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– श्यामदत्त चतुर्वेदी:
उत्तर प्रदेश के संभल की आग अभी बुझी भी नहीं थी कि एक और चिंगारी भड़काने की कवायद शुरू हो गई है। जो ताप अभी तक उत्तर प्रदेश में महसूस हो रहा था, उस बवाल की गर्मी राजस्थान पहुंचने वाली है। अजमेर की मशहूर ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह यानी अजमेर शरीफ को लेकर नया विवाद शुरू हो गया है।
अजमेर शरीफ में महादेव का मंदिर
अयोध्या-काशी-मथुरा और संभल की ही तरह अजमेर शरीफ दरगाह का मामला भी अब कोर्ट पहुंच चुका है। हिन्दू सेना की अर्जी में दावा किया गया है कि अजमेर शरीफ दरगाह असल में महादेव का मंदिर है। अजमेर की सिविल कोर्ट ने अर्जी को स्वीकार भी कर लिया और सभी पक्षकारों को नोटिस जारी करके जवाब मांगा है। अब इस अर्जी पर 20 दिसंबर को अगली सुनवाई होगी।
जज हरबिलास की किताब का हवाला
हिंदू सेना के इस दावे को लेकर ऑल इंडिया सज्जादानशीन काउंसिल के अध्यक्ष सैयद नसीरूद्दीन चिश्ती ने नाराजगी जताई। याचिका में रिटायर्ड जज हरबिलास सारदा की 1911 में लिखी किताब – अजमेर: हिस्टॉरिकल एंड डिस्क्रिप्टिव का हवाला दिया गया है। किताब में दरगाह के निर्माण में मंदिर का मलबा होने का दावा किया गया है। इसके साथ ही गर्भगृह और परिसर में एक जैन मंदिर होने की भी बात कही जा रही है।
अबकी बार मोहम्मद गौरी पर मंदिर तोड़ने का इल्जाम
पिछले कुछ दिनों में उत्तर प्रदेश के संभल में जो आग लगी उसकी चर्चा पूरे देश में हो रही है। इसे मंदिर बताने वाले दावे में बाबर का जिक्र किया गया है। तो अजमेर की ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह को भी शिव मंदिर बताने वाला दावा पेश हो चुका है और यहां इतिहास का किरदार मोहम्मद गौरी मैदान में है। दावा यही है कि मोहम्मद गौरी के समय अजमेर में मंदिर हुआ करता था। इस संबंध में दायर याचिकाओं पर सिविल कोर्ट ने सुनवाई स्वीकार की है।
हिंदू सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ने याचिका लगाई है। उनके अनुसार, 12वीं-13वीं सदी में मोहम्मद गौरी के आक्रमण के दौरान इस स्थान पर स्थित शिव मंदिर को नष्ट करके दरगाह का निर्माण किया गया। यह दावा 1911 में रिटायर्ड जज हरबिलास शारदा की किताब ‘अजमेर: हिस्टोरिकल एंड डिस्क्रिप्टिव’ में दिए गए तथ्यों और दो साल की रिसर्च के आधार पर किया गया है। याचिका में यह मांग की गई है कि दरगाह को ‘भगवान श्री संकट मोचन महादेव विराजमान मंदिर’ घोषित किया जाए और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) को ज्ञानवापी की तर्ज पर स्थल का सर्वेक्षण करने का निर्देश दिया जाए।
याचिका में दावे के 3 आधार
– दरगाह के दरवाजों की नक्काशी: दरवाजों की संरचना हिंदू मंदिरों जैसी प्रतीत होती है।
– ऊपरी संरचना: दरगाह की गुंबद और अन्य हिस्से हिंदू मंदिरों के अवशेष की तरह दिखते हैं।
– पानी और झरने: दावा किया गया है कि शिव मंदिरों के पास जल स्रोत होते हैं, और यहां भी ऐसे जलस्रोत मौजूद हैं।
किताब में दरगाह में शिवलिंग होने का दावा
याचिकाकर्ता के वकील रामस्वरूप बिश्नोई ने सेवानिवृत्त न्यायाधीश हरविलास शारदा की पुस्तक का हवाला दिया, जिसमें बताया गया है कि दरगाह के निर्माण में हिंदू मंदिर के मलबे का इस्तेमाल किया गया था। पुस्तक में दरगाह के भीतर एक तहखाने का विवरण दिया गया है। जिसमें कथित तौर पर एक शिव लिंग होने का दावा है। पुस्तक में दरगाह की बनावट में जैन मंदिर के अवशेषों का उल्लेख किया गया है। दावे के मुताबिक इसके 75 फीट ऊंचे बुलंद दरवाजे के निर्माण में मंदिर के मलबे के तत्वों का भी इसमें वर्णन है।
दरगाह के प्रमुख ने जताई नाराजगी
अजमेर सिविल कोर्ट ने इस याचिका को सुनवाई योग्य मानते हुए अल्पसंख्यक मंत्रालय, दरगाह कमेटी और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को नोटिस जारी किया है। दरगाह प्रमुख उत्तराधिकारी नसरुद्दीन चिश्ती ने इन दावों को निराधार बताते हुए कहा कि यह देश की एकता और सहिष्णुता को खतरा पहुंचाने की कोशिश है। उन्होंने कहा कि 1950 में जस्टिस गुलाम हसन की कमेटी पहले ही यह स्पष्ट कर चुकी है कि दरगाह के परिसर में कभी कोई मंदिर नहीं था। उन्होंने यह भी कहा कि दरगाह को लेकर देशभर में ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में आस्था रखने वाले करोड़ों अनुयायी हैं। ऐसे दावे न केवल इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं, बल्कि सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाते हैं।
पृथ्वीराज चौहान के वंशजों ने बनवाए मंदिर
अजमेर के बारे में रोचक बात यह है कि अजमेर का हिन्दू शासक पृथ्वीराज चौहान था। जज हरविलास ने बताया कि अजमेर महायोद्धा पृथ्वीराज चौहान के वंशजों ने ही यह मंदिर बनाया था।
प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट का हवाला दिया
अदालत की कार्रवाई के जवाब में, दरगाह के जायरीन की देखरेख करने वाली अंजुमन समिति के सचिव सैयद सरवर चिश्ती ने ऐसे विवादों के निहितार्थों के बारे में चिंता जाहिर की। उन्होंने 1991 के प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट का हवाला दिया।
क्या कहता है प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट
1991 में लागू किया गया यह प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट कहता है कि 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता। चिश्ती ने दरगाह के 800 से अधिक वर्षों के लंबे इतिहास को रेखांकित किया और दरगाह पर एएसआई के अधिकार क्षेत्र को विवादित बताया, जो अल्पसंख्यक मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में है।
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