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भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। आजादी के बाद से देश का लोकतंत्र लगातार मजबूत हो रहा था। हालांकि, आधुनिक विकास की रोशनी जब देश के कुछ हिस्से पहुंचने में वक्त ले रही थी। या यूं कहें कि वहां के परिवेश विकास को पहुंचने से रोक रहे थे। विकास पहुंचा भी तो उनके अधिकारों पर आधिपत्य करने लगा। यही कारण था कि लोग बंदूक का सहारा लेने लगे। अधिकारों की जंग में कई लोगों ने हिंसा का रास्ता चुना और यही से नक्सलवाद का जन्म हुआ। आज देश का बड़ा हिस्सा इस समस्या से परेशान है। सरकारें इनके खिलाफ अभियान चला रही हैं और लोगों को इससे बाहर लाने के लिए कई प्रोजेक्ट पर काम किया जा रहा है। अब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 31 मार्च 2026 इसके खात्मे की तारीख तय कर दी है। आइये जानें कम्युनिज्म से कैसे नक्सलवाद का जन्म होता है और ये भारत में अपनी पैठ बना लेता है।
अमूमन कहा जाता है कि भारत में नक्सलवाद की उत्पत्ति 60 के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से होती है। धीरे-धीरे ये देश के अन्य हिस्सों में पहुंच गया और अभी कई राज्यों में किसी न किसी तरीके से सक्रिय है। इसमें छत्तीसगढ़ भी शामिल है। ये बात सच भी है, लेकिन 60 के दशक में भारत में आए नक्सलवाद को समझने के लिए हमे कुछ साल पीछे चलना होगा। तो आइये नक्सलवाद की समस्या को सिरे से समझते हैं…
कम्युनिज्म से नक्सलवाद
हम आपको सबसे पहले जर्मनी, रूस और चीन की यात्रा पर लेकर चलते हैं। जर्मनी में जन्मे कार्ल मार्क्स राजनीतिक विचारक थे। कार्ल मार्क्स का मानना था कि सामाजिक समानता के लिए शांतिपूर्ण क्रांति की जानी चाहिए। हालांकि उनका ये भी मानना था कि शांति से बात न बने तो हथियार उठा लेना चाहिए। मार्क्स के विचारों का जर्मनी के श्रमिक वर्ग पर गहरा प्रभाव पड़ा। 1848 की क्रांति के बाद, जर्मनी में कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ। किसानों और मजदूरों के हाथ में सत्ता आ गई।
स्टालिन के राज में लगा दाग
दूसरे विश्व युद्ध के समय जर्मनी विभाजित हो गया और पूर्वी जर्मनी में सोवियत संघ के प्रभाव में कम्युनिस्ट शासन स्थापित हुआ। मार्क्स के विचारों को पहली बार रूस की जमीन पर लेनिन ने उतारा। लेनिन के बाद स्टालिन के हाथ में सत्ता आती है और वो अपनी विचारधारा को लागू करने के लिए हजारों लोगों का नरसंहार करा देता है। यहीं से मार्क्स के विचारों को मानने वाले बेहद हिंसक नजर आने लगे। इसके बाद कुछ साल बीतते हैं और एक लंबे संघर्ष के परिणाम स्वरूप चीन में कम्युनिज्म का उदय होता है। माओत्से तुंग के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने गृहयुद्ध में कुओमिन्तांग को पराजित किया और 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना की।
भारत में मिलने लगा था समर्थन
जब दुनिया मार्क्सवाद यानी कम्युनिस्ट विचारों से प्रभावित हो रही थी। इसी समय भारत में भी इस विचारधारा को कई लोग समर्थन कर रहे थे। 17 अक्टूबर 1920 को अमन राय के नेतृत्व में रूस के ताशकंद में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना की बात चली। दिसंबर 1925 में कानपुर में इसकी पहली बैठक हुई और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के गठन का प्रस्ताव पास हुआ। उस समय देश गुलाम था। इस कारण कम्युनिस्टों ने अंग्रेजों का खासा विरोध किया। अंग्रेजों ने बौखलाकर उनमें से कई लोगों को जेल में डाल दिया। कुछ सालों बाद जब महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया तो इसका कम्युनिस्ट विरोध करने लगे और वे अंग्रेजों के समर्थन में खड़े हो गए। इसके पीछे कारण ये था कि दूसरे विश्व युद्ध में ब्रिटेन और सोवियत संघ साथ साथ थे। ऐसे में अंग्रेजों का विरोध कम्युनिस्टों को मित्र का विरोध लग रहा था। कुल मिलाकर इस विचार को मानने वालों का इरादा भारत या भारत की आजादी के लिए नहीं बल्कि सोवियत संघ के साथ खड़े होना था। उनकी इसी गलती ने उन्हें भारतीय दिलों से दूर कर दिया।
हालांकि भारत के पहले आम चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी मुख्य विपक्षी पार्टी बन गई। वहीं 1957 के केरल विधानसभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बन गई। दुनिया की यह पहली जनता द्वारा चुनी गई कम्युनिस्ट सरकार मानी जाती है। अब दौर 1962 का आता है। भारत की लड़ाई चीन से होने लगती है। इसी घटना के बाद कम्युनिस्ट पार्टी दो गुटों में बंट गई। 1964 में चीनी समर्थक गुट ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया से अलग होकर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया मार्क्सवादी पार्टी बना ली। मार्क्सवादी नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल चीनी क्रांति से बड़े प्रभावित थे। चारू ने गुप्त तरीके से चीनी नेता माओ से गुप्त मुलाकात की।
भारत में मावोवाद और कम्युनिस्ट
इसके बाद भारत में भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन अस्तित्व में आया। ‘सत्ता बंदूक से निकलती है’ के कम्युनिस्ट सिद्धांत से काम करने वालों ने 1967 में किसानों की समस्याओं में अपना स्थान खोज निकाला। 23 मई 1967 को पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में तीर कमान से लैस किसानों का पुलिस से संघर्ष हुआ। इसमें तीन पुलिस वाले घायल हो गए। दारोगा ने अस्पताल में दम तोड़ दिया। इसके बाद 25 मई को पुलिस पूरी तैयारी से साथ पहुंचती है। पुलिस की गोलीबारी में कई लोगों की मौत हो जाती है। इसका नेतृत्व कानू सान्याल और चारू मजूमदार ने संभाला तो ये हिंसक हो गया। इसके बाद ये हिंसक आंदोलन लगातार 52 दिनों तक चला। इसे माओवाद कहा जाता है। हालांकि, ये आंदोलन भारत के नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ था। इस कारण इसे नक्सलवाद भी कहा जाने लगा।
1969 में चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) बनाई। इनका मकसद ही हक की लड़ाई के लिए हथियार उठाना था। 70 का दशक आते-आते आंदोलन काफी तेज हो गया। साल 1971 में ये अभियान और तेज हुआ। इस कारण एक खतरनाक अभियान चलाया गया जिसमें 2000 मजदूरों को हिरासत में लिया गाया। हालांकि, 1972 में चारू मजूमदार की पुलिस हिरासत में मौत हो गई। इसी के साथ नक्सली आंदोलन में बिखराव हो गया। धीरे-धीरे आंदोलन ने आंध्र प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ में मजबूती से पैर जमा लिया। इन्हीं प्रदेशों के 90 जिलों को नक्सलियों का रेड कॉरिडोर कहा जाने लगा।
छत्तीसगढ़ में पहले खुल गया था रास्ता
छत्तीसगढ़ में 1967 के नक्सलबाड़ी आंदोलन से एक साल पहले ही इसके लिए जमीन तैयार हो गई थी। हालांकि, ये कहानी भारत की आजादी और उसके बाद उपजे असंतोष के कारण थी। साल 1947 में देश आजाद हुआ तो तो बस्तर के राजा राजा प्रवीर चंद्र ने भारत के साथ विलय कर लिया। हालांकि, हैदराबाद के निजाम उनसे मिलने आते रहे। इस कारण राजा प्रवीर चंद्र, कांग्रेस और सरकार की नजर में चढ़ गए। आजादी के बाद बस्तर मध्य प्रदेश का हिस्सा बना और इसके मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू बने। काटजू भी यहां लगातार कंपनियों को लाते रहे। इसी का विरोध राजा लगातार कर रहे थे और वो आदिवासियों को उनका हक दिलाना चाह रहे थे।
साल 1952 में बस्तर के राजा ने कांग्रेस के खिलाफ कैंपेन चला दिया। इसका परिणाम ये हुआ कि उनपर कई आरोप लगाए गए। उनकी संपत्ति जब्त कर ली गई और उनका प्रिवी पर्स भी बंद कर दिया गया। इतना ही नहीं उनको मेंटल बताकर इलाज के लिए जबरन लंदन भेजा गया। हालांकि, वह हफ्तेभर में डिस्चार्ज होकर आ गए। हालांकि, तब तक उनके भाई को राजा बना दिया गया था। इसके बाद 1962 में चुनाव हुए और प्रवीर चंद्र ने बस्तर की नौ सीटें जीत लीं। इसके बाद कांग्रेस सरकार उनके और भी खिलाफ हो गई।
इतना सब कुछ होने के बाद जनता को सरकार पर भरोसा नहीं था। इस कारण वो अपने राजा की सुरक्षा में खुद तैनात हो गई। 25 मार्च 1966 को अचानक पुलिस ने राजमहल पर हमला कर दिया। इसमें राजा को गोलियां लगीं और उनकी मौत गई। राजा को बचाने में 11 आदिवासियों की भी मौत हो गई। इससे पूरे देश में हंगामा मच जाता है। आदिवासियों के मन में सरकार के लिए नफरत पैदा हो गई। इसी का फायदा नक्सलबाड़ी आंदोलन ने उठाया और बंगाल पुलिस से बचने के लिए वो बस्तर में घर बनाने लगे। धीरे-धीरे उन्होंने आदिवासियों को बरगलाया और उनके जरिए हिंसा को बढ़ावा देने लगे। इसी का परिणाम है कि आज छत्तीसगढ़ नक्सलवाद से सबसे अधिक प्रभावित है।
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