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स्वच्छ भारत अभियान: सफाई का सपना या सिर्फ सरकारी जुमला?

Swacha Bharat- Dayitva Media
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– गोपाल शुक्ल:

रोज सुबह सुबह एक गाड़ी देश के हरेक शहर की हरेग गली और हरेक मोहल्ले में घूमती है जिसमें स्वच्छ भारत अभियान का गाना बजता रहता है। अब तो वो गाड़ी लाखों घरों के लिए अलार्म तक का काम करने लगी है। सुबह सुबह जैसे ही वो गाड़ी आती है, लोग नींद से जागकर घर का इकट्ठा हुआ कूड़ा उठाते हैं और उस गाड़ी की कोख के हवाले कर देते हैं। नरेंद्र मोदी सरकार की ये योजना सिर्फ एक सरकारी योजना भर नहीं थी बल्कि ये एक तरह का जनआंदोलन है जिसका खास मकसद ये भी था कि पूरे हिन्दुस्तान को एक ही सूत्र में बांधना, लेकिन सरकारी तंत्र की ढीलाई, योजनाओं के खराब मैनेजमेंट और हकीकत की जमीन से दूर कागजों पर बनी रणनीतियों ने इसकी कामयाबी को सीमित कर दिया।

स्वच्छ भारत मिशन पर एक कवि का तंज

इस योजना या मिशन को शुरु हुए अब पूरे दस साल गुजर चुके हैं। एक मशहूर हास्य कवि हैं संपत सरल। वो अक्सर मंच पर खड़े होकर इस मिशन को आइना दिखाने की कोशिश करते हैं। वो कहते हैं कि इस मिशन का एक लोगो हैं जिसे गांधी जी का चश्म कहा जाता है। उस चश्मे के एक तरफ भारत लिखा है और दूसरी तरफ स्वच्छ। यानी जिधर स्वच्छता है उधर भारत नहीं है और जिधर भारत है वो स्वच्छ नहीं है। बेशक कवि ने ये बात अपने लहजे में तंज कसते हुए कही, लेकिन अगर इस मिशन को ढंग से देखें तो उस कवि की बात में दम नज़र आ जाएगा। क्योंकि वाकई ये मिशन जिधर से भी देखो ऐसा लगता है कि कचरे के बोझ तले दबकर ये मिशन भी अब हांफने सा लगा है।

अब जरा कुछ नामों पर गौर कीजिए,

परमेश्वरन अय्यर, पूर्व सचिव, पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय।
परमेश्वर अय्यर ने स्वच्छ भारत अभियान के लिए एक नई रणनीति तैयार की। उन्होंने ग्रामीण भारत को खुले में शौच मुक्त (ODF) बनाने में अहम भूमिका निभाई।

इंद्रजीत सिंह जिला कलेक्टर, महाराष्ट्र।
इंद्रजीत सिंह ने अपने जिले को ODF घोषित कराने के लिए सामुदायिक भागीदारी का मॉडल अपनाया। उनकी देख रेख में ग्रामीण इलाकों में कई सार्वजनिक शौचालय बनाए गए।

राजेंद्र भोंसले, जिला कलेक्टर, सतारा, महाराष्ट्र।
राजेंद्र भोंसले ने सतारा जिले में ठोस कचरा प्रबंधन और शौचालय निर्माण की योजनाओं को तेजी से लागू कराया।

के. आनंद कुमार, आईएएस अधिकारी, तमिलनाडु।
आनंद कुमार ने ठोस कचरा प्रबंधन और स्वच्छता अभियान के लिए स्थानीय निकायों के साथ मिलकर कई परियोजनाएं शुरू कीं।

सुभाष चंद्र खारत, जिला कलेक्टर, इंदौर।
इस भारत स्वच्छ अभियान में बीते दस सालों के दौरान सबसे ज्यादा 7 बार इंदौर को देश का सबसे स्वच्छ शहर घोषित किया गया। इंदौर को साफ सुधरा बनाने के लिए उन्होंने ठोस कचरा प्रबंधन प्रणाली और डोर-टू-डोर कचरा संग्रहण प्रणाली को लागू किया।

ये वो पांच नाम हैं जिनकी बदौलत हिन्दुस्तान की इस सबसे बड़ी और सबसे अहम योजना ने शोहरत के तौर पर आसमान की बुलंदी को छुआ है। देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक पहुंचाए गए इस मिशन में इन नामों का जिक्र किए बगैर आप इस मिशन के बारे में कोई बात कर ही नहीं सकते।

मिशन का मकसद तो एकदम चकाचक साफ था

दस साल पहले यानी साल 2014 में इस सफाई मिशन की शुरुआत महात्मा गांधी की 145वीं जयंती के रोज हुई थी जिसके बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2 अक्टूबर 2014 वाले रोज लाल किले से इस अभियान की शुरूआत की थी। मकसद एकदम शीशे की तरफ साफ था। देश से गंदगी को खदेड़कर सफाई को जगह देना। यानी हर गली हर सड़क और हर मोहल्ला गंदगी से दूर करना ही इस मिशन का पहला और आखिरी मकसद था।

प्रधानमंत्री ने वादा भी किया था

हालांकि इस मकसद की एक आखिरी तारीख भी तय की गई थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता से वायदा किया था कि साल 2019 तक यानी जब देश महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मना रहा होगा, उस वक्त तक भारत के हरेक हिस्से में साफ सफाई का बोलबाला होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के लोगों को सपना दिखाया था कि हम मिलकर एक ऐसा राष्ट्र बनाना चाहते हैं जो स्वास्थ्य, स्वच्छता और गरिमा के मापदंड पर खरा उतरे।

सचमुच ये एक एक ऐतिहासिक शुरुआत:थी। इस अभियान के मूल उद्देश्य असल में दो हिस्सों में बांट कर देखा जा सकता है।

1)- ग्रामीण भारत के लिए स्वच्छ भारत मिशन (SBM-G)
2)- शहरी भारत के लिए स्वच्छ भारत मिशन (SBM-U)

“स्वच्छ भारत अभियान”—सुनने में तो यह नाम बेहद प्रभावशाली लगता है। ऐसा लगता है जैसे अब भारत की हर गली, हर मोहल्ला चमकने लगेगा। लेकिन जब असल तस्वीर सामने आती है, तो पता चलता है कि यह अभियान विज्ञापनों की चमक में कहीं खो गया है।

मकसद तो यही था कि देश को खुले में शौच मुक्त बनाना। उससे भी ज्यादा अहम ये था कि हर हाल में लोगों की आदत को बदलना। सरकार ने इस अभियान के लिए न तो पैसों की कमी होने दी, न ही आइडिया की और न ही संसाधनों की। साथ ही साथ इस अभियान को कामयाब बनाने के लिए हर वो जरूरी उपाय और कदम उठाए गए जो किसी भी योजना को पूरा करने के लिए जरूरी हो सकते हैं।

खर्च का गणित: कागजों में सब कुछ सही

सरकार ने इस अभियान पर 2014 से 2023 के बीच करीब 1.96 लाख करोड़ रुपये खर्च किए। लेकिन क्या यह पैसा सही जगह पहुंचा? ये सवाल देश के करोड़ों लोगों के जेहन को मथता रहता है, लेकिन जवाब कहीं से भी नहीं मिल पाता।

शौचालय निर्माण- अभियान के पहले चरण में लगभग 11 करोड़ शौचालय बनाए गए। लेकिन इनमें से 30% शौचालय इस्तेमाल के लिए उपयुक्त नहीं पाए गए।

कचरा प्रबंधन- ठोस कचरा प्रबंधन के लिए जो बजट निर्धारित किया गया था उसका एक बड़ा हिस्सा खर्च ही नहीं हो सका। ऐसा तभी होता है जब सरकारी तंत्र अपने दायित्व को या तो समझ नहीं पा रहा या फिर वो दायित्व के पथ से भटक रहा हो।

Swacha Bharat 3 - Dayitva Media

सरकार ने बड़े गर्व से ऐलान किया था कि 2014 से अब तक करोड़ों की गिनती में शौचालय बनाए गए। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 12 करोड़ से अधिक शौचालय बनाए गए। पर क्या इन शौचालयों का सही इस्तेमाल हो रहा है? एक सर्वे के मुताबिक, ग्रामीण इलाकों में बनाए गए शौचालयों में से 20-25% का उपयोग होता ही नहीं। कहीं कहीं तो ये शौचालय गोदाम या स्टोररूम बन गए हैं।

दूसरी हरित क्रांति का दर्जा तक मिल गया था

जानकारों और जानने वालों ने इसे देश के लिए दूसरी हरित क्रांति का दर्जा तक दे दिया था। क्योंकि इस अभियान की जो सबसे खास बात थी वो यही थी कि इससे न सिर्फ मूलभूत संरचना और बुनियादी सुविधाओं में तब्दीली आएगी बल्कि देश के लोगों की मानसिकता भी बदलेगी। यदि सही तरीके से लागू किया जाए, तो यह अभियान केवल सफाई तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि लोगों के जीवन स्तर को सुधारने में भी मदद करेगा।

कागज़ पर सब साफ, धरातल पर वही गंदगी

मगर…इस मगर में न जाने कितने कहानियां और कितनी सच्चाइयां कैद होकर रह गईं। आज दस साल के बाद जब हम पलटकर देखते हैं और इस स्वच्छ भारत अभियान में देश के सफर की कहानी को टटोलते हैं तो समझ में आता है कि दस साल पहले हम जहां थे शायद वहां से हमने एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया। चंद शहर चंद इलाकों को अगर कुछ देर के लिए नज़र अंदाज कर दिया जाए तो पूरे मुल्क में गंदगी आज भी उसी तरह अपने पैर पसारे दिख जाती है जैसे दस साल पहले 2014 में नरेंद्र मोदी के देश के प्रधानमंत्री बनने से पहले थे।

स्वच्छ भारत मिशन पर खर्च

  • 2024 तक इस अभियान पर ₹1.96 लाख करोड़ खर्च किए गए हैं।
  • ग्रामीण मिशन पर ₹70,000 करोड़ जबकि शहरी मिशन पर ₹35,000 करोड़ का निवेश किया गया है।
  • उपलब्धियां (2014-2023)
  • इस अभियान की कामयाबी का सबसे बड़ा हिस्सा शौचालय निर्माण को जाता है
  • ग्रामीण भारत- 10 करोड़ से अधिक शौचालय बनाए गए।
  • शहरी भारत- 60 लाख से अधिक व्यक्तिगत और सामुदायिक शौचालयों का निर्माण हुआ।
  • जबकि खुले में शौच से मुक्ति के मामले में भी बड़ी सफलता मिली है।
  • 2020 में ग्रामीण भारत के लगभग 99% गांवों को ODF घोषित किया गया। शहरी क्षेत्रों में भी 4,300 से अधिक शहर ODF बन चुके हैं।
  • जाहिर है जब ऐसे अभियानों को सफलता मिलती है तो उसकी गवाही आंकड़ों से भी मिलने लगती है। एक बानगी ये भी देखिये

स्वच्छ भारत का इरादा!

  • स्वास्थ्य- डायरिया जैसी बीमारियों में 50% की कमी देखी गई।
  • सामाजिक बदलाव- महिलाओं की सुरक्षा और उनकी गरिमा में सुधार आया।
  • पर्यावरण सुरक्षा- खुले में शौच के कारण भूजल प्रदूषण में कमी आई।
  • सबसे बेहतर प्रदर्शन- मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, और महाराष्ट्र ने ठोस कचरा प्रबंधन और ODF स्थिति को बनाए रखने में बेहतर प्रदर्शन किया। इंदौर सात साल भारत का सबसे स्वच्छ शहर बना।
  • सबसे खराब प्रदर्शन- लेकिन ऐसा लगता है कि बिहार, उत्तर प्रदेश, और झारखंड में स्वच्छ भारत अभियान कागजों तक सीमित रहा। इन राज्यों में शौचालयों की गुणवत्ता और उपयोगिता पर अक्सर सवाल उठते रहे।

झाड़ू की फोटो, पर सड़कों पर कचरा

सवाल ये भी उठता रहा है कि इतनी बड़ी और शानदार योजना को दस सालों में इतना कामयाब होना चाहिए कि पूरी दुनिया में उसके नाम का डंका बजना शुरू हो जाए। मगर ये सपना योजना बनाने वालों से लेकर आम लोगों के सिर्फ जेहन में ही सांस लेता दिखाई दे रहा है। हकीकत की धरातल इससे कहीं दूर दिखाई दे रही है। ऐसा माना जाता है कि उसकी सबसे बड़ी वजह है वो सरकारी तंत्र जिसकी ढीलाई के किस्से पूरी दुनिया में मशहूर हैं। जो अक्सर अपने दायित्व को पूरा करने में आनाकानी करता दिखाई पड़ता है।

सरकारी तंत्र की लापरवाही

निरीक्षण का अभाव- कई जिलों में शौचालय निर्माण और कचरा प्रबंधन योजनाओं की नियमित जांच नहीं की गई।
अस्थायी समाधान- शहरी क्षेत्रों में सफाई कर्मचारियों की कमी और उनकी दयनीय स्थिति अभियान की बड़ी समस्या बनी।
पानी और सीवेज का अभाव- शौचालय तो बनाए गए, लेकिन उनमें पानी और सीवेज की समुचित व्यवस्था नहीं हुई।
कचरा प्रबंधन- कचरे का वैज्ञानिक तरीके से पुनर्चक्रण किया जाए और कचरा जलाने पर रोक लगाई जाए।

कहां भटक गया साफ सुधरा मिशन

सवाल उठता है कि कहीं तो चूक हो रही है। तो आखिर कहां चूक रहा है स्वच्छ भारत अभियान? कहां चूक गया स्वच्छ भारत अभियान?

भ्रष्टाचार और अधूरी योजनाएं- कई जिलों और राज्यों में शौचालय निर्माण के लिए जो बजट रखा गया उसका खुलकर दुरुपयोग किया गया। शौचालय बने, लेकिन उनमें पानी की व्यवस्था या सही रखरखाव का अभाव रहा। 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों के 30% शौचालय इस्तेमाल लायक ही नहीं हैं।

रोजगार और संसाधन- देश में लगभग 2.5 लाख सफाई कर्मचारी हैं, जिनमें से 60% ठेका मजदूर हैं। इनके लिए बेहतर उपकरण और वेतन नहीं दिए गए हैं।

कचरा प्रबंधन सुविधाएं- 2023 तक केवल 20% शहरी क्षेत्रों में आधुनिक कचरा निस्तारण प्लांट हैं। जबकि ये प्रतिशत 60 से ऊपर होना चाहिए।

ये बात सही है कि स्वच्छ भारत अभियान ने भारत को स्वच्छता के मामले में कुछ नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया है। लेकिन अभी लंबा रास्ता बाकी है। इस सिलसिले में कुछ रोचक तथ्य भी सामने आए हैं। जरा उन पर अगर नज़र डालें तो कहानी कुछ समझ में आ सकती है।

  • भारत में हर साल ₹3 लाख करोड़ स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च होते हैं, जिसमें गंदगी से संबंधित बीमारियों का बड़ा हिस्सा है।
  • खुले में शौच की वजह से हर साल करीब 1 लाख बच्चों की मौत डायरिया और दूसरी बीमारियों से हो जाती है।
  • गंदगी की वजह से 30% बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास पर असर पड़ता है।
  • अगर ये मिशन सही तरीके से चल रहा होता तो देश की GDP में 1.5% की बढ़ोतरी हो सकती है।

सफाई के नाम पर करोड़ों का खेल

किसी भी योजना के कामयाब होने की पहली शर्त यही है कि अगर उसे नई तकनीक और नए उपकरणों के साथ आगे बढ़ाया जाए तो उसके सफल होने का प्रतिशत बढ़ जाता है। अब तक स्वच्छ भारत अभियान के पूरी तरह से कामयाबी की सीढ़ी न चढ़ पाने के लिए कुछ बातें बेहद जरूरी हैं जिनमें इससे जुड़े उपकरण सबसे अहम हैं। तो कौन-कौन से उपकरण जरूरी हैं?

डस्टबिन- हर क्षेत्र में गीले और सूखे कचरे के लिए अलग-अलग डस्टबिन।
मैकेनिकल स्वीपर- शहरों में सड़कों की सफाई के लिए।
कचरा निस्तारण मशीनें- रीसाइक्लिंग और कंपोस्ट बनाने के लिए।
शौचालय टैंक क्लीनिंग मशीन- ग्रामीण इलाकों में शौचालयों की सफाई के लिए।
जागरूकता के लिए डिजिटल प्लेटफॉर्म- मोबाइल ऐप्स, सोशल मीडिया और अन्य तकनीकी साधन।

नतीजा वही ढाक के तीन पात

जनता की भागीदारी में कमी- सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान तो चलाया लेकिन उससे लोगों को जोड़ने में शायद पूरी तरह से कामयाब नहीं रही। क्योंकि इसके लिए ऐसे जागरूक अभियान नहीं चलाए गए जिससे गंदगी और उसके इर्द गिर्द रहने वाले गंदगी से दूर हटने को अपनी पहली जरूरत ही बना लें। इसके अलावा ग्रामीण और शहरी इलाकों में इसे लेकर न तो कर्मचारियों को ट्रेनिंग दिलाई गई और न ही जरूरी संसाधन मुहैया करवाए गए, जिससे भी लोगों का ध्यान इस तरफ खिंच पाता। नतीजा वही ढाक के तीन पात। लोग शौचालय तो बना लेते हैं लेकिन उनका इस्तेमाल नहीं करते और वही पुराने तौर तरीकों पर लौट जाते हैं, यानी उनकी आदतें अब भी वही हैं।

स्वच्छ भारत का सच: कचरे में दबा सपना

स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत बड़े उत्साह और उम्मीदों के साथ हुई थी। लेकिन सरकारी तंत्र की धीमी गति, जागरूकता की कमी, और भ्रष्टाचार ने इसे सीमित कर दिया। अगर इसे सही मायनों में सफल बनाना है, तो योजनाओं के क्रियान्वयन में पारदर्शिता और स्थानीय स्तर पर सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी।

सरकार और आम जनता दोनों का दायित्व

स्वच्छ भारत अभियान को फिर से जिंदा करने की जरूरत है और उसके लिए अगर इस अभियान को सच्चे अर्थों में सफल बनाना है, तो सरकार को कुछ बातों पर खास ध्यान देना ही होगा। सरकार प्रचार के साथ साथ जमीनी स्तर पर जागरूकता बढ़ाने के लिए ग्राम पंचायत से लेकर स्कूली स्तर पर इसका अभियान चलाए। इस मिशन में शामिल किए गए तमाम सफाई कर्मचारियों को हर लिहाज से सशक्त और प्रशिक्षित करना निहायत जरूरी है। कचरा प्रबंधन के लिए बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर का होना भी जरूरी है। साथ ही साथ अधिकारियों की जवाबदेही तय होनी चाहिए। और सबसे बड़ी बात यही है कि इस अभियान की सफलता केवल सरकारी तंत्र की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि हर नागरिक को अपनी भूमिका निभानी होगी। क्या यह सपना कभी हकीकत बन पाएगा, या यह भी बाकी योजनाओं की तरह धुंधला हो जाएगा? यह सवाल आज भी अनुत्तरित है।

दायित्व से दूर एक साफ सुधरा मिशन

अगर सरकार और जनता मिलकर काम करें, तो भारत को स्वच्छ और स्वस्थ बनाने का सपना जल्द ही पूरा हो सकता है। स्वच्छ भारत अभियान केवल एक सरकारी योजना नहीं है, यह एक जनांदोलन भी है। जाहिर है ऐसे किसी भी जन आंदोलन को सफल बनाने के लिए हर भारतीय को अपना दायित्व निभाना जरूरी हो जाता है। आखिरकार, “स्वच्छता ही सेवा है।”

Author

  • गोपाल शुक्ल - दायित्व मीडिया

    जुर्म, गुनाह, वारदात और हादसों की ख़बरों को फुरसत से चीड़-फाड़ करना मेरी अब आदत का हिस्सा है। खबर का पोस्टमॉर्टम करने का शौक भी है और रिसर्च करना मेरी फितरत। खबरों की दुनिया में उठना बैठना तो पिछले 34 सालों से चल रहा है। अखबार की पत्रकारिता करता था तो दैनिक जागरण और अमर उजाला से जुड़ा। जब टीवी की पत्रकारिता में आया तो आजतक यानी सबसे तेज चैनल से अपनी इस नई पारी को शुरु किया। फिर टीवी चैनलों में घूमने का एक छोटा सा सिलसिला बना। आजतक के बाद ज़ी न्यूज, उसके बाद फिर आजतक, वहां से नेटवर्क 18 और फिर वहां से लौटकर आजतक लौटा। कानपुर की पैदाइश और लखनऊ की परवरिश की वजह से फितरतन थोड़ा बेबाक और बेलौस भी हूं। खेल से पत्रकारिता का सिलसिला शुरू हुआ था लेकिन अब तमाम विषयों को छूना और फिर उस पर खबर लिखना शौक बन चुका है। मौजूदा वक्त में DAYITVA के सफर पर हूं बतौर Editor एक जिम्मेदारी का अहसास है।

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