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अक्षय, अविनाशी, मोक्ष प्रदाता प्रयागराज का अक्षयवट, त्रिदेव की शक्ति से हुआ प्रकट, मां सीता ने दिया आशीर्वाद

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– विकास मिश्र:

तीर्थराज प्रयागराज की पावन धरा पर महाकुम्भ का आयोजन हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महाकुंभ पूजन करके एक तरह से महाकुंभ का उद्घोष कर दिया। महाकुम्भ यूं तो 13 जनवरी से लग रहा है, लेकिन अभी से ही साधु संत और नागा संन्यासी महाकुम्भ क्षेत्र में पहुंचने लगे हैं। महाकुंभ दुनिया का सबसे बड़ा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संगम है। यूनेस्को ने प्रयागराज महाकुंभ को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर बताया है। प्रयागराज में 71 देशों के ध्वज लहरा रहे हैं। यह बताता है कि प्रयागाराज में महाकुंभ की क्या महिमा है।

प्रयागराज में गंगा-यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी पर लगने वाले महाकुम्भ की जितनी मान्यता और महिमा है, उतनी ही महिमा है यहां के अक्षयवट की। प्रयागराज के अक्षयवट की महिमा धर्मशास्त्रों और पुराणों में वर्णित की गई है। मान्यता यह भी है कि अगर संगम में स्नान के बाद तीर्थयात्री अक्षयवट के दर्शन नहीं करता है तो उसे संगम स्नान का पुण्य नहीं मिलता। कहते हैं कि प्रयागराज का अक्षयवट हजारों वर्ष पुराना है। इसकी उम्र 3000 वर्ष से लेकर लगभग 5300 साल तक बताई जाती है।

अक्षयवट की धार्मिक महिमा

अक्षय वट का शाब्दिक अर्थ है बरगद का वह वृक्ष, जो अक्षय है, जिसका क्षय नहीं हो सकता। जो अविनाशी है। भारतीय धर्मशास्त्र तीर्थदीपिका में पांच अक्षयवटों का वर्णन आता है। इसमें लिखा गया है-

वृंदावने वटोवंशी प्रयागेय मनोरथाः।
गयायां अक्षयख्यातः कल्पस्तु पुरुषोत्तमे।
निष्कुंभ खलु लंकायां मूलैकः पंचधावटः।
स्तेषु वटमूलेषु सदा तिष्ठति माधवः।
त्रिवेणी माधवं सोमं भारद्वाजं च वासुकीम्।
वंदे अक्षयवटं शेषं प्रयागः तीर्थनायकम्।

यानी शास्त्रों में पांच अक्षयवटों की महिमा वर्णित है। ये हैं- वृंदावन में वंशीवट, प्रयागराज में अक्षयवट, उज्जैन में सिद्धवट, गया में गया वट और नासिक पंचवटी में पंचवट।

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार प्रलय काल में जब सब कुछ नष्ट हो जाएगा, तब भी अक्षयवट अविनाशी रहेगा। इसी संदर्भ में अक्षयवट को लेकर एक कथा श्रीमद्भागवत महापुराण में आती है। कथा के अनुसार मार्कंडेय मुनि ने कठिन तपस्या की थी। भगवान विष्णु ने मार्कंडेय मुनि को दर्शन दिए। उनसे वरदान मांगने के लिए कहा। मार्कंडेय मुनि ने कहा-मुझे आपसे कोई वरदान नहीं चाहिए, बस मैं आपकी माया का प्रभाव देखना चाहता हूं। इसके बाद मार्कंडेय मुनि को प्रत्यक्ष प्रलय का रूप दिखाई दिया। पूरी पृथ्वी जलमग्न थी। सब कुछ डूब चुका था, लेकिन अक्षयवट नित्य था, अविनाशी था। अक्षयवट का सहारा लेकर उन्होंने अपने प्राण बचाए। मार्कंडेय मुनि ने सृष्टि और प्रलय का रूप देख लिया था। पूरा चक्र अनुभव कर लिया था। प्रलय काल में अपना हाल देखा। इसके बाद उन्होंने देखा कि अक्षयवट के पत्ते पर भगवान बालमुकुंद स्वरूप में लेटे हुए हैं। अपने पांव का अंगूठा मुंह में लिए हुए हैं। भगवान विष्णु का बालमुकुंद या बालमाधव रूप देखकर मार्कंडेय मुनि अभिभूत हो गए। उन्हें यह पल एक कल्प तरह लगा। इस नाते अक्षयवट को कल्पवृक्ष भी कहा जाता है।

ब्रह्मा-विष्णु-महेश के शक्ति पुंज से प्रगट हुआ अक्षयवट

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार अक्षयवट का त्रिदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश से नाता है। पृथ्वी की रक्षा के लिए भगवान ब्रह्मा ने प्रयागराज में विशाल महायज्ञ किया था। इस महायज्ञ में ब्रह्मा जी स्वयं पुरोहित बने थे। भगवान विष्णु इस महायज्ञ के यजमान थे। भगवान शिव इस यज्ञ के देवता थे। तीनों देवों के सामने प्रश्न था कि पृथ्वी को पापों के भार से बचाने के लिए क्या किया जाए। तो तीनों देवों ने अपने शक्ति पुंज से एक वृक्ष को उत्पन्न किया। यही वृक्ष अक्षयवट के रूप में प्रतिष्ठित है। उन्होंने यह मान्यता दी कि पृथ्वी पर प्राणी जितने भी पाप करेगा, उसका भार अक्षयवट अपने ऊपर उठा लेगा।

मां सीता ने दिया अक्षयवट को अद्भुत आशीर्वाद

वाल्मीकि रामायण में ऐसा वर्णन मिलता है कि जब भगवान राम माता सीता और भाई लक्ष्मण के साथ वन में गए तो उनके गुरु भारद्वाज मुनि ने उनसे कहा कि दोनों भाई प्रयागराज में गंगा-यमुना-सरस्वती की त्रिवेणी पर जाएं। वहां से यमुना के पार उतर जाएं। वहां पर उन्हें बहुत बड़ा बरगद का पेड़ मिलेगा। वह पेड़ चारों तरफ से दूसरे वृक्षों से घिरा हुआ होगा। उसकी छाया में बहुत से सिद्ध महात्मा रहते हैं। गुरु की आज्ञा मानकर भगवान राम पत्नी सीता और लक्ष्मण के साथ प्रयागराज गए, उन्होंने अक्षयवट के दर्शन किए। रामचरित मानस में भी गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-

पूजहि माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहि गाता।

भगवान राम ने माता सीता और भाई लक्ष्मण के साथ अक्षयवट के नीचे तीन रातें बिताई। पौराणिक आख्यान के अनुसार जब राजा दशरथ की मृत्यु हुई तो भगवान राम पिता के पिंडदान के लिए सामग्री इकट्ठा करने के लिए आसपास कहीं चले गए। उस वक्त माता सीता अकेली थीं और अक्षयवट के नीचे बैठी थीं। इसी बीच दशरथ जी प्रकट हुए और सीताजी से बोले- ‘मुझे बहुत भूख लगीहै, जल्दी से पिडदान करो।‘ उस वक्त माता सीता ने भूख से व्याकुल अपने पिता तुल्य ससुर को देखा तो बेचैन हो गईं, उन्होंने अक्षय वट के नीचे बालू का पिंड बनाकर राजा दशरथ के लिए दान कर दिया। उन्होंने अक्षय वट को ही ब्राह्मण माना, तुलसी और गाय माना, सारी दान दक्षिणा अक्षयवट को अर्पित कर दी। जब भगवान राम पिंडदान की सारी सामग्री लेकर अक्षयवट पहुंचे तो माता सीता ने कहा कि पिंडदान तो हो गया। कहते हैं कि उस दौरान नदी ने फिर से दक्षिणा पाने की लालच में श्रीराम से कह दिया कि कोई पिंडदान नहीं हुआ है। इस पर अक्षयवट ने रामचंद्र की मुद्रा रूपी दक्षिणा को प्रकट कर दिया। इस पर सीता जी ने प्रसन्न होकर अक्षय वट को आशीर्वाद दिया। माता सीता ने कहा- संगम स्नान करने के बाद जो कोई अक्षयवट के दर्शन करेगा, पूजन करेगा, उसको ही संगम में स्नान का पुण्य प्राप्त होगा। संगम स्नान के बाद अगर अक्षयवट के दर्शन नहीं करेगा, उसका संगम स्नान व्यर्थ चला जाएगा। माता सीता ने अक्षयवट को यह भी आशीर्वाद दिया कि प्रलय काल में जब धरती जलमग्न हो जाएगी और सब कुछ नष्ट हो जाएगा तब भी अक्षयवट ऐसे ही विद्यमान रहेगा।

बौद्ध और जैन धर्म से भी अक्षयवट का नाता

अक्षयवट तो सभी धर्मों के लिए पूज्य वृक्ष माना जाता है। बौद्ध धर्म ग्रंथों के अनुसार गौतम बुद्ध ने कैलाश पर्वत के निकट प्रयाग के अक्षयवट का एक बीज बोया था। वहीं जैन धर्मावलंबियों की ऐसी मान्यता है कि तीर्थंकर ऋषभदेव ने प्रयागराज में अक्षयवट के नीचे कड़ी तपस्या की थी। इस स्थान को ऋषभदेव तपस्थली और तपोवन के नाम से भी जाना जाता है। 623 ईसवी में भारत घूमने आए व्हेनत्सांग ने भी अक्षयवट का वर्णन किया है। उसने लिखा है- नगर में एक देव मंदिर है, जो अपनी सजावट और विशेष चमत्कारों के लिए विख्यात है। मंदिर के आंगन में एक विशाल वृक्ष है, जिसकी शाखाएं और पत्तियां बड़े क्षेत्र तक फैली हुई हैं।

अकबर और जहांगीर ने मिटाना चाहा अक्षयवट का अस्तित्व

अक्षय और अविनाशी, हिंदुओं की आस्था का प्रतीक अक्षयवट मुस्लिम शासकों को कभी रास नहीं आया। जहां पर अक्षयवट था, वहीं पर यमुना किनारे मुगल शासक अकबर ने अपना किला बनवाना शुरू किया। किले के निर्माण के समय अकबर ने अक्षयवट पर कुल्हाड़ियां चलवा दीं। अकबर के वश में सिर्फ अक्षयवट का तना और शाखाएं कटवाना ही था। इसी नाते अक्षयवट समूल नष्ट नहीं हुआ। ऐसी मान्यता है कि अकबर ने अक्षयवट को 23 बार कटवाया, उसमें आग भी लगवाई, लेकिन उसे नष्ट नहीं कर पाया। कटने के कुछ ही महीने बाद अक्षयवट फिर से हरा-भरा हो जाता था। इससे हारकर अकबर ने अक्षयवट को बंद करने का फैसला किया। इसके लिए विशाल घेरा बनाया गया, जिसमें जाने की इजाजत किसी को भी नहीं थी।

इसके बाद अकबर ने अपना किला बनवाया।

अक्षयवट की जड़ों के बारे में मान्यता है कि उसकी जड़ें तो पाताल की गहराई तक हैं। बार बार काटे जाने के बाद भी इन्हीं जड़ों से नए वटवृक्ष बन गए, जो अक्षयवट की जड़ों की ही शाखाएं हैं। इस वृक्ष के तने का एक भाग पातालपुरी में स्थापित कर दिया गया। जिस जगह अक्षयवट था, उसके पास अकबर ने रानीमहल बनवा दिया, लेकिन पातालपुरी में अक्षयवट अक्षय रूप में विद्यमान ही रहा। कहते हैं कि पठान राजाओं ने भी अक्षयवट को नष्ट करने के प्रयत्न किए, लेकिन नाकाम रहे। 1693 में खुलासत उत्वारीख नाम की किताब में लिखा है कि मुगल शासक जहांगीर ने फरमान जारी करके अक्षयवट को कटवा दिया था, लेकिन अक्षयवट फिर पनप गया। औरंगजेब के बारे में कहते हैं कि उसने अक्षयवट को नष्ट करने के लिए इसकी जड़ों को खुदवाकर निकलवाया। इसके बाद जड़ों में तेजाब भी डलवाया। फिर भी अक्षयवट अविनाशी ही बना रहा ।

प्रधानमंत्री मोदी ने हटवाई अक्षयवट के दर्शन की बाधा

प्रयागराज में अक्षयवट जहां है, वहां अक्षयवट मंदिर बना हुआ है। प्रयागराज जंक्शन से इसकी दूरी 7 किलोमीटर है। यह संगम तट के बिल्कुल पास है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर धर्मराज की मूर्ति है और निकास द्वार पर मृत्यु के देवता यमराज की मूर्ति। यानी जीवन और मरण चक्र का दर्शन है इस मंदिर में। मंदिर में छठीं शताब्दी की मूर्तियां हैं, यहीं पर वह स्थान भी है, जहां त्रेता युग में माता सीता ने अपने कंगन दान किए थे। यहां पर गुप्त दान का विशेष महत्व है। यहीं पर भगवान शिव अर्धनारीश्वर रूप में विद्यामान हैं। यहां एक अखंड ज्योति भी है जो हमेशा प्रज्जवलित रहती है, यह अखंड ज्योति भगवान शनि को समर्पित है। मंदिर में अक्षयवट और सरस्वती कूप भी है। अकबर ने यहां अक्षयवट के दर्शन पर रोक लगा दी थी। अंग्रेजों के राज में भी यह पाबंदी जारी रही, यहां तक कि भारत आजाद हो गया, फिर भी तीर्थयात्री अक्षयवट के दर्शन नहीं कर पाते थे। किले में पीछे की ओर पातालपुरी मंदिर में स्थित वटवृक्ष के दर्शन करके श्रद्धालु भारी मन से वापस आ जाते थे। 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनी और मोदी सरकार ने वर्ष 2018 में अक्षयवट का दर्शन व पूजन सभी के लिए सुलभ करवा दिया। इस तरह 450 साल बाद श्रद्धालुओं को अक्षयवट के दर्शन की स्वतंत्रता मिली। अब प्रतिदिन तीर्थय़ात्री सुबह 7 बजे से रात 8 बजे तक अक्षयवट के दर्शन कर सकते हैं।

मोक्ष प्रदाता है अक्षयवट

अक्षयवट सृष्टि के विकास और प्रलय का साक्षी है। पद्मपुराण में अक्षयवट को प्रयागराज का छत्र कहा गया है। पौराणिक और धार्मिक मान्यता के अनुसार अक्षयवट के दर्शन मात्र से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। अक्षयवट को भगवान विष्णु का साक्षात विग्रह माना जाता है। अक्षयवट की मान्यता द्वादश माधव के रूप में भी होती है। यही वजह है कि प्रयागराज में संगम स्नान के बाद श्रद्धालु अक्षयवट के दर्शन अवश्य करते हैं। अक्षयवट को मोक्ष प्रदाता भी कहा जाता है। प्रयाग माहात्म्य, पद्मपुराण और स्कंद पुराण में अक्षयवट के दर्शन को मोक्ष का माध्यम बताया गया है। इस मान्यता का विपरीत परिणाम यह हुआ कि मोक्ष की कामना में श्रद्धालु अक्षयवट पर चढ़ जाते थे और यमुना में कूदकर जान दे देते थे। उन्हें विश्वास था कि ऐसा करने से उन्हें पापों से मुक्ति मिलेगी और मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी। इसी वजह से अकबर ने अक्षयवट के दर्शन पर रोक ही लगा दी थी।

सरस्वती कूप का रहस्य

अक्षयवट के पास ही स्थित है सरस्वती कूप। मान्यता के अनुसार माता सरस्वती धरती के भीतर एक कूप में समा गई थीं। इसके बाद प्रयागराज के नगर देवता भगवान वेणी माधव ने उनकी आराधना की। उनकी तपस्या से माता सरस्वती प्रसन्न हुईं। कूप से निकलकर वेणी माधव को दर्शन दिए। भगवान वेणी माधव ने उनसे विनती की- हे माता सरस्वती यहां पर मां गंगा और यमुना श्रद्धा और भक्ति के रूप में विद्यमान हैं। आप इनके पवित्र संगम के बीच ज्ञान की देवी के रूप में सदा के लिए विराजमान हो जाएं। माता सरस्वती ने भगवान वेणी माधव की प्रार्थना स्वीकार कर ली। सरस्वती कूप वही स्थल है, जहां से माता सरस्वती प्रकट हुई थीं। यह धरती का सबसे पवित्र कूप माना जाता है। कहते हैं कि संगम में जो माता सरस्वती अदृश्य रूप में हैं, वे इसी कूप में निवास करती हैं। मत्स्य पुराण में सरस्वती कूप की अद्भुत महिमा बताई गई है। सरस्वती नदी का उद्गम स्थल उत्तराखंड के बद्रीनाथ के पास माणा गांव है। वहां के पर्वतीय क्षेत्र से माता सरस्वती निकली हैं। कहते हैं कि पांडव इसी नदी को पार करके स्वर्गलोक की सीढ़ी चढ़ने गए थे। यहां से सरस्वती नदी प्रयागराज तक आती थीं, लेकिन कालांतर में उनकी धारा लुप्त हो गई। मान्यता यह भी है कि प्रयागराज में अक्षयवट के पास सरस्वती कूप में आज भी माता सरस्वती का जल विद्यमान है। सरस्वती कूप के दर्शन से मनचाहा फल प्राप्त होता है।

महाकुंभ में श्रद्धालु कॉरिडोर से करेंगे अक्षयवट के दर्शन

पिछले 13 दिसंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रयागराज में अक्षयवट कॉरिडोर का उद्घाटन किया। दस एकड़ में बना यह कॉरिडोर अद्भुत है। महाकुंभ में यह कॉरिडोर आकर्षण का केंद्र होगा। कॉरिडोर में स्थापित सप्तऋषि और अक्षय वट के पत्ते पर बाल गोपाल की मूर्ति की छवि देखते ही बन रही है। सरस्वती कूप के नीचे माता सरस्वती की वीणा के साथ मूर्ति लगाई गई है। कूप के चारों ओर फाउंटेन लगाया गया है। यह कॉरिडोर तीन मंदिरों को मिलाकर बनाया गया है। इसमें मकराना मारबल का प्रयोग किया गया है। पातालपुरी मंदिर में स्थित अक्षय वट सबसे पुराना मंदिर है। इसमें ब्रह्मा जी द्बारा स्थापित वो शूल टंकेश्वर शिवलिग भी है, जिस पर अकबर की पत्नी जोधा बाई जलाभिषेक करती थीं। शूल टंकेश्वर मंदिर में जलाभिषेक का जल सीधे अक्षय वट वृक्ष की जड़ में जाता है। वहां से जमीन के अंदर से होते हुए सीधे संगम में मिलता है। पातालपुरी मंदिर में धर्मराज, अन्नपूर्णा, विष्णु भगवान, लक्ष्मी जी, श्री गणेश गौरी, महादेव, दुर्वासा ऋषि, वाल्मीकि, बैद्यनाथ, महादेव काल भैरव, ललिता देवी, गंगा जी, यमुना जी, सरस्वती देवी, नरसिंह भगवान, सूर्यनारायण समेत कुल 43 मूर्तियां हैं। अगर आप तीर्थराज प्रयागराज के महाकुम्भ में जा रहे हैं तो संगम स्नान के बाद अक्षयवट के दर्शन करना न भूलें, क्योंकि अक्षयवट से ही मिलेगा मोक्ष का मार्ग।

Author

  • Vikas Mishra - Dayitva Media

    पत्रकारिता में लगभग 30 साल का अनुभव। 10 साल प्रिंट मीडिया, 18 साल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में रहे। आजतक न्यूज चैनल में 11 साल तक डेप्युटी एग्जीक्यूटिव एडिटर और न्यूज नेशन चैनल में एक्जीक्यूटिव एडिटर के तौर पर काम किया। वर्तमान में दायित्व मीडिया में एग्जीक्यूटिव एडिटर के तौर पर कार्यरत।

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