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Story Of Delhi History: समुद्र तल से 215 मीटर की उंचाई और हिमालय की तलहटी से करीब 200 किलोमीटर की दूरी पर बसा दिल्ली महज एक शहर नहीं है। यह शहर ऐतिहासिक ग्रंधों की एक पूरी लाइब्रेरी है। जहां पौराणिक से लेकर आधुनिक दौर तक की कहानियां मिल जाती हैं। इस शहर में बसी हैं धर्म, कर्म और अर्थ की कहानियां, जो बताती हैं कि यह शहर आखिर कैसे भारत का सिरमौर बना हुआ है। दिल्ली का दौरा करेंगे तो महाभारत काल से लेकर आज के भारत का पूरा दौर घूम लेंगे। इसे अगर पढ़ना चाहें तो शायद एक उम्र भी कम पड़ जाए। इतिहासकार तो ये दावा करते हैं कि दिल्ली का इतिहास इतना गहरा है कि इसे जितना खोदेंगे खोदते रह जाएंगे।
दिल्ली को लेकर सदियों से लिखा और पढ़ा जाता रहा है। दिल्ली को लेकर लेख और कविताओं का ऐसा जखीरा लिखा गया है कि आज सब किताबों के रूप में हम सबके सामने है। रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है ‘वैभव की दीवानी दिल्ली! कृषक-मेध की रानी दिल्ली! अनाचार, अपमान, व्यंग्य की, चुभती हुई कहानी दिल्ली!’ हूबहू इन्हीं पंक्तियों की तरह ही है दिल्ली का हाल। जो दिल्ली महाभारत काल से लेकर अब तक हमेशा से वैभवी रही है। उसने अपमान और अनाचार की कहानियां भी झेली हैं। इन सबके बावजूद आज दिल्ली डटी हुई है।
पौराणिक काल से मायानगरी
हजारों साल पहले से दिल्ली माया का केंद्र रही है। कहा जाता है कि इसे पांडवों ने बसाया था। हालांकि महाभारत काल में जाएं तो पता चलता है कि पांडवों के यहां आने से पहले भी एक नगर हुआ करता था। इस नगर को यमुना नदी के किनारे मायासुर ने बसाया था। बाद में वो नगर बीहड़ हो गया और इमारतें खंडहर होती चली गईं। धीरे-धीरे जंगलों में बदले इस इलाके का नाम खांडववन पड़ गया। महाभारत की कथाओं में जिक्र मिलता है कि पांडवों और कौरवों के बीच राज्य के बंटवारे को लेकर विवाद होने लगा था। भाइयों में कलह बढ़ी तो कहानी में शकुनि की एंट्री हो जाती है। हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र ने शकुनि की राय पर पांडवों को ये इलाका दे दिया और उन्हें कुछ समय के लिए शांत कर दिया।
अब पांडवों के पास इस बीहड़ खांडव वन में अपना नगर या यूं कहें कि राजधानी बसाने की चुनौती थी। जब इस जगह पर भगवान कृष्ण और अर्जुन पहुंचे तो अर्जुन ने पूछा- हम इसे अपनी राजधानी कैसे बनाएंगे? इतने में भगवान कृष्ण ने विश्वकर्मा का आवाहन किया। विश्वकर्मा से कृष्ण ने अनुरोध किया कि यहां एक नगर बसाना है और वो भी इंद्रलोक की तरह। हालांकि मायासुर के बिना विश्वकर्मा ने नए नगर को बसाने में असमर्थता जता दी। इसके बाद मायासुर का स्मरण किया गया। भगवान की बात कोई कैसे टाल सकता था। मायासुर ने पूरा इलाके पांडवों के अधीन कर दिया। इसके बाद पांडवों की राजधानी का कायाकल्प शुरू हुआ। मय दानव और भगवान विश्वकर्मा ने मिलकर इसे इंद्रलोक से भव्य नगर के रूप में बसाया था। कहा जाता है कि पांडवों का महल इंद्रजाल की तरह बनाया गया था। इन्हीं कारणों की वजह से इस नगर का नाम इंद्रप्रस्थ रखा गया।
आज भी मौजूद हैं सबूत
महाभारत की इन कथाओं का साक्षी आज भी दिल्ली का सारवल गांव हैं। जहां से खुदाई में 1328 ईस्वी का एक अभिलेख मिला था। इसमें संस्कृत भाषा में गांव के इस गांव के इंद्रप्रस्थ में होने की बात लिखी हुई है। आज भी ये यह अभिलेख लाल किले के म्यूजियम में रखा गया है। बताया जाता है कि यह पूरा क्षेत्र आज के पुराना किला इलाके में हुआ करता था। इतना ही नहीं साल 1955 में भी पुराने किले के दक्षिण-पूर्वी हिस्से में खुदाई हुई। यहां से कुछ मिट्टी के पात्र और उसके टुकड़े मिले। दावा किया जाता है कि ये अवशेष महाभारत काल के सामानों से मिलते जुलते हैं।
दिल्ली बनने के कई दावे
यूं तो दिल्ली की कहानी महाभारत से ही शुरू हो जाती है, लेकिन आधुनिक दिल्ली की नींव कब और किसने रखी, इसे लेकर कई दावे इतिहास में देखने को मिलते हैं। कई इतिहासकार इसे भारतीय शासकों द्वारा बसाए नगर के रूप में पहचानते हैं तो कई इसे सल्तनत और मुगलकालीन शहर का दर्जा देते हैं।

कई बार उजड़ी फिर बसी दिल्ली
इतिहास के पन्नों को पलटें तो मालूम पड़ता है कि आज हमारे सामने जो दिल्ली है वो आठवीं दिल्ली है। इससे पहले शासकों ने इसे 7 बार उजाड़कर बसाया है। साल 1192 तक दिल्ली में हिंदू राजाओं का शासन हुआ करता था। इतिहास की किताबें बताती हैं कि दिल्ली को अंग्रेजों ने 1857 की जंग के बाद कब्जे में ले लिया था। उस समय यहां मुगलों का शासन हुआ करता था, जिन्होंने 1526 में लोधी वंश को खत्म कर यहां कब्जा किया था। 1192 से लेकर 1556 के दौर में ही दिल्ली कई बार उजड़ी और बसाई गई थी। यही दौर है जिससे दिल्ली का सल्तनत काल कहा जाता है।
8वीं शताब्दी तक दिल्ली में गौतम क्षत्रिय राजवंश का शासन चला। इसी के राजा ढिल्लू के नाम पर दिल्ली का नामकरण हुआ। 8वीं शताब्दी ले लेकर 12वीं शताब्दी तक करीब 400 साल उत्तर भारत में तोमर वंश का शासन रहा। तोमर वंश के राजा लालकोट से दिल्ली का राज चलाते थे। इसके बाद दिल्ली पर चौहान राजवंश के शासकों की नजर पड़ी। चौहान अजमेर से निकलकर दिल्ली को कब्जे में लेने की कोशिश करने लगे। चौहान ने तोमरों को हरा दिया। इसके बाद लालकोट का विस्तार करते हुए इसका नाम राय पिथौरा कर दिया।
चौहान वंश का शासन दिल्ली में बहुत दिनों तक चल नहीं पाया। भारत में इस्लाम की एंट्री हो गई थी और वे लगातार अपना विस्तार कर रहे थे। 1175 में मोहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण कर दिया और वह पूरी रफ्तार के साथ दिल्ली की ओर बढ़ने लगा। । 1192 में मुहम्मद गौरी की सेना ने दिल्ली अपना कब्जा जमा लिया। इसके बाद उसने अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत का राजकाज सौंप दिया। हालांकि 1206 में गौरी की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने गुलाम वंश की स्थापना कर खुद को भारत का शासक घोषित कर दिया। इसके बाद दिल्ली ने 5 वंश का शासन देखा। अंग्रेजों से पहले यहां मुगलों का राज था। हालांकि बीच में कुछ समय के लिए सूरी वंश ने यहां राज किया। आखिर में दिल्ली अंग्रेजों के हाथों में चली गई और अब हमारे देश की राजधानी है।

कब-कब बसी दिल्ली
इन्द्रप्रस्थ से लेकर लालकोट के रास्ते दिल्ली नई दिल्ली तक पहुंची है। इससे पहले किला राय पिथौरा या लालकोट, सिरी, तुगलकाबाद, जहांपनाह, फिरोजाबाद, शेरगढ़ या दिल्ली शेरशाही और शाहजहांनाबाद उजड़कर बार-बार बसी दिल्ली सम्राज्य की राजधानियों के नाम हुआ करते थे। जहां से से अलग-अलग शासकों ने शासन किया। समय-समय पर उन्होंने अपनी राजधानी बदली और पूरे भारत में कंट्रोल करने की कोशिश की।

दिल्ली-दौलताबाद-दिल्ली
1320–1414 के बीच दिल्ली में खिलजियों के बाद तुगलक वंश का शासन आया। इसी दौर में दक्षिण में राष्ट्रकूट शासकों ने अपनी एक अभेद्य राजधानी बना ली थी। इसका नाम उन्होंने ‘देवगिरी’ रखा था। यह आज के औरंगाबाद (महाराष्ट्र) से करीब 14 किलोमीटर दूर है। कहा जाता है यह दक्षिण का सबसे मजबूत किया था। यहां से पूरे भारत में सत्ता स्थापित करना आसान था। 1324 में दिल्ली की गद्दी पर गयासुद्दीन तुगलक का बेटा सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक बैठा। उसे ‘देवगिरी’ को अपनी राजधानी बनाने का निर्णय लिया। वह सुनियोजित ढंग से पूरी दिल्ली को ‘देवगिरी’ में शिफ्ट करने लगा।
दक्कन के इस अभेद किले में मिली अकूत दौलत के कारण उसने ‘देवगिरी’ का नाम दौलताबाद कर दिया। इसके बाद 1326 से 1327 और 1328 से 1329 तक उसने पूरी दिल्ली को यहां बसा दिया। अब दिल्ली से पहुंची जनता को दौलताबाद की आबो-हवा भा नहीं रही थी। इसी कारण वो यहां से वापस दिल्ली भागने लगे। करीब 10 साल ही बीते होंगे की सुल्तान को अपनी गलती का एहसाल हो गया और उसने वापस दिल्ली को अपनी राजधानी बना लिया। इसके बाद से ही दिल्ली से दौलताबाद का मुहावरा बन गया।
मुगलकाल और दिल्ली
सिकंदर लोधी ने 1504 में आगरा शहर का निर्माण कराया और यहां अपनी राजधानी बना ली। लोधी उत्तर भारत में अपने राज्य का विस्तार कर रहे थे। इसी बीच भारत में मुगलों ने आक्रमण हो गया। 1526 में पानीपत के मैदान में बाबर से दिल्ली का सुल्तान इब्राहिम लोधी हार गया। इसके बाद दिल्ली में मुगलों का काल शुरू हो गया था। हालांकि उन्होंने अपनी राजधानी आगरा को बनाए रखा। बाबर के बाद सत्ता हुमायूं के हाथ चली गई। इसी बीच 1540 कभी बाबर की सेना में शामिल जवान शेरशाह सूरी ने हुमायूं को हराकर दिल्ली पर अपना कब्जा कर लिया और यहां से उत्तर भारत में अपने साम्राज्य का विस्तार करने लगा।
हुमायूं अब निर्वासित हो चुका था, लेकिन उसने वापस दिल्ली पर कब्जे की आस नहीं छोड़ी। 1545 में शेरशाह सूरी की मौत के बाद राज्य कमजोर पड़ने लगा। इसी मौके के इंतजार में बैठे हुमायूं ने दिल्ली में धावा बोल दिया और 1555 में वापस दिल्ली को अपने कब्जे में ले लिया। अभी भी उसकी राजधानी आगरा ही थी। कुछ महीनों बाद हुमायूं की मौत हो जाती है और अकबर गद्दी पर बैठता है। अकबर के शासनकाल में ही मुगल साम्राज्य को भारी विस्तार मिलता है। इसने अपनी राजधानी आगरा से फतेहपुर सीकरी उसके बाद लाहौर और वापस आगरा में स्थापित की।
अकबर के बाद जहांगीर, शाहजहां, औरंगजेब, बहादुर शाह जफर ने मुगल सल्तनत की कमान संभाली। शाहजहां के 1628 से 1658 के दौर में मुगलों ने अपनी राजधानी दिल्ली में बनाई। शाहजहां ने शाहजहांनाबाद बनाया और आगरा से यहां शिफ्ट कर गया। 1750 आते-आते मुगल साम्राज्य कमजोर पड़ गया। तब तक भारत में अंग्रेज भी पहुंच गए थे। उन्होंने धीरे-धीरे देश पर कब्जा जमाना शुरू किया। 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने बहादुर शाह जफर से जंग लड़कर दिल्ली को अपने कब्जे में ले लिया।
ब्रिटिश राज की राजधानी दिल्ली
18वीं शताब्दी के अंत और 19वीं शताब्दी की शुरुआत तक अंग्रजों ने लगभग पूरे भारत में कब्जा कर लिया था। उन्होंने 1772 से ही कलकत्ता को अपनी राजधानी के रूप में स्थापित किया था। हालांकि, 20वीं शताब्दी के शुरुआत से अंग्रजों के खिलाफ बयार चल पड़ी। उन दिनों कलकत्ता (अब कोलकाता) ही भारत में अंग्रेजी सरकार की राजधानी हुआ करता था। हालांकि, 1905 में जब बंगाल का बंटवारा हुआ तो बंगालियों के मन में अंग्रजों के खिलाफ विद्रोह फूट गया। साम, दाम, दंड भेद सभी तरीकों से अंग्रेजों ने इसे दबाने की कोशिश की लेकिन उनका कोई भी हथकंडा काम नहीं आया। मजबूरन उनको कोलकाता छोड़ने का फैसला लेना पड़ा। अंग्रेज उन दिनों की प्रचलित कहावत (दिल्ली में दौर ज्यादा नहीं चलता) बखूबी जानते थे। इसके बाद भी बंगाल के विरोध ने उन्हें कलकत्ता छोड़ने पर मजबूर कर दिया।
12 दिसंबर 1911 को किंग जॉर्ज पंचम ने भारत आकर दिल्ली में एक दरबार लगाया। इसमें देशभर के राजे-रजवाड़े और राजघरानों के साथ क्षेत्रीय नुमाइंदे पहुंचे। कहा जाता है उन दिनों 4 लाख की आबादी वाले शहर में करीब 80 हजार लोग इस सभा के लिए जुटे थे। इन्हीं 80 हजार लोगों के सामने किंग जॉर्ज पंचम ने दिल्ली को भारत की राजधानी घोषित कर दिया। इसके बाद आधुनिक दिल्ली को सवारने की मुहिम चल पड़ी। अंग्रजों ने यहां अपनी छाप छोड़ने के लिए कई इमारतें बनवाईं। इसके लिए ब्रिटिश आर्किटेक्ट एडवर्ड लुटियंस और सर हर्बट बेकर को जिम्मेदारी दी गई थी। नए शहर को बनने में 20 साल का समय लग गया और आखिरकार 13 फरवरी 1931 को दिल्ली नई राजधानी बन गई। हालांकि बहुत दिनों तक दिल्ली में अंग्रजों का राज नहीं चला। 1947 में उन्हें दिल्ली, हिंदुस्तान के लोगों के हवाले करनी पड़ी। तब से दिल्ली हमारे दिल में है और देश की आन, बान, शान बनी हुई है।
1857 में ही जीत ली थी दिल्ली
ऐसा नहीं था कि 1911 से पहले यहां अंग्रेज नहीं थे। ईस्ट इंडिया कंपनी ने दिल्ली पर साल 1857 में ही कब्जा कर लिया था। 1857 के शुरुआती दिनों में ब्रिटिश सेना में शामिल भारतीय जवानों को एनफील्ड राइफल दी गई। इसे लोड करने के लिए मुंह से खोलना पड़ता था। बात ये फैली की इसे सुअर और गाय की चर्बी से बनाया गया है। नतीजा ये हुआ कि सैनिक विरोध में उतर आए। मेरठ की जेल से शुरू हुआ आंदोलन पूरे देश में फैल गया था। भारतीय सैनिक 10 मई 1857 को दिल्ली पहुंचे और बहादुर शाह जफर को अपना नेता घोषित कर दिया।
जब देश में ये बात फैली तो लोगों ने मान लिया की अब अंग्रेजों का सफाया जाएगा। इसी का नतीजा ये हुआ की भारत के कोने-कोने में 1857 की क्रांति पहुंच गई। इधर अंग्रेजी सरकार चुप्पी साधे हुए नई रणनीति पर काम कर रही थी। ईस्ट इंडिया कंपनी ने इंग्लैंड से गोला-बारूद मंगवाए और उनके आने तक शांति से इंतजार किया। इस दौरान दिल्ली की घेराबंदी कर ली गई थी। 20 सितंबर को हथियार दिल्ली पहुंच गए। तत्काल अंग्रजों ने दिल्ली पर हमला कर उसे अपने कब्जे में ले लिया। अंग्रेजों के बर्बर सैनिकों ने बहादुर शाह जफर को रंगून की जेल भेज दिया। इससे पहले उनके सामने उनके 3 बेटों को गोली मार दी गई।
ऐसे बनी मार्डन दिल्ली
आज के दिल्ली की बात करें तो अभी भी यह केंद्र के अधीन है। हालांकि यहां की अपनी सरकार है। सिटी स्टेट कहलाने वाली दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग कोई आज की नहीं, बल्कि आजादी के पहले की है। जब देश की संविधान सभा प्रदेशों का नक्शा तैयार कर रही थी, तभी दिल्ली वालों ने राज्य की मांग उठा दी थी। हालांकि बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर इसके खिलाफ थे। वह इन बातों पर अधिक जोर दे रहे थे कि राजधानी दिल्ली के कानून संसद बनाएगी। यहां केंद्र की सरकार ही काम करेगी। स्थानीय प्रशासन की व्यवस्था बनाई जा सकती है, लेकिन उसे भी राष्ट्रपति के अधीन रखा जाएगा।
दिल्ली विधानसभा का गठन 17 मार्च 1952 को किया गया। इसके बाद 48 सीटों वाली दिल्ली में पहला चुनाव इसी महीने हुआ। कांग्रेस को 39 सीटों के साथ बहुमत मिला। पार्टी ने चौधरी ब्रह्म प्रकाश यादव को प्रदेश का पहला मुख्यमंत्री बनाया। 17 मार्च 1952 ब्रह्म प्रकाश यादव ने CM पद की शपथ ली। 12 फरवरी 1955 को उन्हें पद छोड़ना पड़ा। इसके बाद पार्टी ने उन दिनों के स्पीकर और दरियागंज से विधायक गुरुमुख निहाल सिंह को प्रदेश का मुखिया बना दिया। इस बीच 29 दिसंबर, 1953 को राज्य पुनर्गठन आयोग बन गया। 1 नवंबर 1956 को आयोग की सिफारिश पर दिल्ली की विधानसभा भंग कर दी गई। इसी समय भाषाई आधार पर आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक, मध्यप्रदेश का गठन हुआ और दिल्ली को केंद्रशासित प्रदेश बना दिया गया।
केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद दिल्ली का प्रशासन दिल्ली नगर निगम के हाथों में चला गया। यह बॉडी केंद्र के अधीन काम करती थी। सितंबर 1966 में 56 निर्वाचित और 5 मनोनीत सदस्यों वाली एक मेट्रोपोलिटन काउंसिल बनाई गई और इसे दिल्ली की जिम्मेदारी दी गई। उसके बाद 1987 में सरकारिया समिति बनती है जो एक बार फिर से दिल्ली में विधानसभा बहाल करने की सिफारिश करती है। इसी का परिणाम होता है कि 1993 में दिल्ली में फिर से विधानसभा की वापसी होती है और यहां चुनावों का दौर लौट आता है।
दिल्ली के चुनावी दौर और 2025 का चुनाव
साल 1993 में दिल्ली को विधानसभा मिलते ही चुनाव कराए गए। पहले ही चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को जीत मिली और मोती नगर से जीतकर आए कद्दावर नेता मदन लाल खुराना मुख्यमंत्री बने। हालांकि, अगले चुनाव आते-आते दिल्ली ने एक ही कार्यकाल में 2 और मुख्यमंत्री देखे। 26 फरवरी 1996 को साहिब सिंह वर्मा दिल्ली के मुख्यमंत्री बने और उसके बाद 12 अक्टूबर 1998 को सुषमा स्वराज्य ने दिल्ली सरकार की कमान हाथों में ली। इस बीच दिल्ली में अगले चुनाव आ गए।
साल 1998 में हुए चुनावों में कांग्रेस को प्रचंड बहुमत मिला। पार्टी ने शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री बनाया। शीला दीक्षित ने पार्टी और जनता का भरोसा ऐसा कायम रखा की अगले 15 साल तक वह दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बनी रहीं। इसी बीच अन्ना हजारे के लोकपाल आंदोलन से निकले अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी का गठन कर लिया। केजरीवाल ने साल 2013 के अपने पहले चुनावों में दिल्ली की 28 सीटों पर विजय रथ दौड़ा दिया। अरविंद केजरीवाल जिस कांग्रेस के खिलाफ लड़ रहे थे उसी के 8 विधायकों के सहारे प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए।
अरविंद केजरीवाल और कांग्रेस का बेमेल गठबंधन ज्यादा नहीं चल पाया और महज 49 दिनों के अंदर उनको इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद दिल्ली में 363 दिनों का राष्ट्रपति शासन लग गया। अगले चुनाव साल 2015 में हुए तो आम आदमी पार्टी ने प्रचंड बहुमत हासिल कर 67 सीटों के साथ सरकार बनाई। उसके बाद 9 साल, 316 दिनों तक अरविंद केजरीवाल ही दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे। इस बीच उनको शराब घोटाला केस में जेल यात्रा भी करनी पड़ी, लेकिन उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया। जमानत मिलने के बाद केजरीवाल ने इस्तीफा देकर आतिशी को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया। इन्हीं के नेतृत्व में पार्टी अब 2025 के विधानसभा चुनावों में पहुंच गई है।
विधानसभा चुनाव 2025
सदियों से कई वंश, शासक और सत्ता देखते हुए दिल्ली अब लोकतंत्र राज के अपने अगले विधानसभा चुनावों में पहुंच गई है। 7 जनवरी 2025 को चुनाव आयोग ने प्रदेश में मतदान और चुनावी कार्यक्रम का ऐलान कर दिया। दिल्ली की जनता 5 फरवरी को अपने मताधिकार का प्रयोग करेगी। परिणाम सबके सामने 8 फरवरी को आ जाएंगे।