने अनुभव किया कि सिर्फ सनातन के प्रचार प्रसार से ही इसकी रक्षा नहीं हो सकती। इसके लिए त्याग, बलिदान और पराक्रम की आवश्यकता है। धर्म के प्रचार के लिए शास्त्र आवश्यक है, लेकिन धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र भी उनता ही आवश्यक है। आदि गुरु शंकराचार्य ने इसी लक्ष्य को साधने के लिए अखाड़ों की परंपरा शुरू की और धर्म की रक्षा के लिए नागा साधुओं के प्रशिक्षण का काम भी शुरू किया। आदि शंकराचार्य ने 547 ईसा में सबसे पहले अखाड़े ‘अखंड आह्वान अखाड़ा’ की स्थापना की। इसके बाद अखाड़ों में नागा साधुओं का प्रशिक्षण आरंभ हुआ। नागा साधु बनने के लिए कड़े मानदंड बनाए। ऐसे साधुओं को चुना जो धर्म की रक्षा के लिए जान ले भी सकते हैं, जान दे भी सकते हैं। ऐसे साधु जो हठयोग से अपनी इंद्रियों को नियंत्रित कर लें। ठंड, गरमी और बरसात का उन पर कोई असर न हो। भूख पर जिन्होंने विजय प्राप्त कर ली हो। वो बिना कुछ खाए-पीये और कुछ भी खा-पीकर जीवित रह सकें। जिस तरह से फौज में स्पेशल कमांडोज को किसी भी स्थिति का सामना करने की ट्रेनिंग दी जाती है, उसी तरह नागा साधुओं को भी किसी भी स्थिति में रहने का प्रशिक्षण दिया जाता है। उनका मूल काम धर्म की रक्षा करना ही है। एक तरह से सनातन धर्म की सेना हैं नागा साधु।

जब-जब सनातन पर हमला हुआ, नागा साधुओं ने संभाला मोर्चा
जब जब सनातन धर्म पर आक्रमण हुआ, मोर्चा नागा साधुओं ने संभाला। 18वीं सदी में 1748 से 1768 के बीच अफगानिस्तान के लुटेरे अहमद शाह अब्दाली ने भारत पर छह बार चढ़ाई की। 23 जनवरी 1757 को उसने दिल्ली पर कब्जा जमा लिया। उसने गोकुल और वृंदावन पर भी कब्जा जमा लिया। अहमद शाह अब्दाली बेहद क्रूर था। इतिहास के पन्नों में वह सबसे बड़े दरिंदे के तौर पर दर्ज है। जब उसने गोकुल में कोहराम मचाया तो हिमालय की गुफाओं से हजारों नागा साधु बाहर निकले और अब्दाली की सेना के छक्के छुड़ा दिए।
18वीं सदी के गजेटियर में लिखा है कि 1751 में अहमद खान बंगस ने कुंभ के दौरान इलाहाबाद के किले पर चढ़ाई करके उसे घेर लिया था। जिस समय हमला हुआ, नागा संन्यासी संगम में स्नान कर रहे थे। नागा संन्यासी अहमद खां बंगस की सेना पर धावा बोल दिया। तीन महीने तक युद्ध चला और अहमद खां बंगस की सेना के पांव उखड़ गए। उल्टे पांव सेना को भागना पड़ा।
इसी तरह से इतिहास में ये भी घटना दर्ज है कि 1666 में औरंगजेब की सेना ने हरिद्वार कुंभ के समय आक्रमण किया था। तब नागा संन्यासियों ने उन्हें नानी याद दिला दी थी। औरंगजेब की सेना को वापस लौटना पड़ा। हरिद्वार में ही तैमूर लंग की सेना को नागा संन्यासियों ने मारकर खदेड़ दिया था। आजादी से पहले धर्म की रक्षा के लिए नागा संन्यासियों के शस्त्र उठाने की कई घटनाएं इतिहास में दर्ज हैं। आजादी के बाद नागा साधुओं ने प्रण किया कि वे शस्त्र नहीं उठाएंगे, क्योंकि देश की रक्षा के लिए हमारी अपनी सेना तैयार हो चुकी थी। इसके बावजूद आज भी नागा साधुओं को अस्र-शस्त्र संचालन का प्रशिक्षण दिया जाता है। कुंभ के दौरान नागा संन्यासी शाही स्नान के लिए जाते समय शस्त्र संचालन का अद्भुत दृश्य उपस्थित करते हैं।

बहुत कठिन है नागा साधु बनने की प्रक्रिया
नागा साधु बनने की इच्छा लेकर जब कोई साधु अखाड़ों में पहुंचता है तो बाकायदा उसका परीक्षण होता है। उसके और उसके परिवार के बारे में पता लगाया जाता है। पूरी तरह जांच पड़ताल करके उसे अखाड़े में प्रवेश दिया जाता है। इसके बाद उसके ब्रह्मचर्य की परीक्षा होती है। एक सामान्य व्यक्ति को नागा साधु बनने में 6 महीने से लेकर 12 साल तक का समय लग सकता है। जब गुरु को यह लग जाए कि यह साधु नागा साधु बनने की योग्यता रखता है, तब उसे दीक्षा और प्रशिक्षण दिया जाता है। नागा साधुओं को बाकायदा अखाड़ों में दीक्षा दी जाती है। इसमें भी इनके दो प्रकार हैं। एक तो दिगंबर नागा साधु होते हैं, जो बदन पर सिर्फ लंगोट धारण करते हैं। इसके अलावा कोई और कपड़ा नहीं पहनते। दूसरे होते हैं श्री दिगंबर नागा साधु। इनके तन पर कोई वस्त्र नहीं रहता, ये पूरी तरह से दिगंबर ही रहते हैं। श्री दिगंबर नागा साधु बनने की प्रक्रिया तो बेहद कठिन होती है। इनके लिए संयम और ब्रह्मचर्य सबसे अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। इसके आड़े आने वाली इनकी इंद्रियों का प्रभाव हमेशा के लिए नष्ट कर दिया जाता है। काम वासना से हमेशा के लिए मुक्ति के लिए इन्हें आयुर्वेदिक औषधियां पिलाई जाती हैं। दीक्षा के अवसर पर यह औषधि दी जाती है। नागा साधु के बारे में कहा जाता है कि नागा साधु बनने के बाद इनका पुनर्जन्म नहीं होता है। ये सभी योनियों से मुक्ति पा जाते हैं।
नागा साधुओं की दीक्षा के नियम बहुत ही रहस्यमय होते हैं। इन्हें सबके सामने दीक्षा नहीं दी जाती। रात 2 से ढाई बजे के बीच सूनसान स्थान पर नागा साधुओं को दीक्षा दी जाती है। श्री दिगंबर नागा साधु तन पर भस्म मलकर रखते हैं। राख ही इनका वस्त्र होती है। यह राख इन्हें मौसम के प्रभाव से बेअसर बनाती है तो वहीं ये राख इन्हें महादेव की साधना के और नजदीक ले जाती है, क्योंकि भगवान शिव को भी भस्म बेहद पसंद है।नागा साधु अपने परिवार और अपना श्राद्ध, पिंडदान पहले ही कर लेते हैं। इस प्रक्रिया को बिजवान कहते हैं। इसके बाद इनके लिए संसार, परिवार और मोह माया से कोई लेना देना नहीं रहता। इनका न तो कोई परिवार होता है, न तो अपना घऱ या मकान। सोने के लिए गद्दा भी नहीं होता, नागा साधु केवल जमीन पर शयन करते हैं। नागा साधु एक बार ही आहार लेते हैं। आहार के तौर पर ये सात घरों से भिक्षा मांग सकते हैं। अगर इन्हें भिक्षा नहीं मिली तो इन्हें भूखा सोना पड़ता है। नागा साधु लंबी जटाएं रखते हैं। कभी भी बाल या दाढ़ी नहीं कटवाते।

नागा साधुओं को अस्त्र-शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। तलवार, भाला के अलावा उन्हें बंदूक चलाने का भी प्रशिक्षण दिया जाता है। नागा साधु बनने के बाद इन्हें बाकायदा शपथ भी दिलाई जाती है। अभी भी कुंभ के दौरान नागा साधु बनाए जाते हैं। जहां जहां कुंभ लगता है, वहां नागा साधुओं के अलग अलग नाम भी होते हैं।
- प्रयागराज कुंभ में नागा साधु बनने वाले को कहते हैं-नागा
- उज्जैन कुंभ में नागा साधु बनने वाले को कहते हैं- खूनी नागा
- हरिद्वार कुंभ में नागा साधु बनने वाले को कहते हैं- बर्फानी नागा
- नासिक कुंभ में नागा साधु बनने वाले को कहते हैं- खिचड़िया नागा
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि सिर्फ कम पढ़े लिखे या अनपढ़ संत ही नागा संन्यासी नहीं बनते। ऐसे ऐसे भी नाग संन्यासी हैं, जो उच्च शिक्षा प्राप्त हैं, इंजिनियरिंग और मेडिकल का क्षेत्र छोड़कर ये प्रभु की शरण में आ गए और खुद को नागा संन्यासी के रूप में बदलकर जीवन को धन्य कर लिया।
सबसे कठिन है खूनी नागा की दीक्षा
उज्जैन कुंभ में खूनी नागा बनने की दीक्षा दी जाती है। दूसरे नागाओं की तरह इन्हें भी खुद का श्राद्ध करना पड़ता है। महंत इनकी कठिन परीक्षा लेते हैं। सबसे पहली परीक्षा ब्रह्मचर्य की होती है। आरंभ के तीन साल तक इन्हें महंतों की सेवा करनी होती है। कई रातों तक इन साधुओं को भगवान शिव के महामंत्र- ‘ऊं नमः शिवाय’ का जाप करना होता है। अखाड़े के प्रमुख महामंडलेश्वर इन्हें विजया हवन करवाते हैं। हवन के बाद इन्हें शिप्रा नदी में 108 बार डुबकी लगानी होती है। अखाड़े के ध्वज के नीचे इन्हें दंडी त्याग की प्रक्रिया करनी होती है। इसके बाद इनकी दीक्षा होती है ।
उज्जैन में दीक्षा पाए हुए नागा साधुओं का स्वभाव उग्र होता है। इनके मन में किसी प्रकार का विकार नहीं होता है, लेकिन जब बात धर्म की रक्षा करने की आती है तो ये जान देने और जान लेने में सबसे आगे रहते हैं। धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए इन्हें प्रतापी योद्धा की तरह तैयार किया जाता है। कई बार मठों और मंदिरों की रक्षा के समय खूनी नागा साधुओं ने अपनी उपयोगिता सिद्ध भी की है।
जिन नागा साधुओं ने दीक्षा ले ली है, उनका आगे चलकर प्रमोशन भी होता है। कोई कोतवाल बनता है, कोई पुजारी, कोई बड़ा कोतवाल, कोई भंडारी, कोई कोठारी, कोई बड़ा कोठारी, कोई महंत तो कोई नागा साधु सचिव बन जाता है। सचिव का पद नागा साधुओं के लिए सर्वोच्च पद होता है। ये नागा साधु कुंभ मेले में इकट्ठा होते हैं, मेले के बाद इनमें से अधिकांश हिमालय पर्वत की गुफाओं में चले जाते हैं और तपस्या में लीन हो जाते हैं।
नागा साधुओं को क्यों नहीं लगती ठंड?
नागा साधु एक तरह से विदेह हो जाते हैं। भगवान शिव की भक्ति में लीन हो जाते हैं। पूरे शरीर पर भस्म मलते हैं, जिससे इन्हें कभी ठंड नहीं लगती है। टीवी न्यूज चैनल आजतक से बातचीत करते हुए नागा साधु मणिराज पुरी बताते हैं- ‘नागा साधुओं का शरीर और जीवन ऐसे बच्चे की तरह होता है, जो मां के गर्भ में होता है। नागा साधु बनने की प्रक्रिया में शरीर इसी स्थिति में चला जाता है। ईश्वर के नाम रूपी झइल्ली के आवरण में वो रहता है, तब गरमी, ठंड, अग्नि, ताप, संताप जैसी किसी भी अवस्था का उन पर असर नहीं पड़ता।’
प्रयागराज पहुंचे 9 वर्ष के नागा संन्यासी की अद्भुत कथा
प्रयागराज में महाकुंभ मेले में सबसे छोटे नागा साधु गोपाल गिरी जी महाराज सबके आकर्षण का केंद्र बने हैं। इनकी उम्र महज 9 साल है। नागा संन्यासी गोपाल गिरि महाराज हिमाचल के चंबा में रहते हैं और महाकुंभ पर्व में भाग लेने के लिए प्रयागराज पहुंचे हुए हैं। तीन वर्ष की आयु में ही उनके माता-पिता ने गुरु दक्षिणा में उन्हें नागा संन्यासी को सौंप दिया था। गोपाल गिरी श्री शंभू पंचदशनाम आवाहन अखाड़ के नागा संन्यासी हैं। संस्कृति पर्व संस्था से बातचीत करते हुए गोपाल गिरि महाराज के गुरुभाई कमल गिरी जी महाराज बताते हैं- ‘गोपाल जी मूल रूप से बरेली के अकबरपुर गांव के रहने वाले हैं। वे चार भाइयों में सबसे छोटे थे। बपचन से ही वह भगवान शिव के भक्त थे। ऐसे में उन्होंने अपना जीवन भगवान शंकर को समर्पित कर दिया। गुरु की सेवा और भगवान महादेव की भक्ति ही उनके जीवन का परम ध्येय है, उसी में उन्हें आनंद प्राप्त होता है।‘
गोपाल गिरि जी का कहना है- ‘मैंने अपना पूजा जीवन सनानत के नाम कर दिया है। मैं अपने मन से साधु बना हूं। मैं भजन में मगन रहता हूं। भगवान शिव, सूर्यदेव के भजन करता हूं। मैं लोगों से आह्वान करता हूं कि ध्यान लगाओ। ‘ओम नमःशिवाय’ का मंत्र जपो! भगवान खुद आपके सामने आएंगे।’

अब महिलाएं भी बन रही हैं नागा साधु
आदि शंकराचार्य ने तो सिर्फ पुरुष साधु-संतों को नागा साधु की दीक्षा का मंत्र दिया था, लेकिन अब तो महिलाएं भी नागा साधु बन रही हैं। इनका जीवन भी ईश्वर को समर्पित होता है। ये महिलाएं गृहस्थ जीवन से दूर होती हैं। महिलाओं का अब तो स्वतंत्र अखाड़ा भी है, जिसका नाम है- दशनाम संन्यासिनी अखाड़ा। प्रयागराज महाकुंभ में इस अखाड़े की महिला नागा संन्यासियों का आगमन हो चुका है। महिला नागा साधु बनने की प्रक्रिया थोड़ी अलग है। पुरुष नागा जहां दिगंबर होते हैं, वहीं महिला नागा साधु माधे पर तिलक लगाती हैं और गेरुआ वस्त्र धारण करती हैं। यह वस्त्र सिला नहीं होता है। इनके वस्त्र को गंती भी कहते हैं।

धर्म की रक्षा नागा साधुओं का दायित्व
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थामनधऱ्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।
परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम्
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे।
यानी जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, तब-तब मैं अपने आपका सृजन करता हूं। सज्जन लोगों की रक्षा और दुष्टों के विनाश के लिए प्रत्येक युग में मैं जन्म लेता हूं। कुछ इसी तरह नागा साधु भी धर्म की रक्षा के लिए ही सामान्य जीवन छोड़कर नागा साधु बनते हैं। कमांडो से अधिक मुश्किल प्रशिक्षण लेकर ये नागा साधु बनते हैं। इतिहास गवाह है कि मंदिरों, मठों और सनातन की सुरक्षा के लिए नागा साधुओं ने बड़ी लड़ाइयां लड़ी हैं। अपनी जान देकर सनातन की रक्षा की है। हालांकि देश की आजादी के बाद से इन नागा साधुओं ने शस्त्र न उठाने का प्रण कर रखा है, लेकिन वक्त पड़ा तो नागा साधु अभी भी सनातन की रक्षा के लिए अपना बलिदान देने के लिए तत्पर हो जाएंगे।