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– गोपाल शुक्ल:
हिन्दुस्तान के भीतर शहर कोई भी हो, हमें तो घर से निकलते ही कुछ दूर चलते ही, मिलता है ट्रैफिक जाम और फिर उस जाम में एक साथ शुरू होती है टेंशन। टेंशन जल्दी पहुँचने की। टेंशन टाइम के बर्बाद होने की। टेंशन नौकरी की। टेंशन पेट्रोल जलने की। और टेंशन उस भीड़ भाड़ के बीच किसी के साथ होने वाले झंझटों की। बहुत कुछ होता है। समय बर्बाद होता है। पेट्रोल जलता है। बेचैनी में खून जलता है। ये कहानी किसी एक शहर या किसी एक इलाके की नहीं, बल्कि इस समस्या ने पूरे हिन्दुस्तान के हरेक शहर को अपनी गिरफ्त में ले रखा है।
हाईवे या नई सड़कें नहीं देंगी समाधान का रास्ता
मोटापे को कम करने के लिए क्या हम अपनी बेल्ट ढीली कर सकते हैं। क्योंकि इससे मोटापा तो कम नहीं होता, अलबत्ता बेल्ट ढीली करने वाले को कुछ वक्त के लिए ये दिमागी तौर पर राहत मिल जाती है कि अब बेल्ट कस नहीं रही यानी उसका मोटापा अखरने वाली हालत में नहीं है। ये बात ठीक उसी तरह है कि हम अपने शहरों के जानलेवा ट्रैफिक जाम की समस्या से निजात पाने के लिए वहां एक और सड़क या एक और हाइवे तैयार कर दें। एक अमेरिकी लेखक लुइस ममफोर्ड ने 1955 अपनी लिखी किताब ‘द सिटी इन हिस्ट्री’ में यही बात लिखी है। आज से करीब 70 साल पहले ममफोर्ड ने जो कुछ लिखा हम आज वो सब कुछ अपने आस पास होता हुआ देख रहे हैं।
तेज रफ्तार जिंदगी का हिस्सा रेंगता ट्रैफिक
शहरों या महानगरों का ये रेंगता हुआ ट्रैफिक सचमुच आज की इस तेज रफ्तार जिंदगी का सबसे अहम हिस्सा बन चुका है। हर कोई जो घर से निकलता है उसे कहीं न कहीं ट्रैफिक जाम का सामना करना ही पड़ता है। दिन का कोई भी वक्त हो ये ट्रैफिक जाम हमें कहीं न कहीं अटका ही देता है। तब लगता है कि दुनिया थम सी गई है। हमारी जल्दबाजी और मंजिल पर पहुंचने की बेताबी हमें अहसास देने लगती है कि ट्रैफ़िक की लाइट बदल ही नहीं रही है। कई कई बार मीलों लंबी लाइन लगी देखकर दिल घबरा जाता है। धीमा चलता, रेंगता ट्रैफ़िक दम घोंटता मालूम पड़ता है।

भीड़ को देखकर चरमराकर बैठ जाता है सिस्टम
ऐसा नहीं शहर का बंदोबस्त करने वाले बंदोबस्त में ट्रैफिक जाम दूर करने का सिस्टम नहीं है। मगर इस बेतहाशा भीड़ से वो सिस्टम में चरमराकर बैठ जाता है। सड़कों पर गाड़ियों की भीड़ हर रोज दिन दूनी रात चौगनी रफ्तार से बढ़ती जा रही है। हम ये भी देखते हैं कि हर रोज कोई न कोई नई सड़क, नए बाईपास और नए नए फ्लाईओवर बन रहे होते हैं। बावजूद इसके जाम की समस्या जस की तस वहीं खड़ी नज़र आती है। आलम ये है कि गाड़ियों को तीसरे या चौथे गियर में चलाने का मौका ही नहीं मिलता।
दो अरब गाड़ियों का बोझ होगा सड़कों पर
1991 में शुरू हुए उदारीकरण के बाद से इस मुल्क में जरूरतों और आदतों में बहुत तेजी से बदलाव हुआ। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक एक मोटा अनुमान ये है कि 2015 तक दुनिया भर में करीब 1.3 अरब गाड़ियां थीं। लेकिन बीते दस सालों के दौरान विकासशील देशों में गाड़ियों की बिक्री बेतहाशा बढ़ी है और उसी बिक्री को ध्यान में रखें तो 2040 तक दुनिया भर में क़रीब 2 अरब से ज्यादा गाड़ियां सड़कों पर होंगी।
दिल्ली के आंकड़ें डराते हैं
फास्ट एंड फ्यूरियस जैसी फिल्मों को देख देखकर ज्यादातर लोगों को हर जगह रफ्तार पसंद है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS- 5) के आँकड़े बताते हैं कि देश के 17.5 प्रतिशत परिवारों के पास अपनी कार हैं । 2009 में यह आँकड़ा 6 प्रतिशत का था । ठीक ऐसे ही 49.7 प्रतिशत परिवारों के पास दोपहिया वाहन हैं। 2018 में ये आँकड़ा 37.7 प्रतिशत का था । अगर साइकिल की बात करें तो 50.4 प्रतिशत परिवारों के पास साइकिल हैं । 2018 में यह आँकड़ा 52.1 प्रतिशत का ही था। आँकडे ये भी गवाही देते हैं कि सड़क पर कार और बाइक वालों की संख्या तेजी से बढ रही हैं, जबकि साइकिल वालो की तादाद कम हो रही हैं।
हाइवे बनाने की अब जगह ही नहीं बची
राजधानी दिल्ली की बात की जाए तो यहां 19.4 प्रतिशत परिवारों के पास अपनी कार हैं। जैसे-जैसे कारों की संख्या बढ़ रही हैं ट्रैफिक की समस्या भी उस रफ्तार से विकराल होती जा रही है। ट्रैफिक की समस्या से बचने के लिए और सुगम यातायात सुनिश्चित करने के लिए नए हाइवे लेन और एक्सप्रेस वे भी बनाए जा रहे हैं। आलम ये है कि बड़े शहरों में तो नए हाईवे लेन बनाने की जगह भी ना के बराबर बची हैं ।
कारें घेर लेती हैं सबसे ज्यादा जगह
पर्यावरण विषयों की लेखिका सुनीता नारायण ने अपनी पुस्तक कनफ्लिक्ट ऑफ इंट्रेस्ट में राजधानी दिल्ली के बारे में दिलचस्प आँकड़ा दिया। वो बताती हैं कि दिल्ली के 21 प्रतिशत क्षेत्रफल पर पहले ही सडकें बन चुकी हैं । इसके साथ ही वो ये भी बताती हैं कि दिल्ली के कुल सड़क यातायात के सिर्फ पंद्रह प्रतिशत लोग कार से सफर करते हैं, कुल रोड स्पेस का नब्बे प्रतिशत क्षेत्रफल कार ही घेर लेती हैं। यानी रोड स्पेस पर कारों का कब्जा हैं। बस, मोटर साइकिल, पैदल चालक, रिक्शा और साइकिल वालों के लिए रोड स्पेस पर बेहद कम जगह बचती हैं ।
कार के मुताबिक रोड का डिजाइन
यही नहीं रोड की डिजाइनिंग भी कार केंद्रित है । इन सारी चीजों का नतीजा ये है की हम साल दर साल नई रोड हाइवे लेन बनाते जाते हैं लेकिन कारों की संख्या हाइवे लेने से कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ती हैं। इससे ट्रैफिक की समस्या कम होने की बजाय बढती जा रही हैं।
अक्लमंद मशीनों ने समाधान दिलाने की उम्मीद बढ़ाई
अब सवाल यही है कि आखिर सुरसा के मुंह जैसे लगातार बढ़ती जा रही इस समस्या का समाधान क्या हो सकता है। इस जाम जैसी तकलीफ से निजात पाने के लिए लोग अक़्लमंद मशीनों यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की तरफ़ बड़ी उम्मीद से देख रहे हैं। उन्हें लगता है कि इस नई टैक्नोलॉजी की मदद से ट्रैफिक जाम से राहत मिल सकती है। कुछ लोग ख़ुद से चलने वाली गाड़ियों को इस मर्ज़ का इलाज मान रहे हैं। ऐसी धारणा है कि रोबोट से चलने वाली गाड़ियां हर लिहाज से ट्रैफ़िक नियम नहीं तोड़ेंगी। लेन में चलेंगी और मुश्किल वक़्त में ज़्यादा तेज़ी से फ़ैसले ले सकेंगी। लेकिन, अभी तो ये दूर की कौड़ी है। सड़कों पर सेल्फ ड्राइविंग कारों का असर दिखने में कम से कम 20 साल लग जाएंगे। और शहरों के नासूर बनती जा रही इस मुश्किल का फौरी इलाज क्या हो सकता है।
चींटियों की चाल में छिपा राज़
दुनिया भर के ट्रैफिक को निजात दिलाने की कोशिश में लगे वैज्ञानिकों को चीटियों की चाल बहुत आकर्षित करती है। वैज्ञानिकों को लगता है कि चीटियों के चलने फिरने का तौर तरीके और कतारबद्ध होकर एक अनुशासित तरीके से चलने की कला ही इंसानों की इस ट्रैफिक समस्या को सुलझा सकती है।

चींटियों से सीखें ट्रैफिक जाम मिटाने का मंत्र
दशकों से दुनिया की बड़ी बड़ी अर्थव्यवस्थाएं खरबों डॉलर खर्च करके ट्रैफिक की समस्या सुलझाने के लिए रास्ते तलाश करने में कोशिश कर रही हैं। लेकिन अब बहत इस बात पर घूमने लगी है कि ट्रैफिक की इस मूल समस्या को सुलझाने के लिए क्या हम चींटियों से कुछ सीख सकते हैं? एक सवाल और भी है कि क्या चीटियों का सिस्टम इंसानो पर कारगर हो सकता है? यह भी एक रोचक सवाल है।
चींटी मॉडल: ट्रैफिक जाम का सस्टेनेबल हल
ऐसा नहीं है कि जानवरों या जीवों से सीखकर इंसानों ने अपनी कोई समस्या नहीं सुलझाई। सच्चाई यही है कि इंसानों की ज्यादातर समस्याओं के समाधान जीवों से ही निकले हैं। धरती पर जितनी चींटियों हैं उतने तो अभी तक ब्रह्माण्ड में तारे भी नहीं होंगे। इसी धरती पर चींटियां भी कॉलोनी बना कर एक साथ रहती हैं। उनका भी अपना एक इको सिस्टम है। अरबों की संख्या में ये चीटिंया हजारों किलोमीटर के इलाके में फैली हैं मगर। उनमें ऐसी कभी ट्रैफिक जाम जैसी दिक्कत नहीं देखी गई। इस बात ने वैज्ञानिकों को बहुत आकर्षित किया है।
चींटी कॉलोनी से सड़कों तक: ट्रैफिक जाम के लिए नेचुरल प्लान
1990 के दशक में चींटियों का कतारबद्ध बर्ताव से प्रेरित एक एंट कॉलोनी ऑप्टिमाइमेजेशन एल्गॉरिदम को बहुत ही सफल रहा था। यह एल्गॉरिदम अब कठिन यातायात समस्याओं से निपटने के लिए उपयोग में लाया जाता है जिसमें वाहनों की डिलिवरी के बेड़े के लिए बहुत ही कारगर रास्ता पता किया जाता है। अपनी कतारों के ट्रैफिक को मैनेज करने में चींटियां बहुत ही शानदार होती हैं। जहां ज्यादा यातायात होने पर कारों की औसत गति कम हो जाती है, चाहे कितनी भी संख्या हो जाए चीटियां कभी धीमी नहीं पड़तीं। चींटियां वैकल्पिक रास्तों को तलाशती हैं। तो कई बार चींटियां छोटे समूह में यात्रा करती हैं, जिहें प्लाटून कहते हैं। यह चींटियों के यातायात को कारगर करने में सहायक होता है।
प्लाटून तंत्र से मिलेगी ट्रैफिक को रफ्तार
प्लाटून तंत्र का उपयोग वैज्ञानिक स्वचालित कारों के लिए प्रयोगों में कर रहे हैं जिसमें अचानक ब्रेक लगाने की जरूरत कम हो जाएगी और जाम लगने की समस्या में भी कमी आएगी। लेकिन चींटियां इंसान नहीं हैं इसलिए कई चुनौतियां हैं. एक अंतर यह है की चींटियों का साझा लक्ष्य होता जबकि इंसानों में हर व्यक्ति की यात्रा के अलग लक्ष्य होते हैं और वाहन चालकों का आपस में भी संचार लगभग नहीं होता है. यह समस्या स्वचालित वाहनों में खत्म हो जाएगी क्योंकि वे आपस में एक दूसरे के संपर्क में रहेंगे।
हम ही समस्या हैं और समाधान भी हम ही हैं
ट्रैफिक पुलिस और बुनियादी ढांचे को दोष देना बहुत आसान है। लेकिन हम भूल जाते हैं कि हम ही समस्या हैं और समाधान भी हम ही हैं। यही सोचना और इस सोच को दूसरों तक पहुँचाना ही तो हमारा दायित्व है।
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