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शरद पवार: हिन्दुस्तान की सियासत के चाणक्य या ‘सियासी पैंतरेबाज़’

Dayitva Sharad Pawar Maharashtra Election -1
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गोपाल शुक्ला

शरद पवार…। भारतीय राजनीति का एक ऐसा नाम, जो न केवल महाराष्ट्र की सीमाओं में कैद है, बल्कि देश की सियासत का एक बेहद खास और सबसे जाना पहचाना चेहरा भी है। गुजरे कुछ अरसे में इस नाम को ‘हिन्दुस्तान की सियासत का चाणक्य’ भी कहा जाता है, मगर सियासत में उनके धुर विरोधी उन्हें ‘मौका परस्त’ और ‘सियासी पैंतरेबाज़’ से ज्यादा कुछ नहीं मानते हैं। ऐसे में सवाल तो सिर उठा ही लेता है कि क्या शरद पवार असल में चाणक्य ही हैं, या फिर सिर्फ एक मौका परस्त सियासी खिलाड़ी? हिन्दुस्तान की सियासत में शरद पवार ऐसे धुरंधर माने जाते हैं, जिनकी चालें अक्सर उनकी मंशा से बड़ी होती हैं। सत्ता, स्वार्थ और चालबाजियों से भरा उनका सियासी सफर सवालों से सराबोर है।

शरद पवार का शुरुआती सफर और मराठा राजनीति का नया सूरज

1967 में महज़ 27 साल की उम्र में पहली बार विधानसभा चुनाव जीतकर शरद पवार ने सियासत की दुनिया में अपना पहला बड़ा और मजबूत कदम रखा था। उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत मराठा राजनीति के केंद्र में हुई। उन्हें महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों का अगुवा माना गया और धीरे-धीरे वे सत्ता के गलियारों में अपने कदम जमाने लगे।

शरद पवार के सफेद कपड़ों पर सियासी दाग

शरद पवार की क्षमता और कूटनीति ने उन्हें सियासत के शिखर पर पहुंचाया, लेकिन सवाल यह है कि क्या उनकी रणनीति राजनीति में उनकी समझ का प्रमाण है, या फिर सत्ता के लिए खेला गया एक सधा हुआ खेल? क्योंकि शरद पवार के विरोधी उन्हें अवसरवादी मानते हैं, और उनके समर्थक उन्हें एक मंझा हुआ नेता. लेकिन शरद पवार का अतीत कई ऐसी कहानियों से भरा है जो उनकी तस्वीर में छुपे कुछ गहरे दागों को उजागर कर देता है और यही दाग उनके उजले दामन को कोरा नहीं रहने देते।

सत्ता के खेल में शातिर

शरद पवार की सियासत के किस्से सिर्फ एक नेता की कहानी नहीं है. बल्कि एक ऐसे राजनेता की कहानी सुनाती है, जिसने अपने फायदे के लिए झूठ, छल और प्रपंच के साथ साथ मौका परस्ती की हदें भी लांघीं।. क्या शरद पवार एक ऐसे नेता हैं जो संकट के समय सख्त फैसले लेते हैं? या वह केवल सत्ता के खेल में एक माहिर खिलाड़ी हैं, जो हर मुश्किल घड़ी में खुद को बचाने की कला जानते हैं?

1991 प्रधानमंत्री पद की रेस और पीछे हटने की कहानी

1991 में, जब राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के भीतर प्रधानमंत्री पद को लेकर खींचतान शुरू हुई, शरद पवार भी दौड़ में थे। उन्होंने खुलकर अपनी प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जाहिर की, लेकिन जब पीवी नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना गया, तब शरद पवार ने पार्टी के भीतर असंतोष पैदा किया और खुद को पार्टी का एक विकल्प मानने लगे।

यहाँ भी जब वह निर्णायक कदम उठाने के लिए खड़े हो सकते थे, तब उन्होंने पीछे हटने का विकल्प चुना। पवार के इस कदम को उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के मुकाबले उनके अंदर की कमजोरी के रूप में देखा गया। उन्होंने न केवल प्रधानमंत्री पद गंवाया, बल्कि यह भी दिखाया कि जब उन्हें बड़ा फैसला लेना होता है, तब वह अक्सर पीछे हट जाते हैं।

विदेशी मूल का मुद्दा और सिद्धांतों से समझौता

1999 का साल, जब शरद पवार ने एक और चौंकाने वाला कदम उठाया। सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाते हुए उन्होंने कांग्रेस पार्टी को छोड़ दिया और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी का गठन किया। उनके इस कदम ने यह भी साबित कर दिया कि कैसे वह खुद को कांग्रेस के भीतर मजबूत करने में नाकाम रहे और सत्ता के लालच में अपनी पार्टी बनाई। यहां भी विडंबना देखिए, जिस मुद्दे पर पवार ने पार्टी छोड़ी थी, यानी सोनिया गांधी का विदेशी मूल, उसी सोनिया गांधी के साथ गठबंधन करके उन्होंने सत्ता में वापसी की। यह उनके अवसरवादी राजनीतिक फैसलों का सबसे बड़ा सबूत था। सिद्धांतों की राजनीति का दावा करने वाले शरद पवार ने यहां भी दिखा दिया कि जब बात सत्ता में बने रहने की हो, तो उनके लिए सिद्धांतों का कोई महत्व नहीं।

पवार की सियासत के सफर में धुंधले पन्ने

शरद पवार का यह फैसला उनके राजनीतिक करियर का एक और धुंधला पहलू था। जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं ने उन्हें एक कड़े फैसले की उम्मीद से देखा, लेकिन जब भी मौका आया, पवार ने अपनी सुविधानुसार फैसले लिए, जो उनके निजी हित, स्वार्थ और राजनीतिक करियर को मजबूत करने के लिए थे।

शरद पवार के उजले कपड़ों पर भ्रष्टाचार के दाग

शरद पवार पर सत्ता के दौरान कई घोटालों के आरोप लगे। चाहे वह महाराष्ट्र का सिंचाई घोटाला हो, सहकारी बैंकों में वित्तीय अनियमितताएं, या फिर भूमि घोटाले.. हर बार पवार का नाम भ्रष्टाचार के मामलों में उछला। लेकिन यहां भी पवार ने अपनी राजनीतिक ताकत और प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए खुद को हर बार बचा लिया। उन्होंने सत्ता में बने रहने के लिए अपने परिवार और करीबियों को भी राजनीति में आगे बढ़ाने का काम किया। उनके भतीजे अजित पवार से लेकर अन्य करीबी रिश्तेदारों तक पवार परिवार की राजनीति एक ‘फैमिली बिजनेस’ बन चुकी है, जिन पर आरोप है कि वो भ्रष्टाचार के साथ गहराई से जुड़ी हुई है।

कृषि मंत्री और किसानों की आत्महत्याएं

शरद पवार ने यूपीए सरकार के तहत 2004 से 2014 तक भारत के कृषि मंत्री थे, लेकिन उसी दौरान किसानों की आत्महत्याों के मामलों में ग्राफ तेजी से ऊपर उठा. खासतौर पर महाराष्ट्र जैसे राज्य में।

साल 1995 से लेकर 2013 के बीच महाराष्ट्र में 60,000 से अधिक कृषि क्षेत्र में आत्महत्याओं की घटनाएं दर्ज हुईं। 2012 में महाराष्ट्र राज्य में 3,786 किसानों ने आत्महत्या की। पूरे देश में जितने किसानों ने आत्हत्या की थी, उनमें चौथाई हिस्सा महाराष्ट्र के किसानों का था।

भारत में 2009 से 2016 तक, कुल 25,613 किसानों ने आत्महत्या की। एक आरटीआई के मुताबिक, 2013 और 2018 के बीच महाराष्ट्र में 15,000 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की।

किसानों की बजाय कॉरपोरेट के नेता

महाराष्ट्र के साथ साथ देश की राजनीति में भी शरद पवार को किसान नेता के रूप में भी देखा जाता है, क्योंकि लंबे समय तक शरद पवार ने केंद्र में कृषि मंत्रालय को भी संभाला, लेकिन उनकी कृषि नीतियां और फैसले उनके कॉरपोरेट समर्थकों के हित में ज्यादा रहे हैं। उन्होंने किसान आंदोलन के समय भी कॉरपोरेट्स और किसानों के बीच अपना संतुलन बनाए रखा। पवार की राजनीति का यह पहलू दिखाता है कि उन्होंने किस तरह किसानों का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक छवि को मजबूत करने के लिए किया, लेकिन जब भी समय आया, उन्होंने कॉरपोरेट्स का पक्ष लिया।

शरद पवार के राजनीतिक जीवन में एक बात साफ है कि जब भी बड़ा निर्णय लेने का समय आया, उन्होंने अक्सर खुद को बचाने का रास्ता चुना। चाहे वह प्रधानमंत्री पद की दौड़ हो या 1993 के मुंबई धमाकों का झूठ या फिर सोनिया गांधी के विदेशी मूल पर सवाल उठाना..हर बार पवार ने सत्ता के लिए अपनी नैतिकता और सिद्धांतों से समझौता किया।

अवसरवाद और छल-कपट की राजनीति

जब लोग एक मजबूत और ईमानदार मराठा नेता की उम्मीद कर रहे थे, तब पवार ने राजनीतिक खेल खेला, और खुद को सत्ता के केंद्र में बनाए रखा। शरद पवार के समर्थक चाहे उन्हें एक चतुर और मंझा हुआ नेता मानते हों, लेकिन उनके आलोचक उन्हें अवसरवाद और छल-कपट की राजनीति का सबसे बड़ा प्रतीक मानते हैं। उनका राजनीतिक सफर सत्ता के लिए किए गए समझौतों, झूठे दावों, और सिद्धांतहीन फैसलों का एक जीता-जागता उदाहरण है। जब जनता को नेतृत्व की जरूरत थी, शरद पवार ने अक्सर पीठ दिखाई, और जब भी बड़ा फैसला लेना था, उन्होंने अपने स्वार्थ को प्राथमिकता दी।

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  • गोपाल शुक्ल - दायित्व मीडिया

    जुर्म, गुनाह, वारदात और हादसों की ख़बरों को फुरसत से चीड़-फाड़ करना मेरी अब आदत का हिस्सा है। खबर का पोस्टमॉर्टम करने का शौक भी है और रिसर्च करना मेरी फितरत। खबरों की दुनिया में उठना बैठना तो पिछले 34 सालों से चल रहा है। अखबार की पत्रकारिता करता था तो दैनिक जागरण और अमर उजाला से जुड़ा। जब टीवी की पत्रकारिता में आया तो आजतक यानी सबसे तेज चैनल से अपनी इस नई पारी को शुरु किया। फिर टीवी चैनलों में घूमने का एक छोटा सा सिलसिला बना। आजतक के बाद ज़ी न्यूज, उसके बाद फिर आजतक, वहां से नेटवर्क 18 और फिर वहां से लौटकर आजतक लौटा। कानपुर की पैदाइश और लखनऊ की परवरिश की वजह से फितरतन थोड़ा बेबाक और बेलौस भी हूं। खेल से पत्रकारिता का सिलसिला शुरू हुआ था लेकिन अब तमाम विषयों को छूना और फिर उस पर खबर लिखना शौक बन चुका है। मौजूदा वक्त में DAYITVA के सफर पर हूं बतौर Editor एक जिम्मेदारी का अहसास है।

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