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बात बस्तर के घने जंगलों की है। साल 1966, जंगल के भीतर बने राज महल की छत पर कई आदिवासी तीर कमान लेकर राजा की सुरक्षा में तैनात थे। राजा प्रजा से मिलने की तैयारी में थे। अचानक गोलियों की आवाज आई और ताबड़तोड़ फायरिंग हो गई। महल गोलियों की आवाज से गूंज उठा। एक के बाद एक आदिवासी नीचे गिरने लगे। सामने से आ रहे सरकारी सिपाही गोलियां बरसाते हुए महल में घुस गए और राजा पर ही हमला बोल दिया। राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव जिनको आदिवासी अपना भगवान मानते थे। उनकी इस हमले में हत्या हो गई। उनकी हत्या के बाद बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुए नक्सली मूवमेंट का सेंटर 1300 किमी दूर बसे बस्तर आ गया। नक्सली यहां ऐसे आए की आज भी एक बड़ी समस्या बने हुए हैं।
आज नक्सलियों का प्रभाव कई राज्यों में है। ये सुरक्षा के साथ ही एक राजनीतिक समस्या भी बनी हुई है। हालांकि, छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की एंट्री का दरवाजा नक्सलवाद के उदय के कई साल पहले ही खुल गया था। इसे समझने के लिए हमें कुछ सौ साल पीछे चलना होगा। तो आइये चलते हैं और जानते हैं कैसे छत्तीसगढ़ में आया नक्सलवाद।
दंडकारण्य का इतिहास
भारत के बीचो बीच पश्चिम बंगाल से शुरू होकर छत्तीसगढ़, उड़ीसा, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के कई हिस्सों में दंडकारण्य जंगल फैला हुआ है। इसका सबसे प्रमुख स्थान बस्तर हुआ करता था। यहां आदिवासियों का राज होता था। इस जंगल में पहले अलग-अलग जनजातियों और नल राजाओं का राज हुआ। यहां कालिदास भी राजकुमारी प्रभावती गुप्ता के साथ आए। हालांकि, 12वीं सदी तक बस्तर से नल साम्राज्य पूरी खत्म हो गया। क्योंकि अब यहां पर नया साम्राज्य बनने जा रहा था। जिसकी कहानी 400 किलोमीटर दूर तेलंगाना के वारंगल में लिखी जा रही थी।
अलाउद्दीन खिलजी से हुई शुरुआत
वारंगल के बस्तर में पहुंचने की शुरुआत साल 1300 में दिल्ली से होती है। अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति ने वारंगल पर हमला कर खूब लूटपाट मचाई और वारंगल को कब्जे में कर लिया। अब आता है साल 1316, अलाउद्दीन की मौत हो जाती है। अब उनके मंत्रियों और बेटों में राजा बनने के लिए होड़ मच जाती है। उसका कमांडर उलक खान मानो इसी के इंतजार में बैठा था। उसने वक्त की नजाकत को समझते हुए वारंगल पर हमला बोल दिया। उस वक्त काकतीय राजवंश के राजा यानी कि रुद्रदेव के बेटे प्रताप देव को उसने अपने कैद में कर लिया। जब इस बात की जानकारी राजा के भाई अनमदेव को लगी तो वह परिवार और खजाने और अपने देवी मां दंतेश्वरी की मूर्ति लेकर दंडकारण्य के घने जंगलों की तरफ निकल पड़े। जब उनका काफिला जंगल से गुजर रहा था तब मां दंतेश्वरी खुद ही एक जगह पर विराजमान हो गईं और उसी जगह पर दंतेवाड़ा बना।
खैर दंतेश्वरी माता के विराजित होने को लेकर और भी कई अलग-अलग कहानियां प्रचलित हैं। हम आते हैं दोस्त की कहानी पर। बस्तर के घने जंगलों में काकतीय राजवंश की स्थापना हो गई थी। राजा ने खुद को दंतेश्वरी माता का पुजारी घोषित कर दिया था। पूरा इलाका जंगली था और रेवेन्यू भी कोई खासा नहीं था। इसी कारण ये किसी भी राजा के हमले से बचा रहा। लेकिन 1750 में मराठाओं ने उड़ीसा, बंगाल और छत्तीसगढ़ के कई हिस्सों को कब्जा लिया। इसमें बस्तर भी शामिल था। हालांकि, काकतीय राजा के साथ संधि कर उन्हें यहां स्वतंत्र राज करने दिया गया। करीब 6 दशक बाद 1818 में एंगलो मराठा वॉर होता है। इसमें मराठा हार जाते हैं जिसके बाद सारा बस्तर अंग्रेजों के कब्जे में चला जाता है।
अंग्रेजों का यू-टर्न
यहां से कहानी में एक यू-टर्न दंडकारण्य के नीचे छिपे खजाने के बारे में जानकारी जगजाहिर हो जाने के बाद आता है। अंग्रेजों ने यहां कई प्रोजेक्ट शुरू किए और कारखाने भी लगाए। जब यहां कारखाने और खदानों को चलाने के लिए ठेकेदार आए तो वो आदिवासियों पर अत्याचार करने लगे। अंग्रेजों ने इनसे जबरदस्ती टैक्स वसूली, मारपीट करना और जमीनों पर कब्जा करना शुरू किया। इन सब अत्याचार के कारण आदिवासियों के मन में बाहरी लोगों के प्रति नफरत भर गई। इसका नतीजा ये हुआ कि आदिवासी उग्र हो गए और 1910 में उन्होंने भूमकाल विद्रोह छेड़ दिया।
भूमकाल विद्रोह से उग्र हुए आदिवासी
भूमकाल विद्रोह में आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ गोरिल्ला युद्ध शुरू कर दिया। वह छिपकर अंग्रेजों और ठेकेदारों पर हमला करते और उन्हें मार गिराते। ऐसे में परेशान अंग्रेजो ने आदिवासियों को सबक सिखाने के लिए मार्डन हथियारों को उपयोग में लाना शुरू कर दिया। नतीजा ये हुआ कि वह भूमकाल विद्रोह को कुचलने में कामयाब हो गए। इस दौरान आदिवासी नेताओं को पकड़कर फांसी दे दी और कइयों को जेल में डाल दिया। इससे आदिवासियों के मन में विद्रोह की चिंगारी और सुलग गई। वो राजा के अलावा किसी को अपना नहीं मानते थे।
राजा को जनता से बेहद प्रेम
इतिहास गवाह है कि बस्तर के राजा भले ही अंग्रेजों के अधीन थे, लेकिन उन्हें अपनी जनता से बहुत प्यार था। ठीक वैसे ही आदिवासी भी अपने राजा के अलावा किसी को अपना नहीं मानते थे। इसी कारण राजा अपनी बेटी प्रफुल कुमारी को बस्तर का राज सौंपना चाहते थे। हालांकि, अंग्रेजों को ये मंजूर नहीं था। उन्होंने थोड़ा इंतजार करना सही समझा। कुछ समय बाद प्रफुल कुमारी की शादी मयूरभंज के राजकुमार प्रफुल्ल चंद्र भंजदेव हो जाती है। उनके दो बेटे होते हैं। साल 1921 में दुखद खटना घटती है और राजा रुद्र प्रताप देव इस दुनिया से अलविदा हो जाते हैं। कुछ साल बाद अंग्रेज प्रफुल कुमारी पर मेहरबान हो गए और साल 1933 में उनको बस्तर की महारानी बना दिया गया।
अंग्रेजों का निजाम प्रेम
बस्तर रियासत की बेल्डी में कोल और आयरन माइंस थी। अंग्रेज इन्हें हैदराबाद के निजाम को देना चाहते थे। प्रफुल कुमारी ने अपना जनता के हित को देखते हुए ऐसा होने नहीं दिया। उनका मानना था कि इन पर केवल बस्तर की जनता का अधिकार है। पहले तो अंग्रेजों ने उनको मनाने की कोशिश उसके बाद उन्हें रास्ते से हटाने की प्लानिंग करने लगे। तीन साल बाद प्रफुल कुमारी की तबीयत खराब हुई तो मौका पाते ही गोरों ने उन्हें इलाज के बहाने लंदन भेज दिया। यहां महारानी की मौत हो जाती है।
अंग्रेजों की चाल नहीं आई काम
अब अंग्रेजों ने महारानी के पति प्रफुल कुमार को राजा बनाने की जगह वापस मयूरभंज भेज दिया और उनके जगह पर 6 साल के बच्चे प्रवीर चंद्र भंजदेव को राजा बना दिया। ये उनकी एक चाल थी। उन दिनों अंग्रेज कम उम्र के बच्चों को राजा बनाते और माता-पिता से दूर अपने तौर तरीके सिखाने के लिए लंदन भेज दिया करते थे। ठीक यही उन्होंने प्रवीर चंद्र भंजदेव के साथ किया। पर यहां उनकी सोच से कुछ उलट ही हुआ। 18 साल तक अंग्रेजों की कस्टडी में रहने के बाद भी प्रवीर चंद्र भंजदेव का अपनी मिट्टी और माता पिता से प्रेम कम नहीं हुआ। बल्कि, अंग्रजों के प्रति और नफरत पैदा हो गई। 1947 में 18 साल के युवा प्रवीर चंद्र वापस बस्तर आए और अपना राज काज देखने लगे। इसी साल देश को आजादी मिली। इससे पहले रियासतों का विलय भारत में होने लगा।
बस्तर का पड़ोसी हैदराबाद भारत से अलग रहने के मूड में था। इसी कारण वो सरदार वल्लभ भाई पटेल की नजरों में चढ़ गया। हालांकि, इसका खामियाजा भारत में शामिल हो चुके बस्तर को उठाना पड़ा। हैदराबाद के निजाम ईस्ट पाकिस्तान तक एक कनेक्शन बनाना चाहते थे। उनका रास्ता उड़ीसा और पश्चिम बंगाल से होकर जाता था। इस रास्ते में बसता सबसे बड़ा अड़ंगा था। इस कारण उन्होंने प्रवीर चंद्र भंजदेव को मनाना शुरू किया। इसी कारण हैदराबाद के निजाम बार-बार उनसे मुलाकात करने लगे। ऐसे में कांग्रेस नेताओं को यह गलतफहमी हो गई कि प्रवीर चंद्र निजाम के साथ मिलकर भारत के खिलाफ विद्रोह करने की प्लानिंग कर रहे हैं। इसी कारण वो कांग्रेस की नजरों में चढ़ गए। प्रवीर चंद्र चाहते थे कि बस्तर की संपदा पर आदिवासियों का हक होना चाहिए। उनकी इसी लड़ाई ने उनको भारत सरकार का भी दुश्मन बना दिया।
मुख्यमंत्री काटजू से नहीं बनी बात
आजादी के बाद बस्तर मध्य प्रदेश का हिस्सा बना। यहां के मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू बने। काटजू ने अलग-अलग कंपनियों के साथ करार कर बस्तर में माइनिंग प्रोजेक्ट शुरू कर दिया। इससे के बस्तर के लोगों को लगने लगा कि सरकार उनके अधिकार मार रही है। इस कारण मध्य प्रदेश सरकार और प्रवीर चंद्र भंजदेव के बीच तनातनी काफी बढ़ गई। इसी कारण उन्होंने 1952 में कांग्रेस के खिलाफ कैंपेन चला दिया। कांग्रेस बस्तर में चुनाव हार गई। इसी बात से खफा सरकार ने राजा पर पैसे बर्बाद करने का आरोप लगा दिया। उनकी सारी संपत्ति जब्त कर ली। हालांकि, उनकी जनता को तो सब पता था।
दूसरी तरफ सरकार ने जापानी कंपनी के साथ मिलकर बेल्डी में भी माइनिंग प्रोजेक्ट शुरू कर दिया। इसी वक्त राजा ने आदिवासियों के साथ मिलकर जल जंगल जमीन बचाने का नारा बुलंद किया और सरकार के खिलाफ विरोध शुरू कर दिया। बदले में सरकार ने उनका प्रिवी पर्स रोक दिया और उनको मेंटल बताकर इलाज के लिए लंदन भेज दिया। हालांकि, जब वो बीमार ही नहीं थे तो लंदन क्यों रुकते। डॉक्टरों ने उन्हें हफ्तेभर में डिस्चार्ज कर दिया।
राजा प्रवीर चंद्र भारत वापस आकर मुख्यमंत्री कैलाश काटजू से मिलने के लिए पहुंचे। काटजू ने उन्हें बस्तर छोड़ने की सलाह देदी। राजा नहीं माने तो उनको हाउस अरेस्ट कर लिया गया। उसके बाद उनके छोटे भाई को राजा नियुक्त कर दिया गया। खैर जनता तो प्रवीर चंद्र को ही राजा मानती थी। लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी वो इतने पापुलर थे कि 1962 में विधानसभा चुनाव में बस्तर की नौ सीटों पर जीत हासिल कर ली। देखते ही देखते वह बस्तर में कांग्रेस के लिए एक बड़ा चैलेंज बन गए। इसलिए सरकार उनके और अधिक खिलाफ हो गई।
25 मार्च 1966 की काली तारीख
आदिवासी को पता था कि उनके राजा की जान को खतरा है। इसीलिए तीर कमान लेकर खुद ही उनकी सुरक्षा में तैनात रहते थे। 25 मार्च 1966 को भी वो राजा की सुरक्षा में तैनात थी। राजा से मिलने के लिए लोगों भीड़ लगी हुई थी। अचानक पुलिस ने राजमहल पर हमला बोल दिया। ताबड़तोड़ फायरिंग होने लगी। पहली गोली राजा के हाथ में लगी और फिर एक गोली सीने में लगी। देखते ही देखते वह लहूलुहान हो गए। वह जमीन पर गिरे तो उनको बचाने के लिए 11 आदिवासियों कूद पड़े और उनकी भी जान चली गई।
जैसे ही बात बाहर निकली बस्तर में हंगामा मच गया। मामला संसद में भी उठा लेकिन सरकार ने पुलिस एनकाउंटर को सेल्फ डिफेंस का नाम देकर पल्ला झाड़ लिया। भले ही सरकार ने इस मामले को रफा दफा कर दिया हो, लेकिन बस्तर के लोगों के मन में यह बात घर कर गई थी। उन्हें लगने लगा कि अंग्रेजों की तरह ही सरकार भी उनकी दुश्मन है। इस हत्याकांड ने उनके मन में नफरत का बीज बो दिया था। इसी नफरत के कारण छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की एंट्री आसान हो गई।
नक्सलियों ने आदिवासियों के दर्द को भुनाया
हत्याकांड के ठीक एक साल बाद 1967 में चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने नक्सली आंदोलन शुरू किया था। शुरुआत में आंदोलन का असर सिर्फ बंगाल के ही कुछ हिस्सों पर था लेकिन जल्द यह दूसरे राज्यों में फैलने लगा। बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश समेत कई राज्यों में नक्सली आंदोलन फैल गया। उस दौर में सामंतों और ठेकेदारों ने भी किसानों को परेशान करके रखा था। जातिवाद और सरकार वो पहले ही परेशान थे। जब उनके दर्द को सुनने वाला कोई नहीं मिला तो नक्सली उनको अपने लगने लगे। यही कारण था कि नक्सलियों को गांव वालों का साथ मिलने लगा। बस्तर के लोगों में भूमकाल आंदोलन से ही बाहरी लोगों के खिलाफ गुस्सा था। रही कसर राजा के हत्याकांड ने पूरी कर दी थी। इसे गुस्से ने बस्तर में नक्सलियों की एंट्री का रास्ता खोल दिया।
छत्तीसगढ़ का दंडकारण्य बना नक्सल ठिकाना
जब बंगाल में नक्सलियों को कंट्रोल करने के लिए मिलिट्री ऑपरेशन चलाए गए तब सारे नक्सली दंडकारण्य का रुख किया। बस्तर घने जंगलों के बसा था। इसी वजह से नक्सली यहां आराम से छिप सकते थे। दूसरी तरफ सरकार से खफा लोगों को इन्होंने आसानी से बरगलाकर दिया और अपनी तरफ कर लिया। अब बस्तर में इन्हें छिपने के लिए जगह तो मिली ही लोगों का साथ भी मिला। इसलिए यह इलाका नक्सलियों का अड्डा बन गया।
अब छत्तीसगढ़ में सिमटे नक्सली
देखते ही देखते नक्सली भारत की सिक्योरिटी के लिए सबसे बड़ी समस्या बन गए। इसलिए सरकार ने कई ऑपरेशन चलाए। इसका असर यह हुआ कि धीरे-धीरे नक्सलियों का सफाया होने लगा। 2023 तक अधिकतर छत्तीसगढ़ में ही सिमट कर रह गए हैं। इनका सबसे बड़ा अड्डा बस्तर और दंतेवाड़ा है। हालांकि, बस्तर के लोग न तो अपने राजा को भूले हैं और न ही उस हत्याकांड को। यही कारण है कि आज भी दशहरा मेला में हजारों लोग राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की तस्वीरें लेकर आते हैं।