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वन नेशन वन इलेक्शन: किसका नफा किसका नुकसान, लोकतंत्र को ‘वन-डे क्रिकेट’ बनाने की कोशिश?

One Nation One Election - Dayitva Media
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– गोपाल शुक्ल:

यह नारा बहुत दिनों से सुना जा रहा है कि एक देश और एक चुनाव। यानी लोक सभा और राज्यों की विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए जाने के मसले पर लंबे समय से बहस चल रही है। मौजूदा सत्ताधीश यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही इस विचार का समर्थन करते हुए सबसे पहले इसे आगे बढ़ाया था। मौजूदा वक्त में एक देश, एक चुनाव का यह विचार भारतीय राजनीति का एक अहम हिस्सा बन चुका है।

एक देश, एक चुनाव का मतलब तो यह है

एक देश, एक चुनाव का मतलब है कि सभी चुनावों फिर चाहें वो लोकसभा का चुनाव हो, विधानसभा का चुनाव हो या स्थानीय निकाय के चुनाव हों, इन सभी का आयोजन एक ही समय पर किया जाए। मकसद चुनावों की लागत को कम करना, समय की बर्बादी कम करना और चुनावी प्रक्रिया को और भी ज्यादा व्यवस्थित करना है। ऐसा नहीं है कि ये एकदम नया विचार है। सबसे पहले भारतीय संविधान निर्माताओं ने ही इस विचार को प्रस्तुत किया मगर बाद में अब इसे चुनावी सुधारों का हिस्सा माना जा रहा है।

लोकतंत्र मजबूत करने का है वादा

दावा यही किया जा रहा है कि यह भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए एक प्रस्तावित तरीका है। इस मामले पर चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग और संविधान समीक्षा आयोग पहले ही विचार करके अपनी सिफारिशें केंद्र सरकार के पास भेज चुके हैं।

रजामंदी के लिए कवायद

कुछ समय पहले की बात है कि विधि आयोग ने इसी मुद्दे पर बातचीत करने के लिए अलग अलग राजनीतिक पार्टियों के साथ एक तीन दिन का सम्मेलन आयोजित किया था। अलग अलग सियासी पार्टियों, क्षेत्रीय पार्टियों और प्रशासनिक अधिकारियों के साथ मिलकर उनकी राय जानने के लिए ही ये सम्मेलन आयोजित किया गया था।

कुछ राजनैतिक दल तो इस विचार से सहमत हैं लेकिन ज्यादातर का मानना है कि भारत जैसे देश में ये विचार सही नही है। जिन लोगों ने इस विचार का विरोध किया उनका तर्क था कि ये विचार असल में लोकतांत्रिक प्रक्रिया और विचारधारा के ही खिलाफ है। ऐसे में ये बात जरूर सामने आने लगी है कि जब तक इस मामले में एक राय नहीं बनती तब तक इसे धरातल पर उतारना आसान नहीं होगा।

चुनौतियों के ट्रैक पर लोकतंत्र की रेलगाड़ी

अब सवाल यही है कि आखिर भारत में एक देश एक चुनाव क्यों जरूरी है?, देश में इस प्रक्रिया को लाने के पक्ष में क्या क्या तर्क रखे जा रहे हैं?आखिर इसकी क्या सीमा होगी? इस विचार को अमली जामा पहनाने में कौन कौन सी चुनौतियां होंगी? और सबसे बड़ी बात कि इसमें आगे की राह क्या होगी?

निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की मजबूत आधारशिला

वैसे किसी भी जीवंत लोकतंत्र में चुनाव एक जरूरी प्रक्रिया है। माना जाता है कि स्वस्थ और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की सबसे गहरी और मजबूत आधारशिला होते हैं। भारत जैसे देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना हमेशा से एक चुनौतीपूर्ण रहा है।

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चुनावी मोड में हरदम

वैसे अगर एक सरसरी निगाह डालें तो भारत में हर साल किसी न किसी राज्य में चुनाव होते ही रहते हैं। यानी देश का एक बड़ा सरकारी अमला और सियासी पार्टियों को हर दम चुनावी मोड में ही रहना पड़ता है। लगातार चुनावों का असर प्रशासनिक के साथ साथ नीतिगत फैसलों पर पड़ता है। अक्सर देश में किसी भी फैसले को चुनावी नजरिये से ही देखने का एक चलन सा चल निकला है। इसका सबसे बड़ा असर देश के खजाने पर भी पड़ता है। इसके अलावा चुनावी प्रक्रिया में लगने वाले सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की सुरक्षा पर भी इसका खासा प्रभाव देखा जा सकता है।

खर्च कम करने का बहाने

2021 की जनगणना के अनुसार भारत में 733 जिले हैं, और हरेक जिले में कई गांव आते हैं। गांवों की संख्या के बारे में तो निश्चित कोई नहीं बता सकता अलबत्ता अंदाजा यही है कि ये संख्या 8.0 लाख तक बताई जाती है। इतने बड़े देश में लोकसभा चुनाव में खर्च भी बहुत बड़ा होता है। इस खर्च में उम्मीदवारों, पार्टी प्रचार, सुरक्षा, मतदान केंद्रों की व्यवस्था, और अन्य प्रशासनिक खर्चे शामिल होते हैं। देश में चुनावी सुरक्षा पर भी भारी भरकम खर्च होता है क्योंकि पूरे देश में लाखों सुरक्षाकर्मी तैनात किए जाते हैं।

दो चुनाव क्यों छोड़ दिए?

सिर्फ लोकसभा या विधानसभा के चुनाव ही नहीं, देश में ग्राम पंचायत और नगर पालिका के भी चुनाव होते हैं। हालांकि एक देश एक चुनाव के इस प्रोजेक्ट में फिलहाल उन्हें शामिल नहीं किया गया है। वैसे एक देश और एक चुनाव इस देश में कोई अनूठा या अलग प्रयोग नहीं है। पहले ऐसा ही होता रहा है। 1952, 1957, 1962, 1967 में एक देश और एक चुनाव वाले सिद्धांत पर ही लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव करवाए गए थे।

पहले भी हो चुके हैं ऐसे चुनाव

ऐसा भी हो चुका है कि लोकसभा का कार्यकाल पूरा होने से पहले ही लोकसभा के चुनाव करवाए जा चुके हैं। ये 1972 में हुआ था। यानी जो चीज पहले करवाई जा चुकी है तो उसे दोबारा भी चालू करवाया जा सकता है। हालांकि कुछ जानकारों का ये भी कहना है कि पहले आबादी इतनी ज्यादा नहीं थी, जबकि अब आबादी बहुत ज्यादा बढ़ चुकी है। ऐसे में पूरे देश और सारे राज्यों की विधानसभाओं में एक साथ चुनाव करवाना मुमकिन नहीं है। जबकि इस विचार का समर्थन करने वालों का तर्क यही है कि इस देश में अगर आबादी बढ़ी है तो तकनीकि और संसाधन भी तो बढ़े हैं।

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तर्क वितर्क, पक्ष प्रतिपक्ष

हालांकि इन तर्कों से इन चुनावों की सार्थकता साबित नहीं हो पाती। ऐसे में इस मामले में तर्क वितर्क और पक्ष विपक्ष की बातों को गौर करना बेहद जरूरी है।

  • एक देश एक चुनाव के पक्ष में बात करने वालों का तर्क है कि ये एक तरक्कीपसंद विचार है। असल में जब भी चुनाव आता है एक आचार संहिता लागू करने पड़ती है, जिसकी वजह से कई काम और कई अधिकार रुक जाते हैं। इसकी वजह से सरकार कोई भी नीतिगत फैसला लेने से कतराने लगती है। या नहीं ले पाती।
  • चुनाव आयोग जैसे ही चुनावों की तारीखों की घोषणा कर देता है तब सत्ताधारी दल के लिए किसी भी तरह की परियोजना, कल्याणकारी योजना या फिर नई स्कीमों की शुरुआत नहीं कर सकती। ऐसा इसलिए ताकि सत्ताधारी दल को उसका अतिरिक्त फायदा न हो, ऐसे में तर्क यही दिया जा रहा है कि एक बार चुनाव कराने का सबसे बड़ा फायदा यही होगा कि आचार संहिता कुछ वक्त के लिए ही लागू होगी जिससे लोक कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने या उनकी घोषणा करने की सहूलियत हो जाएगी।
  • इस बारे में सबसे अहम तर्क ये भी दिया जा रहा है कि इससे चुनावों का खर्च कम हो सकता है। बार बार चुनाव होने से सरकारी खजाने पर काफी बोझ पड़ता है। अगर पिछले कुछ चुनावों के खर्च पर नज़र डालें तो हर बार चुनाव में खर्च पिछली बार के मुकाबले कई गुना बढ़ जाता है। देश की आर्थिक हालत के लिए इस तरह के खर्च मुनासिब नहीं हैं।
  • एक चुनाव के हक में जो एक तर्क सबसे ज्यादा दिया जाता है वो ये है कि इससे काले धन और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में मदद मिल सकती है। होता ये है कि जैसे ही चुनाव की घोषणा हो जाती है तो सरकारी अधिकारियों की पौ बारह हो जाती है। जबकि चुनाव की प्रक्रिया में राजनीतिक दल और प्रत्याशी अपने काले धन को चुनाव में खपाने में जुट जाते हैं। ये भी एक तरह से देश की आर्थिक स्थिति को कमजोर करने का काम करता है।
  • एक साथ चुनाव कराने के पक्ष का एक तर्क ये भी है कि सरकारी कर्मचारी और सुरक्षा कर्मचारियों को बार बार चुनावी ड्यूटी में नहीं लगाना पड़ेगा, जिससे सरकारी कामों में आने वाली बार बार रुकावटें नहीं आएंगी।

दायित्व के रास्ते में रुकावट

यह बात सभी जानते हैं कि हमारे यहां सरकारी कर्मचारी या स्कूल के टीचरों को इस चुनावी काम में लगाया जाता है। जिसकी वजह से उनको अपने असली दायित्व को पूरा करने के रास्ते में रुकावटों कासामना करना पड़ता है। लेकिन इसके अलावा भी एक देश और एक चुनाव का विरोध करने वालों के अपने तर्क और अपनी समझ है। उन तर्कों को भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। विरोध करने वालों का मानना है कि

  • संविधान ने हमें संसदीय मॉडल प्रदान किया है। इस मॉडल के तहत लोकसभा और राज्यों की विधानसभाएं पांच पांच सालों के लिए चुनी जाती हैं। हालांकि एक साथ चुनाव कराने के मामले में संविधान मौन है। संविधान के कुछ ऐसे प्रावधान भी है जो एक देश और एक चुनाव के विचार से एकदम अलग हैं।
  • मसलन संविधान के अनुच्छेद 2 के तहत संसद किसी भी राज्य का विलय कर सकती है जबकि अनुच्छेद 3 उसी संसद को किसी राज्या को नया राज्य बनाने का भी अधिकार देती है। ऐसे में वहां अलग से चुनाव कराने पड़ सकते हैं।
  • इसी तरह अनुच्छेद 85 (2)(ख) है। जो ये कहता है कि राष्ट्रपति कभी भी लोकसभा को भंग करने की घोषणा कर सकते हैं जबकि अनुच्छेद 174 (2) (ख) है जिसके मुताबिक राज्यों की विधानसभाओं को राज्य का राज्यपाल कभी भी भंग करने की सिफारिश कर सकता है।
  • एक अनुच्छेद 352 भी है। जिसके मुताबिक देश पर किसी बाहरी मुल्क का हमला, युद्ध और सशस्त्र विद्रोह की सूरत में राष्ट्रपति देश में आपातकाल लगाकर लोकसभा का कार्यकाल बढ़ा भी सकते हैं।
  • संविधान का अनुच्छेद 356 कहता है कि राष्ट्रपति राज्यों की विधानसभाओं को भी भंग करके वहां राष्ट्रपति शासन लगा सकते हैं। ऐसी सूरत में उस राज्य के राजनीतिक समीकरण में कुछ ऐसे बदलाव भी आ सकते हैं जिससे उस राज्य में चुनाव कराने की नौबत आ सकती है।
  • इस मामले में ये तर्क शायद सबसे अहम माना जाता है कि ये विचार देश के संघीय ढांचे के एकदम उलट है। इस विचार को संसदीय लोकतंत्र के विपरीत माना जाता है। असल में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने पर कुछ विधानसभाओं का कार्यकाल उनकी तय मियाद के या तो घटाया जा सकता है या बढ़ाया जा सकता है। इससे राज्यों की आजादी पर असर पड़ेगा।
  • भारत का संघीय ढांचा संसदीय शासन प्रणाली वाला है। संसदीय शासन प्रणाली में बार बार चुनावों का होना एक जरूरी मगर कड़वा सच है।
  • एक चुनाव का विरोध करने वालों का तर्क ये भी है कि लोक सभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने पर राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय या स्थानीय मुद्दे कमजोर पड़ सकते हैं या गौण हो जाएं। ऐसा भी हो सकता है कि स्थानीय मुद्दों के सामने राष्ट्रीय मुद्दे अपना अस्तित्व ही खो दें। अक्सर देखा गया है कि लोक सभा और विधानसभा चुनावों में मुद्दे अक्सर अलग अलग होते हैं। लोक सभा का चुनाव राष्ट्रीय सरकार के गठन के लिए होता है जबकि विधानसभा का चुनाव स्थानीय मुद्दों पर आधारित राज्य सरकारों को चुनने के लिए होता है।
  • एक तर्क ये भी है कि लोकतंत्र में जनता का शासन है। लिहाजा वक्त वक्त पर चुनाव होते रहने से किसी भी नेता को बार बार अपने मुद्दों और अपनी बात के साथ जनता के सामने जाना पड़ता है जिससे वो नेता को जनता के प्रति जवाबदेह बनाते हैं। लेकिन अगर एक साथ चुनाव होंगे तो पांच साल में एक बार ही नेता जनता के पास जा सकेंगे जिससे उनके निरंकुश होने की गुंजाइश बढ़ जाती है।

तर्कों के जाल में उलझी बहस

इन तर्कों के साथ एक देश और एक चुनाव की बहस फंसी हुई है। इस बीच मौजूदा सरकार की कैबिनेट में 12 अगस्त को एक देश और एक चुनाव का प्रस्ताव पास कर दिया। कैबिनेट में पास होने के बाद अब इसे बिल की शक्ल में सरकार की तरफ से संसद में पेश किया जाएगा।

लेकिन सवाल इससे आगे का है।

  • भारत में एक देश, एक चुनाव की जरूरत पर संजीदगी से विचार किया जा सकता है। कई पहलुओं पर चर्चा की जा सकती है। सबसे पहले, राज्य और राष्ट्रीय चुनावों के बीच होने वाली समय की बर्बादी और भारी खर्च को कम करने के लिए ये सुझाव काफी महत्वपूर्ण है।
  • देश में एक ही समय पर चुनाव होते हैं, तो सरकार और निर्वाचन आयोग को बार-बार संसाधन नहीं लगाने पड़ेंगे और जनता की भी कम बार वोटिंग प्रक्रिया से गुजरना होगा।
  • चुनाव की प्रक्रिया न केवल प्रशासनिक स्तर पर सुविधाजनक होगी, बल्कि चुनावों के लिए जरूरी धन और संसाधनों का सही इस्तेमाल भी हो सकेगा।
  • भारत में लोकसभा चुनाव में खर्च बहुत बड़ा होता है, जिसमें उम्मीदवारों, पार्टी प्रचार, सुरक्षा, मतदान केंद्रों की व्यवस्था, और अन्य प्रशासनिक खर्चे शामिल होते हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव का खर्च अनुमानित रूप से लगभग ₹50,000 करोड़ था।

पिछले पांच चुनावों में खर्च का विश्लेषण

यानी सात पिछले चुनावों में ये खर्च सात गुना से भी ज्यादा बढ़ गया। इन आंकड़ों से साफ हो जाता है कि हर चुनावों का खर्च तेजी से बढ़ जाता है। बढ़ता खर्च असल में चुनावी खर्च और प्रचार पर निर्भर करता है। प्रचार के लिए मीडिया खर्च, चुनावी विज्ञापनों की कीमत और विभिन्न उम्मीदवारों की तरफ से खर्च किए गए धन में भी लगातार बढ़ोतरी देखी जा रही है।

चुनावी तंत्र की चुनौतियां

भारत जैसे बड़े देश में एक साथ चुनाव कराना प्रशासनिक दृष्टि से बेहद चुनौतीपूर्ण है। एक साथ चुनाव कराने के लिए लाखों ईवीएम और वीवीपैट मशीनों की जरूरत महसूस होगी। मौजूदा संसाधन पर ही सवाल खड़े होते रहते हैं। ऐसे में इस स्तर की तैयारी के लिए पर्याप्त साधन और संसाधन नहीं है। एक देश, एक चुनाव से खर्च कम होने की बात कही जाती है, लेकिन इसके लिए जो अतिरिक्त तैयारियाँ करनी होंगी, वे भी महंगी हो सकती हैं।

  • ईवीएम की खरीद और रखरखाव
  • प्रशासनिक संसाधनों की तैनाती
  • बड़े पैमाने पर प्रचार की जरूरत

सभी राज्यों में चुनाव एक साथ कराने के लिए बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों की जरूरत पड़ेगी। अभी जब अलग अलग राज्यों में चुनाव एक साथ नहीं होते हैं तो कई कई चरणों में मतदान कराना पड़ता है। जिसमें ज्यादातर वजह सुरक्षा ही होती है।
लोकतंत्र में चुनाव जनता का अधिकार है। अगर कोई सरकार गिरती है, तो जनता को नया जनादेश देने का अधिकार होना चाहिए। ऐसे में एक देश, एक चुनाव लागू होने पर यह अधिकार सीमित हो सकता है।

बार-बार चुनाव लोकतंत्र की जीवंतता का प्रतीक हैं। इससे जनता को लगातार अपने प्रतिनिधियों का मूल्यांकन करने का मौका मिलता है।

संवैधानिक बदलाव की आवश्यकता

एक देश, एक चुनाव को लागू करने के लिए भारतीय संविधान में कुछ बदलावों की जरूरत होगी। लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ कराने के लिए संविधान में संशोधन करना होगा। इसके अलावा, राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल के बारे में भी नई व्यवस्था बनाने की जरूरत महसूस होगी जिससे सभी चुनावों को एक साथ आयोजित किया जा सके।

Author

  • गोपाल शुक्ल - दायित्व मीडिया

    जुर्म, गुनाह, वारदात और हादसों की ख़बरों को फुरसत से चीड़-फाड़ करना मेरी अब आदत का हिस्सा है। खबर का पोस्टमॉर्टम करने का शौक भी है और रिसर्च करना मेरी फितरत। खबरों की दुनिया में उठना बैठना तो पिछले 34 सालों से चल रहा है। अखबार की पत्रकारिता करता था तो दैनिक जागरण और अमर उजाला से जुड़ा। जब टीवी की पत्रकारिता में आया तो आजतक यानी सबसे तेज चैनल से अपनी इस नई पारी को शुरु किया। फिर टीवी चैनलों में घूमने का एक छोटा सा सिलसिला बना। आजतक के बाद ज़ी न्यूज, उसके बाद फिर आजतक, वहां से नेटवर्क 18 और फिर वहां से लौटकर आजतक लौटा। कानपुर की पैदाइश और लखनऊ की परवरिश की वजह से फितरतन थोड़ा बेबाक और बेलौस भी हूं। खेल से पत्रकारिता का सिलसिला शुरू हुआ था लेकिन अब तमाम विषयों को छूना और फिर उस पर खबर लिखना शौक बन चुका है। मौजूदा वक्त में DAYITVA के सफर पर हूं बतौर Editor एक जिम्मेदारी का अहसास है।

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