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एक आईएएस अधिकारी ने ढूंढ़ निकाली बच्चों के कुपोषण से लड़ने की चमत्कारी मशीन, दायित्व निभाया तो हो गया आसमान में सुराख

Fighting malnutrition in India - Dayitva Media
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– गोपाल शुक्ल:

कौन कहता है आसमान में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो। करीब करीब 60 साल पहले दुष्यंत कुमार ने ये शेर कहा था, और आज की तारीख में ये शेर महाराष्ट्र के एक आईएएस अधिकारी शुभम गुप्ता पर पूरी तरह से फिट बैठता है, क्योंकि शुभम गुप्ता ने आम धारणाओं को तोड़ते हुए न सिर्फ एक स्कूल से कुपोषण को खदेड़ दिया, बल्कि नई टेक्नोलॉजी एआई का इस्तेमाल करके बता दिया कि अगर तमीज हो तो ये एआई बोतल में बंद वो जिन्न हो सकता है जिससे जो चाहो वो काम करवा लो और जब चाहो बोतल में बंद करके रख लो।

कुपोषित बच्चों का स्कूल

महाराष्ट्र के गढ़चिरौली के एटापल्ली में एक स्कूल है। टोडसा आश्रम स्कूल। इस स्कूल में आदिवासी बच्चे पढ़ते हैं। कुछ अरसा पहले यहां के बच्चों की बस इतनी सी कहानी थी। कमजोर शरीर, थकी हुई आंखें और पढ़ाई में ध्यान देने की कमी। टोडसा आश्रम स्कूल में कुपोषण का साया बच्चों की जिंदगी पर भारी पड़ रहा था। लेकिन आज ये आदिवासी स्कूल सिर्फ महाराष्ट्र ही में नहीं बल्कि जहां जहां मीडिया पहुँच सकता है वहां इसका नाम है।

कुछ अरसा पहले की ही तो बात है जब यहाँ पढ़ने वाले आदिवासी बच्चों की सेहत को लेकर अदना से लेकर आला अधिकारी तक और स्थानीय प्रशासन से लेकर स्कूल के टीचर तक सब फिक्रमंद थे। आखिर क्या ऐसा किया जाए कि बच्चों को जकड़ कर बैठकर इस नामुराद बीमारी या हालात से छुटकारा दिलाया जा सके। इसी चिंता को दूर करने के लिए आईएएस अधिकारी शुभम गुप्ता ने एक ऐसी अनोखी पहल कर डाली कि पूरे देश में मिसाल बनकर उभर आए। आईएएस अधिकारी शुभम गुप्ता ने ऐसा कुछ नहीं किया जिसे समझना किसी रॉकेट साइंस की थ्योरी को समझने जितना मुश्किल है। बल्कि शुभम गुप्ता ने वो किया जो एक प्रशासनिक अधिकारी का दायित्व बनता है। शुभम गुप्ता ने वहीं किया जो इस ओहदे पर बैठे अधिकारियों से उम्मीद और अपेक्षा की जा सकती है।

कुपोषण के खिलाफ मोर्चा खोला

कैसे एक आईएएस अधिकारी ने तकनीक को हथियार बनाकर सरकारी स्कूलों में छात्रों के बीच पनप रहे कुपोषण के खिलाफ मोर्चा ही खोल दिया। ये पूरा सफर बेहद दिलचस्प है, जो दायित्व की याद भी दिलाता है।

14 महीने पहले शुरू हुई लड़ाई

ये सिलसिला 14 महीने पहले शुरू हुआ था। बात अक्टूबर 2022 की है। आईएएस अधिकारी शुभम गुप्ता ने महाराष्ट्र के टोडसा आश्रम स्कूल में कुपोषण से जंग लड़ने के लिए जब सोचा कि इस बच्चों में कुपोषण की मुसीबत से मुकाबला करने के लिए, क्या किया जा सकता है, तो जो ख्याल सबसे पहले उनके दिमाग में आया वो था, ”जब समस्या बड़ी है, तो इसका समाधान भी बड़ा होना चाहिए।”

एक स्कूल की कहानी, जो सबको सिखाएगी

दरअसल एटापल्ली में सहायक कलेक्टर के तौर पर तैनात शुभम गुप्ता एकीकृत जनजातीय विकास परियोजना के प्रोजेक्ट अफसर थे। हालांकि उनकी जिम्मेदारी तो थी कि बच्चों के लिए चलाई जा रही तमाम सरकारी योजनाओं को अमल में लाना। लेकिन शुभम गुप्ता अचानक एक जगह जाकर अटक गए जब उन्होंने स्कूलों का दौरा किया तो वहां उन्हें बच्चे कमजोर नज़र आए। खुद शुभम कहा कहना है कि एक परियोजना अधिकारी के नाते टीचरों के साथ सरकारी स्कूलों में जाते थे। टोडसा आश्रम स्कूल के दौरे पर, देखा कि लड़कियाँ काफी कमजोर लग रही थीं। बस यहीं से उनके दिल में एक बात बैठ गई। जब सरकार इन बच्चों के लिए मिड डे मील भिजवाती है, और उसे हर बच्चे तक पहुँचाने का इंतजाम करती है तो फिर दिक्कत कहां है। तो फिर समस्या कहाँ है? आखिर ये बच्चें इतने कमजोर क्यों हैं? लिहाजा शुभम गुप्ता ने सर्वे करवाया, सर्वे के बाद रिजल्ट मिला तो वो बुरी तरह चौंक गए, क्योंकि स्कूल में 222 लड़कियों में से 61 लड़कियां कुपोषण का शिकार थीं।

कुपोषण और एआई का नया हथियार

इस समस्या का पता चलने के बादग उन्होंने फीडिंग इंडिया और उद्योग यंत्र के साथ मिलकर उस स्कूल में एक एआई मशीन लगवाई। ये मशीन किसी सुपरहीरो की तरह काम करती है। खाने के हर निवाले का एक्स-रे लेकर उसकी पोषण वैल्यू बताती है। यह एआई मशीन जांच करती है कि बच्चों को खाना कितना पोषण दे रहा है। इसमें प्रोटीन, कैलोरी, और जरूरी विटामिन्स की सटीक जानकारी दी जाती है। और यही नहीं, अगर खाना पोषण के मापदंडों से कम है, तो तुरंत अलर्ट भी देती है। सोच यही थी कि जब एआई सब कुछ कर सकती है तो क्यों नहीं उसका इस्तेमाल बच्चों के कुपोषण से लड़ने के लिए किया जाए।

दिखा दायित्व निभाने का असर

आईएएस अफसर शुभम गुप्ता ने समस्या का पता तो लगा लिया लेकिन उसका समाधान कैसे किया इसका जायजा लेने से पहले जरा इन आंकड़ों पर एक नज़र डालनी शायद जरूरी है क्योंकि तभी शुभम गुप्ता के काम और उसके दायित्व असर का मतलब समझा जा सकेगा।

  • मार्च 2023 तक के नवीनतम आंकड़े सरकार के पोषण ट्रैकर के नतीजों का खुलासा करते हैं।
  • महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने मार्च 2021 में मोबाइल ऐप को शुरू किया था। इसका इस्तेमाल स्टंटिंग और कम वजन के फैलते मर्ज की पहचान करने के साथ-साथ पोषण सेवा वितरण के अंतिम मील पर नज़र रखने के लिए किया जाता है।
  • सीधे शब्दों में कहें तो ये ट्रैकर आंगनवाड़ी केंद्रों को यह पहचानने में सहायता करने का एक प्रयास था कि किन बच्चों को पोषक तत्वों का उचित अधिकार नहीं मिल पा रहा है।
  • मार्च 2023 में, जब दो साल के डेटा के नतीजों सामने आए तो पता चला कि भारत में 14 लाख से अधिक बच्चे “गंभीर रूप से कुपोषित” हैं। तभी से ये बहस तेज हो गई कि बच्चों की पोषण जरूरतों को बेहतर ढंग से कैसे देखा जा सकता है।

डरावने हैं कुपोषण के आंकड़े

भारत में कुपोषण की जड़ें कितनी गहरी हैं, ये आंकड़े आपको सोचने पर मजबूर कर देते हैं

  • देश में हर तीसरा बच्चा कुपोषित है।
  • 19% बच्चे गंभीर कमजोरी का शिकार हैं।
  • 32% बच्चे स्टंटिंग से जूझ रहे हैं, यानी उनकी लंबाई उम्र के हिसाब से कम है।
  • 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मौत में 45% योगदान कुपोषण का है।

भुगतना पड़ता है बच्चों को

2020 में महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में अपनी पोस्टिंग के दौरान आईएएस शुभम गुप्ता का पहली बार एटापल्ली के बेहद पिछड़े, गरीब, ग्रामीण समाज से सामना हुआ। ये ऐसा इलाका था जहां बुनियादी सुविधाएं भी मिलना मुश्किल था”। संसाधनों की इस कमी का खमियाजा इस नक्सली इलाके के आदिवासी बच्चों को भुगतना पड़ता है।

स्कूली बच्चों का कुपोषण बना एक रहस्य

अपने रोमांचित तजुर्बे को साझा करते हुए शुभम गुप्ता कहते हैं छात्रों को पूरा भोजन उपलब्ध कराए जाने के बावजूद वे कुपोषित क्यों थे, यह एक रहस्य बना हुआ था। शुभम गुप्ता की राय में, किताबी इबारतों और कायदे कानून के जरिए इस समस्या का हल नहीं निकल सकता। उसके लिए नजरिये में बदलाव की निहायत जरूरत थी। और उसके लिए नई टैक्नीक और नए आविष्कारों को अपना हथियार बनाने की जरूरत होगी।

दिक्कत की तह में जाने का इरादा

शुभम गुप्ता कहते हैं कि पहले तो अक्सर यही सुना जाता था कि लोग ऐसी समस्या को धन की कमी कहकर टाल देते थे। वे कहेंगे कि बच्चों को पोषक तत्व और भोजन न मिलने का यही कारण है। लेकिन सरकारी अधिकारी होने के नाते मुझे पता था कि बच्चों को भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है, तो फिर दिक्कत कहां है। लिहाजा मैंने इसकी तह तक जाने का इरादा किया। और इसके लिए तकनीक की आवश्यकता थी।

एआई बताएगा और बच्चों को बचाएगा

सच पूछो तो इस पूरी कोशिश की बुनियाद तकनीक पर आधारित है। इरादा एल्गोरिदम को समझकर भोजन की खरीद से लेकर भोजन वितरण तक की प्रक्रिया को पक्का करना। आईडी और पहले से दिए गए कोड की भाषा यहां आईएएस शुभम गुप्ता के काम आई, जिससे मशीन को बच्चों को परोसे जाने वाले भोजन की गुणवत्ता के पैटर्न को पहचानने और कमियों की पहचान करने का रास्ता साफ हो गया।

कुपोषण पर टेक्नोलॉजी का वार

इसके बाद बस इतना करना बाकी था कि प्री-फीड डेटा के साथ तैयार मशीन को जिला स्कूल में स्थापित किया जाए। प्रत्येक दोपहर के भोजन के समय लड़कियों को दिन भर के भोजन से भरी प्लेट के साथ मशीन के सामने कतार में खड़ा देखा जाता था। एक स्नैपशॉट के बाद, मशीन 2,100 छवियों और डेटा बिंदुओं के माध्यम से क्रॉल करेगी जिन्हें इसमें कोड किया गया था ताकि परिणाम का एक सेट दिया जा सके कि भोजन सही था या नहीं।

मशीन लगते ही सुधरने लगे मनुष्य

एआई मशीन की स्कैनिंग में खाने का तापमान, थाली में फल की मौजूदगी, खाने में दिए जा रहे अंडों की गुणवत्ता जैसी बातों की जांच के बाद जो नतीजे सामने आए वो हैरान करने वाले निकले। हैरान गुप्ता इस बात पर हंसते हैं कि बच्चों के घटते पोषण के असली कसूरवार का पता लगाने और किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले ही बच्चों की थाली में रखे अंडे और केले की गुणवत्ता अचानक सुधार गई।

निगरानी से सतर्क हुए लोग

शुभम गुप्ता साफ कहते हैं कि उनकी निगरानी का नतीजा ये भी हुआ कि लोग सतर्क हो गए। वे जानते थे कि भोजन पर कड़ी जाँच और पैनी निगाहें लग चुकी हैं। जिससे गुणवत्ता में महत्वपूर्ण सुधार हुआ। लेकिन फिर भी, मशीन के नतीजों को बताने से टीम को यह समझने में मदद मिली कि समस्या असल में कहां है।

गुप्ता कहते हैं, “हमने देखा कि कुछ मामलों में, बच्चे नाश्ता या फल बर्बाद कर रहे थे या नहीं खा रहे थे क्योंकि यह अधिक पका हुआ था या स्वादिष्ट नहीं लग रहा था।

बच्चों की थी दो समस्याएं

इस मामले में, दो समस्याएं हैं – एक यह कि अधिक पका हुआ फल बच्चों को सही मात्रा में पोषक तत्व नहीं दे पाता है, और दूसरी यह कि बच्चे जब इसे बर्बाद करते हैं तो उन्हें इसका एक भी हिस्सा नहीं मिल पाता।

तय मैन्यू को लागू करने की समस्या

सालों से सरकारी तंत्र से जुड़े होने की वजह से शुभम गुप्ता को तब समझ में आया कि कुपोषण की समस्या असल में इतनी गंभीर क्यों है? जबकि सरकार हर जिले को बच्चों की दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी भोजन मुहैया करवाती है। साथ ही एक सवाल ये भी खड़ा होता है कि आखिर जो मैन्यू तय कर दिया गया उसे ढंग से लागू क्यों नहीं किया जा पाता। मेन्यू एक मुद्दा क्यों है, इसका हवाला देते हुए गुप्ता कहते हैं, हम इसी नतीजे पर पहुँचे कि बच्चों को दिन में जो पांच चीजें परोसी जानी थीं, उनमें से केवल चार ही दी जा रही थीं।

जल्दी मिल गए मनमुताबिक नतीजे

इसे हल करने के लिए, गुप्ता और उनकी टीम ने स्कूल और जिला अधिकारियों के साथ लॉजिस्टिक्स पर काम किया। लेकिन फिर भी, भोजन की गिरती गुणवत्ता चिंता का विषय बनी हुई है। पानी वाली दाल, चिपचिपे गोंद में पकाए गए चावल और सख्त अंडे कुछ प्रमुख चिंताएँ थीं। आपूर्तिकर्ताओं के साथ महीनों तक मिलकर काम करने, कच्चे माल की जाँच करके यह सुनिश्चित करने के लिए कि उनका भंडारण सही तापमान पर है, और यह सुनिश्चित करना कि ये लापरवाही बार-बार न हो, जल्द ही अपना मनमुताबिक नतीजे देने लगा।

औचक निरीक्षण की थी तैयारी

बच्चों को दिये जाने वाले भोजन में काफी सुधार हुआ। इस प्रक्रिया में शामिल सभी लोगों को सचेत भी किया कि हम यह आकलन करने के लिए किसी भी दिन औचक निरीक्षण करेंगे कि सभी नियमों का पालन किया हो ये बात सुनिश्चित की जा सके।

सेहत और खाना दोनों सुधर गए

जैसे ही ये सारी चीजें अपने तय तरीके से होने लगी, बच्चों की सेहत और उनके खाने दोनों ही सुधरने लगे। नतीजा ये हुआ कि ऐसा कार्यक्रम महाराष्ट्र के दूसरे इलाकों तक पहुँचने लगा। इस बीच, अपने बीएमआई की जांच कराने के लिए पंक्ति में लगने वाले छात्रों की कतार लगभग खत्म हो गई है। लेकिन खुशी से चहक रहे शुभम की आवाज में एक दर्द उस कतार को देखकर झलक उठा। वो कहते हैं कि पिछले 61 की तुलना में 20 छात्र अभी भी कुपोषित हैं?
शुभम गुप्ता की यह पहल चमत्कारिक साबित हुई। टोडसा स्कूल में

  • 40% बच्चों का वजन बढ़ा।
  • 25% बच्चों की सेहत में सुधार हुआ।
  • स्कूल में बच्चों की उपस्थिति और पढ़ाई में रुचि भी बढ़ी।

मिसाल बन गए आईएएस अधिकारी

इन नतीजों ने दिखा दिया कि सही तकनीक और सही इरादे बदलाव के लिए बेहद जरूरी हैं। शुभम गुप्ता ने दिखा दिया कि बदलाव लाने के लिए बड़ी कुर्सी नहीं, बड़े इरादे चाहिए। अब हमारी बारी है। हमें अपना दायित्व समझना होगा कि बच्चों का पोषण सिर्फ उनके लिए नहीं, बल्कि पूरे देश के भविष्य के लिए जरूरी है।

Author

  • गोपाल शुक्ल - दायित्व मीडिया

    जुर्म, गुनाह, वारदात और हादसों की ख़बरों को फुरसत से चीड़-फाड़ करना मेरी अब आदत का हिस्सा है। खबर का पोस्टमॉर्टम करने का शौक भी है और रिसर्च करना मेरी फितरत। खबरों की दुनिया में उठना बैठना तो पिछले 34 सालों से चल रहा है। अखबार की पत्रकारिता करता था तो दैनिक जागरण और अमर उजाला से जुड़ा। जब टीवी की पत्रकारिता में आया तो आजतक यानी सबसे तेज चैनल से अपनी इस नई पारी को शुरु किया। फिर टीवी चैनलों में घूमने का एक छोटा सा सिलसिला बना। आजतक के बाद ज़ी न्यूज, उसके बाद फिर आजतक, वहां से नेटवर्क 18 और फिर वहां से लौटकर आजतक लौटा। कानपुर की पैदाइश और लखनऊ की परवरिश की वजह से फितरतन थोड़ा बेबाक और बेलौस भी हूं। खेल से पत्रकारिता का सिलसिला शुरू हुआ था लेकिन अब तमाम विषयों को छूना और फिर उस पर खबर लिखना शौक बन चुका है। मौजूदा वक्त में DAYITVA के सफर पर हूं बतौर Editor एक जिम्मेदारी का अहसास है।

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