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श्यामदत्त चतुर्वेदी:
इन दिनों संसद का सत्र चल रहा है। इसमें कई नोकझोंक की खबरें और बयान चर्चा में है। 25 नवंबर को संसद सत्र शुरू होते ही राज्यसभा में शुरू हुई नोंकझोंक उप-राष्ट्रपति को पद से हटाने तक पहुंच गई है। 10 दिसंबर को राज्यसभा के सभापति यानी उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के खिलाफ इंडिया गठबंधन के सांसदों ने प्रस्ताव राज्यसभा के सेक्रेटरी जनरल को सौंपा। इसके बाद से चर्चा राज्यसभा के सभापति के चयन और उनके खिलाफ आए अविश्वास प्रस्ताव को लेकर होने लगी है। अब इस बात को लेकर संशय की स्थिति बनी हुई है कि इस प्रस्ताव को अविश्वास प्रस्ताव कहा जाएगा या इसे महाभियोग कहा जाएगा। आइये जानें इन दोनों शब्दों के संवैधानिक मायने क्या है और इनकी प्रक्रिया क्या होती है? अभी राज्यसभा में प्रस्ताव को लेकर क्या संभावनाएं हैं?
देश के इतिहास में पहली बार
जानकारी के अनुसार, राज्यसभा के 60 सांसदों ने धनखड़ के खिलाफ इस प्रस्ताव पर साइन किए हैं। भारत के राजनीतिक इतिहास में यह पहला मौका है, जब उपराष्ट्रपति को हटाने के लिए सदन में प्रस्ताव पेश किया गया है। यह प्रस्ताव बारे में सोशल मीडिया पर एक पोस्ट करते हुए कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा कि माननीय सभापति द्वारा अत्यंत पक्षपातपूर्ण तरीके से उच्च सदन की कार्यवाही का संचालन करने के कारण INDIA ग्रुप के सभी घटक दलों के पास उनके खिलाफ औपचारिक रूप से अविश्वास प्रस्ताव लाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। ये कष्टकारी निर्णय रहा है, लेकिन संसदीय लोकतंत्र के हित में यह अभूतपूर्व कदम उठाना पड़ा है।
पहले भी हुई थी कवायद
इससे पहले अगस्त 2024 को मानसून सत्र के दौरान उपराष्ट्रपति धनखड़ के खिलाफ प्रस्ताव लाने की कवायद हुई थी। सत्र में कांग्रेस अध्यक्ष और राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे और उपराष्ट्रपति के बीच तीखी नोकझोंक हो गई थी। इसके साथ जया बच्चन और सभापति के के बीच भी नोकझोंक का मामला आया था। सदन में विपक्ष के सांसदों ने धनखड़ के खिलाफ प्रस्ताव प्रस्ताव लाने का मन बनाया था। इसके पत्र में 87 सांसद थे। हालांकि, सत्र खत्म होने से प्रस्ताव नहीं आ पाया था।
क्या उप-राष्ट्रपति और राज्यसभा सभापति दोनों पदों के लिए मान्य होगा प्रस्ताव?
उप-राष्ट्रपति, राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं और उच्च सदन को नियमों के मुताबिक वो सदन को चलाने के जिम्मेदार होते हैं। ऐसे में उन्हें राज्यसभा के सभापति पद से तभी हटाया जा सकता है, जब उन्हें भारत के उप-राष्ट्रपति के पद से हटा दिया जाए। उनके पद, कार्यकाल और पदमुक्त को लेकर अनुच्छेद-67 में प्रावधान किए गए हैं।
क्या कहता है अनुच्छेद-67?
उपराष्ट्रपति अपना पदभार ग्रहण करने की तिथि से पांच वर्ष की अवधि तक पद पर रहेंगे। बशर्ते कि-
- उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लिखित रूप में अपना पद त्याग न करें
- राज्यसभा के सभी तत्कालीन सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प और लोकसभा में कुल बहुमत की सहमति से पद से न हटाया जाए
- संकल्प तब तक प्रस्तुत नहीं किया जाएगा जब तक कि कम से कम चौदह दिन पहले सूचना न दी गई हो
- उप राष्ट्रपति, अपने कार्यकाल की समाप्ति के बावजूद, तब तक पद पर बने रहेंगे जब तक उत्तराधिकारी अपना पद ग्रहण न कर ले
महाभियोग या अविश्वास
उप राष्ट्रपति को पद से हटाने के लिए अनुच्छेद-67 में जिक्र होता है। हालांकि, इसमें साफ तौर पर महाभियोग या अविश्वास शब्द का उपयोग नहीं किया गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि राज्यसभा में आया प्रस्ताव महाभियोग कहा जाएगा या या अविश्वास प्रस्ताव होगा। इसके लिए हमें समझना होगा महाभियोग या अविश्वास है क्या, इसका अर्थ क्या है, इसके संबंध में नियम और इसकी व्याख्या कैसे हुई है?
महाभियोग क्या है?
महाभियोग वो प्रक्रिया है जिसका इस्तेमाल राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के जजों को हटाने के लिए किया जाता है। इसका जिक्र संविधान के अनुच्छेद 61, 124 (4), (5), 217 और 218 में मिलता है। महाभियोग प्रस्ताव तब लाया जा सकता है जब संविधान का उल्लंघन, दुर्व्यवहार या अक्षमता साबित हो गए हों। नियमों के मुताबिक, महाभियोग प्रस्ताव संसद के किसी भी सदन में लाया जा सकता है।
प्रक्रिया की बात करें तो लोकसभा में इसे पेश करने के लिए कम से कम 100 सांसदों के दस्तखत और राज्यसभा में पेश करने के लिए कम से कम 50 सांसदों के दस्तखत जरूरी होते हैं। इसके बाद अगर उस सदन के स्पीकर या अध्यक्ष प्रस्ताव को स्वीकार कर लें तो तीन सदस्यों की एक समिति बनाकर आरोपों की जांच करवाई जाती है। समिति में सुप्रीम कोर्ट के जज, किसी हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस और अध्यक्ष या स्पीकर द्वारा सही समझा गया एक प्रख्यात होता है।
अविश्वास प्रस्ताव क्या है?
अविश्वास प्रस्ताव प्रस्ताव प्रधानमंत्री के खिलाफ, सरकार के खिलाफ लाया जा सकता है। यदि किसी भी प्रतिपक्ष पार्टी को ऐसा लगता है कि सत्तारूढ़ दल या सरकार विश्वास खो चुकी है और देश में नीतियां ठीक नहीं हैं तो उस समय अविश्वास प्रस्ताव लाया जाता है। इसे नो कॉन्फिडेंस मोशन भी कहा जाता है। इस प्रस्ताव का प्रावधान संविधान के आर्टिकल 75 में किया गया है। नियमों के अनुसार, सरकार को लोकसभा में बहुमत साबित न करने पर पूरी कैबिनेट को त्यागपत्र देना होता है।
जानें ये प्रस्ताव महाभियोग या अविश्वास
“लोकसभा सचिवालय के पूर्व महासचिव पीडी थंकप्पन आचार्य ने दैनिक भास्कर से बात करते हुए बताया कि उपराष्ट्रपति को पद से हटाने की प्रक्रिया राज्यसभा में ही शुरू की जा सकती है, क्योंकि वो राज्यसभा के सभापति भी होते हैं। आचार्य के अनुसार, इसके लिए अलग से कोई नियम नहीं बनाया गया है। इस मामले में वही नियम लागू होते हैं जो लोकसभा के अध्यक्ष को हटाने के लिए हैं।”
साफ है कि संविधान में महाभियोग राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के जजों और अविश्वास प्रस्ताव की चर्चा सरकार प्रधानमंत्री के संबंध में की गई है। ऐसे में राज्यसभा के सभापति, लोकसभा के अध्यक्ष को हटाने की प्रक्रिया को इन दोनों शब्दों में से कोई एक शब्द नहीं दिया जा सकता है। हालांकि, नेता और मीडिया में धनकड़ के खिलाफ आए प्रस्ताव को अलग-अलग स्थानों पर दोनो नाम से लिखा और बोला जा रहा है।
क्या-क्या बंदिश लग जाएंगी?
राज्यसभा के सभापति के खिलाफ आया प्रस्ताव सीधे तौर पर उप-राष्ट्रपति के खिलाफ है। ऐसे में उनपर कई तरह की बंदिश लग जाएंगी जो मामले के निपटारे तक जारी रहेंगी।

इस प्रस्ताव को लेकर क्या है सदन में संख्या बल?
उप-राष्ट्रपति खिलाफ प्रस्ताव लाया तो जा सकता है लेकिन इसका पास होना अभी के लिए असंभव नजर आ रहा है। इसके पीछे हैं संख्या का गणित। राज्यसभा में सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 होती है। इनमें से 238 सदस्य राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि 12 सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा नामित किया जाता है। फिलहाल सदन में सदस्यों की संख्या 240 है। क्योंकि, 4 मनोनित सदस्यों की सीट खाली है और 6 सीटों पर उपचाव होना है। ऐसे में मोदी सरकार के पास पूर्ण बहुमत है। लिहाजा, अगर प्रस्ताव पर वोटिंग होती है तो भी विपक्ष के इस प्रस्ताव को बहुमत हासिल कर पाना मुश्किल है। वहीं लोकसभा में भी सरकार के पास पूर्ण बहुमत है।

कब-कब आया महाभियोग
- अनुच्छेद 61 राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने की प्रक्रिया के बारे में बताया गया है। हालांकि, अब तक देश में किसी भी राष्ट्रपति को हटाने के लिए महाभियोग नहीं लाया गया है।
- अनुच्छेद 124(4) में भारत के जजों के खिलाफ महाभियोग को लेकर बात की गई है। इसमें CJI और हाईकोर्ट के जज शामिल हैं। विपक्ष ने साल 2018 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर महाभियोग का नोटिस दिया था हालांकि, सभापति एम वेंकैया नायडू ने प्रस्ताव को खारिज कर दिया था।
- इसके अलावा अनुच्छेद 217 और 218 में सुप्रीम कोर्ट के अलावा किसी भी हाईकोर्ट के जजों के पद से मुक्त करने की प्रक्रिया के बारे में बताया गया है। इन प्रावधानों में कई प्रस्ताव आए हैं हालांकि, इसमें से एक भी अभी तक पास नहीं हुए हैं।
लोकसभा के 3 अध्यक्ष के खिलाफ नोटिस
1954- पहले लोकसभा अध्यक्ष जीवी मावलंकर के खिलाफ नोटिस दिया गया था जो खारिज हो गया था
1966- तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष हुकुम सिंह के खिलाफ नोटिस दिया गया था जो खारिज हो गया था
1992- में बलराम जाखड़ के खिलाफ प्रस्ताव पेश किया था जो सदन में अस्वीकृत कर दिया गया था
प्रधानमंत्रियों के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव
देश के इतिहास में कुल 28 अविश्वास प्रस्ताव लाए गए हैं। इसमें से 3 सरकारों को सत्ता से बाहर होना पड़ा। यानी 3 प्रधानमंत्रियों को गद्दी छोड़नी पड़ी। देश में पहला अविश्वास प्रस्ताव साल 1963 में समाजवादी नेता आचार्य कृपलानी ने जवाहर लाल नेहरू सरकार के खिलाफ लाया था। हालांकि, इसके पक्ष में केवल 62 वोट और विपक्ष में 347 वोट पड़े थे। सबसे ज्यादा यानी कुल 15 अविश्वास प्रस्ताव इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ आए हैं।

पास हुए अविश्वास प्रस्ताव या गिरी अल्पमत की सरकार
जुलाई 1979 में वाईबी चव्हाण ने मोरारजी देसाई सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया था। हालांकि, बहस से पहले उन्होंने इस्तीफा दे दिया। इस मामले में वोटिंग की नौबत नहीं आई थी। इसके अलावा, 1990 में वीपी सिंह सरकार, 1997 में एचडी देवेगौड़ा सरकार और 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार अविश्वास प्रस्ताव आया। इसमें उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। हालांकि, सीधे तौर पर इसे अविश्वास प्रस्ताव नहीं कहा जा सकता है। ये गठबंधन से किसी न किसी दल के समर्थन वापस लाने से अल्पमत की स्थिति थी।
फेल हुए अविश्वास प्रस्ताव
अगस्त 1963: 1962 की लड़ाई के बाद कांग्रेस नेता आचार्य कृपलानी ने नेहरू सरकार के खिलाफ लाया। पक्ष में 62 और विपक्ष में 347 वोट पड़े।
सितंबर 1964: लाल बहादुर शास्त्री के खिलाफ एनसी चटर्जी ने प्रस्ताव लाया। पक्ष में 50 और विपक्ष में 307 सांसदों ने वोट किया।
मार्च 1965: लाल बहादुर शास्त्री के खिलाफ एसएन द्विवेदी ने प्रस्ताव लाया। इसका समर्थन में 44 सांसदों और विपक्ष में 315 सांसदों ने वोट किया।
अगस्त 1965: लाल बहादुर शास्त्री के खिलाफ एमआर मसानी में प्रस्ताव लाया। हालांकि, 66 सांसदों ने समर्थन में और 318 ने इसका विरोध किया।
अगस्त 1966: इंदिरा गांधी के खिलाफ हिरेंद्रनाथ मुखर्जी ने प्रस्ताव लाया। पक्ष में 61 और विपक्ष में 27 वोट पड़े।
नवंबर 1966: इंदिरा गांधी के खिलाफ यूएम त्रिवेदी ने प्रस्ताव पेश किया। इसके पक्ष में 36 और विपक्ष में 235 वोट पड़े।
मार्च 1967: अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी के खिलाफ प्रस्ताव पेश किया। 162 सांसदों ने विरोध और 257 ने समर्थन किया।
नवंबर 1967: मधु लिमये ने इंदिरा गांधी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया। प्रस्ताव का समर्थन 88 और विरोध 215 सांसदों ने किया।
फरवरी 1968: बलराज मधोक ने इंदिरा गांधीके खिलाफ प्रस्ताव लाया था। 75 सांसदों ने समर्थन और 215 ने विरोध में मतदान किया।
नवंबर 1968: कंवर लाल गुप्ता ने इंदिरा गांधी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था। 90 सांसदों पक्ष और 222 ने विरोध में वोट किया।
फरवरी 1969: पी राममूर्ति ने इंदिरा गांधी के खिलाफ प्रस्ताव लाया गया। 86 सांसदों ने समर्थन और 215 ने विरोध किया था।
जुलाई 1970: मधु लिमये ने इंदिरा गांधी के खिलाफ प्रस्ताव पेश किया गया। 137 सांसदों ने समर्थन, जबकि 243 ने विरोध किया था।
नवंबर 1973: ज्योतिर्मय बसु ने इंदिरा गांधी के खिलाफ प्रस्ताव लाया था। 251 सांसदों ने विरोध, जबकि 54 ने समर्थन किया था,
मई 1974: ज्योतिर्मय बसु ने फिर इंदिरा गांधी के खिलाफ प्रस्ताव पेश किया। यह ध्वनि मत से गिर गया।
जुलाई 1974: ज्योतिर्मय बसु ने इंदिरा गांधी के खिलाफ प्रस्ताव लाया। 63 सांसदों ने समर्थन और 297 ने विरोध किया।
मई 1975: आपातकाल से पहले ज्योतिर्मय बसु ने फिर इंदिरा गांधी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया। ये भी ध्वनि मत से गिर गया।
मई 1978: सीएम स्टीफन ने मोरारजी देसाई सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया। ये प्रस्ताव भी गिर गया।
मई 1981: जार्ज फर्नांडिस ने इंदिरा गांधी के खिलाफ प्रस्ताव लाया गया। 92 सांसदों ने समर्थन और 278 ने विरोध किया था।
सितंबर 1981: समर मुखर्जी ने इंदिरा गांधी के खिलाफ प्रस्ताव पेश किया। 86 सांसदों ने समर्थन, जबकि 297 ने विरोध किया था।
अगस्त 1982: एचएन बहुगुणा ने इंदिरा गांधी के खिलाफ प्रस्ताव लाया। 112 सांसदों ने समर्थन और 333 ने विरोध किया था।
दिसंबर 1987: सी. माधव रेड्डी ने राजीव गांधी के खिलाफ प्रस्ताव लाया। प्रस्ताव ध्वनि मत से गिर गया।
जुलाई 1992: जसवंत सिंह ने पीवी नरसिम्हा राव के खिलाफ प्रस्ताव लाया। 225 सांसदों ने समर्थन, 271 ने विरोध किया था।
दिसंबर 1992: अटल बिहारी वाजपेयी ने नरसिम्हा राव के खिलाफ प्रस्ताव लाया 111 सांसदों ने समर्थन और 336 ने विरोध किया था।
जुलाई 1993: नरसिम्हा राव के खिलाफ अजोय मुखोपाध्याय ने प्रस्ताव लाया। 251 सांसदों ने समर्थन और 265 ने विरोध किया।
अगस्त 2003: सोनिया गांधी ने अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था। 189 ने सांसदों ने समर्थन 314 ने विरोध किया।
जुलाई 2018: केसिनेनी श्रीनिवास ने मोदी सरकार के खिलाफ प्रस्ताव पेश किया था। 135 सांसदों ने समर्थन, 330 ने विरोध किया था।
जुलाई 2023: गौरव गोगोई ने मोदी सरकार के खिलाफ प्रस्ताव पेश किया था। हालांकि, ये प्रस्ताव गिर गया।
व्याख्या पर निर्भर करते हैं नियम
उपराष्ट्रपति और राज्यपाल के कार्यकाल, उनकी नियुक्ति और पद मुक्त करने को लेकर स्पष्ट नियमों की कमी है। राज्यपाल को लेकर ये नियम है कि राष्ट्रपति जब चाहें उन्हें हटा सकते हैं। हालांकि, इस बात को लेकर स्षष्ट नियम नहीं है कि विपक्ष उनके खिलाफ क्या-क्या कदम उठा सकता है। ठीक इसी तरह उप राष्ट्रपति के खिलाफ प्रस्ताव या पद से हटाने को लेकर स्पष्ट नियमों की कमी है। ऐसे में इस तरह की कार्यवाही को क्या कहा जाएगा ये कानूनों और संविधान की व्याख्या पर निर्भर करता है।